दिनकर के उर्वशी की ऐतिहासिकता

Dr. Mulla Adam Ali
0

Urvashi by Ramdhari Singh Dinkar

Urvashi by Ramdhari Singh Dinkar

दिनकर के उर्वशी की ऐतिहासिकता

काव्य सृष्टि के दो सूत्राधार है कल्पना और इतिहास। कल्पना जन्य काव्य में कवि अपनी कल्पना से काव्य की कथावस्तु और उसके पात्रों का निर्माण करता है। इसमें तत्त्व केवल इतना होता है कि उस काल्पनिक कथावस्तु और उन पात्रों के द्वारा कवि जिस निष्कर्ष का प्रतिपादन करता है, वह मनोवैज्ञानिक होने के कारण सत्य होता है। काव्य का यह सत्य शाश्वत और सरल होता है। यही काव्य और इतिहास के मध्य गहरी विभाजक रेखा खींचता है।

इतिहास गत-घटनाओं का संग्रहित लेखा-जोखा होता है वह नीरस और अमनोवैज्ञानिक भी हो सकता है। इतिहासकार काव्यकार की भांति घटनाओं की तह में घुसकर उनका विश्लेषण नहीं करता । ब्योरेवार घटनाओं का ब्योरा देना चाहता है। उसके फल और परिणति से उसका कोई संबंध नहीं होता । यही कारण है कि साहित्य में जो सत्य, शिव और सुन्दर की योजना होती है, उसका इतिहास में अभाव होता है। अर्थात् मानव मन की बाह्य क्रियाओं की अपेक्षा उसकी आन्तरिक क्रियाएँ सत्य होती हैं। काव्य इसी सत्य का प्रतिपादन करता है।

ऐतिहासिक काव्य इतिहास और कल्पना का समन्वय होता है। ऐतिहासिक काव्यकार अपना कथावस्तु और अपने पात्र तो निश्चय ही इतिहास से ग्रहण करता है, किन्तु वह इतिहास की लीक पर अंधा होकर नहीं चलता, वरन अपनी कल्पना का पुट देकर ऐतिहासिक घटनाओं को सरस और मनोवैज्ञानिक बनाकर एक शाश्वत सत्य का उद्घाटन करता है। वह सत्य जो पाठकों अथवा श्रोताओं के हृदय पर अपेक्षाकृत गम्भीर प्रभाव करता है, यहाँ यह स्पष्ट करना उचित होगा कि यद्यपि काव्यकार को ऐतिहासिक काव्य-रचना करते समय अपनी कल्पना का प्रयोग करने की पूर्ण स्वतंत्रता होती है, तथापि उसकी यह स्वतंत्रता भी कतिपय सीमाओं से आबद्ध होती है। दूसरे शब्दों में कह सकते कि ऐतिहासिक काव्यकार को इतिहास की घटनाओं को विकृत करने का बिल्कुल भी अधिकार नहीं होता । यदि वह ऐसा करेगा तो उसके काव्य का प्रभाव बिखर जायेगा, क्योंकि जनमानस में इतिहास ने जो गहरी रेखायें खींच दी हैं, वे सहज ही नहीं मिटायी जा सकतीं। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि किसी भी ऐतिहासिक काव्य में दो तत्त्व अनिवार्यतः विद्यमान होते हैं-ऐतिहासिक तत्त्व और कल्पना तत्त्व । अतः किसी ऐतिहासिक काव्य का विवेचन करते समय इन दो तत्त्वों के अतिरिक्त यह भी परखना होता है कि काव्यकार का कल्पना तत्त्व काव्य की प्रभावशीलता में किस सीमा तक साधक अथवा बाधक सिद्ध होता है।

उर्वशी निःसन्देह ऐतिहासिक नहीं वरन् प्रागैतिहासिक घटनाओं पर आधृत काव्य-रचना है। इसकी ऐतिहासिकता का विवेचन उपर्युक्त मापदण्डों पर करना भी उचित और आवश्यक है।

दिनकर ने उर्वशीमें महाराज पुरुरवा और उर्वशी की प्रेमकथा वर्णित किया है। यह कथा भारतीय इतिहास में आदिकाल से ही मिलती है। सर्वप्रथम ऋग्वेद में इसका उल्लेख प्राप्त होता है-

पुरुरवः ! पुनरस्त परेहि

दुरापना वात इवाहमस्मि

अर्थात् हे पुरुरवा, तुम अपने घर लौट आओ। मैं वायु के समान दुष्प्राप्य हूँ । इस सुक्त से यह भली-भांति ज्ञात हो जाता है कि उर्वशी पुरुरवा को छोड़कर चली गई थी और महाराज पुरूरवा विरहोन्मत्त होकर उसकी खोज कर रहे थे। इसके पश्चात ऋग्वेद में यह कथा आगे भी चलती है जिसमें बताया गया है कि जब उर्वशी पुरूरवा को मिली तो वह गर्भवती थी इसलिए उसने महाराजा पुरूरवा के साथ रहना अस्वीकार दिया। इसके बाद तो अनेक भारतीय ग्रन्थों में इस कथा का भिन्न-भिन्न प्रकार से उल्लेख मिलता है। कहने का भाव यह है कि उर्वशी - पुरूरवा आख्यान ऋग्वेद से आविर्भूत होकर परवर्ती युगों में अपने भिन्न-भिन्न रूपों में आख्याथित होता रहा, किन्तु इसकी ऐतिहासिकता अथवा प्रागैतिहासिकता असंदिग्ध है, इसमें दो राय नहीं हो सकते।

'दिनकर के 'उर्वशी' के प्रमुख पात्र है उर्वशी, पुरूरवा, च्यवन ऋषि, सुकन्या, आयु, औशीनरी, मेनका और अन्य सखियाँ, ये सब पात्र ऐतिहासिक हैं। इनमें से भी उर्वशी, पुरूरवा, च्यवन ऋषि, सुकन्या और आयु विशेष रूप से उल्लेखनीय है।

इसमें संदेह नहीं कि ऋग्वेद में ही उर्वशी का आविर्भाव हो गया था, किन्तु उर्वशी की उत्पत्ति किस प्रकार हुई इस विषय में निर्विवाद रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। इसकी उत्पत्ति के विषय में मत प्रचलित हैं। एक मत यह है कि जब देव और असुरों ने मिलकर समुद्र मंथन किया था, तो उससे जो अप्सरायें निकली थीं, उन्हीं में उर्वशी थी। दूसरा मत यह है कि इसकी उत्पत्ति नारायण ऋषि के डर से हुई। दिनकर ने दोनों ही मतों का उल्लेख किया है। इनमें से कौन मान्य है और कौन अमान्य? इस प्रश्न का दिनकर ने कोई उत्तर नहीं दिया। महाराज पुरूरवा उर्वशी से पूछते हैं -

कहते हैं, मैं स्वयं विश्व में आया बिना पिता के

तो क्या तुम भी, उसी भांति, सचमुच, उत्पन्न हुई थीं,

माता बिना, मात्र नारायण ऋषि की कामेच्छा से,

तपः पूत नर के समस्त संचित तप की आभा-सी ।

- -  - - - - - -

या समुद्र जब अन्तराग्नि से आकुल, तप्त, विकल था

तुम प्रसून - सी स्वयं फूट निकलीं उस व्याकुलता से

ज्यों अम्बुधि की अन्तराग्नि से अन्य रत्न बनते हैं?

महाराजा पुरूरवा भी ऐतिहासिक व्यक्ति हैं, ऋग्वेद में इनका उल्लेख मिलता है -

पुरूरवः पुरनस्त परेहि दुरापना वात इवाहमस्मि

अर्थात् हे पुरुरवा ! तुम अपने घर को लौट जाओ, मैं वायु के समान दुष्प्राप्य हूँ।

पुराणों में पुरूरवा से सम्बन्धित जो आख्यान मिलता है, उसमें बताया गया है कि जब मनु और श्रद्धा को संतान की इच्छा हुई तो उन्होंने वशिष्ठ से यज्ञ करवाया। श्रद्धा चाहती थी, वह कन्या की माता बने और मनु चाहते थे कि उन्हे पुत्ररत्न की प्राप्ति हो। यज्ञानुष्ठान से तो कन्या की ही उत्पत्ति हुई, किन्तु महर्षि वशिष्ठ ने मनु को इच्छानुसार उस कन्या को पुत्र बना दिया। उसका नाम सुद्युम्न रखा गया।

जब सुद्युम्न युवा हो गया तो एक दिन बन में शिकार खेलने के लिए गया। अनजाने ही वह किसी ऐसे बन में जा निकला जिसमें प्रवेश निषिद्ध था। फलतः वह युवा से युवती बन गया और उसका नाम इला हो गया। इला का प्रेम चन्द्रमा के पुत्र बुध से हो गया जिसके फलस्वरूप पुरूरवा की उत्पत्ति हुई। स्वयं दिनकर ने इसी आख्यान का उल्लेख 'उर्वशी' की भूमिका में किया है, किन्तु इसकी कोई विवेचना नहीं की, इतना अवश्य कहा है कि पुरूरवा का कोई पिता नहीं था-

'कहते हैं, में स्वयं विश्व में आया बिना पिता के'

किन्तु कवि ने अपनी इस मान्यता का कोई आधार नहीं बताया। फिर भी इतना निर्विवाद कहा जा सकता है कि पुरूरवा और इनका प्रेमाख्यान ऐतिहासिक है।

महर्षि च्यवन और उनकी पत्नी भी ऐतिहासिक पात्र है, ऋग्वेद में च्यवन और अश्विनीकुमारों का उल्लेख मिलता है महाभारत के अनुसार च्यवन की माता का नाम फलोमा और पिता का नाम भृगु था। हिन्दी कथा कोष में इनका विवरण इस प्रकार दिया हुआ है- कहा जाता है कि जब च्यवन की माता गर्भवती थी तभी एक राक्षस उन्हें ले भागा। मार्ग मे भय से इनका गर्भपात हो गया। द्रवीभूत हो राक्षस ने उनको सद्यः जन्मपुत्र के साथ चले जाने की आज्ञा दे दी। उसी पुत्र का नाम च्यवन हुआ। च्यवन बहुत बड़े ऋषि हो गये हैं। एक बार नर्मदा तट पर घोर तपस्या करते हुए ये बहुत दिनों तक समाधिस्थ रहे। इनके सारे शरीर को दीमकों ने ढक लिया, केवल आँखें ही चमकती रहीं, उनके इस आश्रम में एक शर्यात की कन्या सुकन्या पहुँची और उनकी आँखों को जुगनू समझकर खोद दिया जिससे आँखों से रक्त बहने लगा। राजा शर्यात क्षमा माँगते आए, पर स्त्री रूप में सुकन्या को देने पर ही च्यवन क्षमा करने को प्रस्तुत हुए।।

आयु भी ऐतिहासिक पात्र है। पुराणों में बताया गया है। कि महाराज पुरूरवा से उर्वशी को छः पुत्र रत्नों की प्राप्ति हुई जिसमें सबसे बड़े पुत्र का नाम आयु था। इसके अतिरिक्त औशीनरी, मेनका तथा अन्य सखियाँ भी ऐसे पात्र हैं जिनका उल्लेख भारतीय वागङ्मय में मिलता है।

उपरोक्त विवरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि उर्वशी का आख्यान और इसके पात्र ऐतिहासिक है, दिनकर के 'उर्वशी' में इतिहास और कल्पना का मधुर एवं प्रभावक सामंजस्य है, यदि पूर्ववर्ती साहित्य एवं कवियों की कल्पना-जन्य घटनाओं को भी ऐतिहासिक मान लिया जाये तो यह निःसंकोच कहा जा सकता है कि कवि दिनकर को इस काव्य में अपनी कल्पना से घटना- प्रसूत करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी है। इनकी कल्पना की महत्ता तो केवल विविध रूपों में से किसी एक रूप का चयन करने में ही निहित रही है, कल्पना का यह योग भी कम महत्वपूर्ण नहीं है।

- राजेन्द्र परदेसी

ये भी पढ़ें; कलम के सिपाही दिनकर के प्रति एक कविता : Kalam Ke Sipahi Dinkar

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें (0)

#buttons=(Accept !) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Learn More
Accept !
To Top