Sampark Bhasha, Rajbhasha, Rashtrabhasha, Janbhasha : 14 September Hindi Diwas
संपर्क भाषा, राजभाषा, राष्ट्रभाषा या जनभाषा
भाषा इस धरातल पर विचरण करनेवाले मानव प्राणियों की रीढ़ समान है। इससे व्यक्ति की पहचान ज्ञात होती है। बिन भाषा ज्ञान के मानव गूंगा है या यूं कहें कि संबंधित भाषा से अपरिचित व्यक्ति पढ़ा लिखा होकर भी अनपढ़ समान प्रतीत होता है। जी हाँ, यह बात एकदम सत्य है। भाषा हमें एक दूसरे से जोड़ने का कार्य करती है न कि तोड़ने का । यह चलती है, रुकती प्रतीत होती है और फिर चलती रहती है। कभी-कभी ये भाषाएँ देवरानी-जेठानी की तरह आपस में ही भिड़ भी जाती हैं। परंतु, फिर भी रानी तो रानी ही है, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता। संपर्क या जनभाषा, राजभाषा और राष्ट्रभाषा आदि पर चर्चा से पूर्व यह जान लेना आवश्यक है कि यह 'भाषा' शब्द क्या है?
'भाषा' शब्द संस्कृत के भाषा धातु से संबंधित है, जिसका सीधा-सादा अर्थ है जिसे बोला जाए। भाषा न केवल अभिव्यक्ति का एक माध्यम है अपितु वह चिंतन को भी प्रभावित करती है। भाषा व्यवहार से प्रतीत होता है कि भाषा के साथ उसके बोलने वालों की संस्कृति और संस्कार जुड़े होते हैं। वैसे तो हम भाषा को अनेक आधारों पर वर्गीकृत कर सकते हैं। परंतु - विचार, विशेष उद्देश्य, क्षेत्रीय विस्तार, प्रांत एवं विश्वचेतना की संवाहिका इनमें प्रमुखतः आंके जा सकते हैं। विस्तृत रूप में इसका आकलन करनोपरांत यह संपर्क या जनभाषा, राजभाषा और राष्ट्रभाषा के रूप में हमारे सम्मुख उपस्थित होती है।
'राजभाषा' वह भाषा है जिसके माध्यम से राजकीय कार्यों को निपटाया या पूरा किया जाता है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि सरकारी कानून बनाने, आदेश निकालने, अध्यादेश जारी करने, प्रतिवेदन, ज्ञापन - सूचना प्रसारित करने, लेखा-जोखा तैयार करने, व्यावसायिक काम करने, अपनी बात दूसरों तक लिखित रूप में पहुंचाने आदि हेतु जिस भाषा का हम प्रयोग करते हैं, उसे ही राजभाषा के नाम से जाना जाता है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि राजभाषा प्रयोजनमूलक भाषा है। अतः राजभाषा का अर्थ कार्यालयीन या प्रशासनिक व्यवस्था हेतु प्रयोग की जानेवाली भाषा का नाम है। देश में 14 सितंबर, 1949 को संविधान सभा ने देवनागरी लिपि में लिखी जानेवाली हिंदी को ही भारत की राजभाषा का दर्जा प्रदान किया।
हिंदी भाषा को शिक्षण तौर पर अपनाने हेतु महात्मा गांधीजी ने 1910 में कहा था कि "हिंदी शिक्षा व्यवस्था का सवाल मेरे लिए देश की आज़ादी से कम महत्वपूर्ण नहीं है।" हमारे देश में राजभाषा प्रथमतः केंद्र या संघ की भाषा के रूप में और फिर राज्यों की राजभाषाओं के रूप में आंकी गई है। हम देखते हैं कि केंद्र या संघ के स्तर पर केवल एक ही राजभाषा है, और वह है हिंदी। परंतु राज्यों के स्तर पर इसका रूप भिन्न नज़र आता है और अनेकानेक भाषाएं विभिन्न राज्यों में राजभाषा के रूप में स्वीकृत हैं। चूंकि इस श्रेणी में हिंदी सिरमौर है, इसलिए अनेक हिंदी प्रदेशों के राज्यों में भी संघ के साथ-साथ इसे राजभाषा' का दर्जा प्राप्त है। दूसरे राज्यों में अंतर केवल इतना ही है कि केंद्रीय स्तर पर राजभाषा हिंदी है परंतु क्षेत्रीय स्तर पर प्रचलित भाषाएं उन राज्यों की राजभाषाएं हैं।
हिंदी हमारी राजभाषा या राष्ट्रभाषा होने के साथ-साथ जनभाषा भी है। देश-विदेश के विशाल भू-भाग में यह अत्यधिक लोगों के विचार-विनिमय के माध्यम के रूप में फैली है। चूंकि देश के अधिकांश लोग इसे विचारों के आदान-प्रदान के रूप में खुलकर प्रयोग करते हैं इसलिए यह हमारी राष्ट्रभाषा या संपर्क भाषा भी है। एक स्थान पर डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र ने कहा है कि - "जब भारत की राष्ट्रीय संस्कृति की संवाहक भाषा के रूप में हिंदी का प्रयोग होता है तब वह राष्ट्रभाषा होती है। जब भारत के एक कोने से लेकर दूसरे कोने तक सामान्य जन के बीच अनेकों वर्षों से प्रचलित भाषा के रूप में हिंदी का नाम लिया जाता है, तब वह जनभाषा या संपर्क भाषा होती है और जब केंद्र सरकार के कार्यालयों, राष्ट्रीयकृत बैंकों और सार्वजनिक उपक्रमों के कार्यालयों की भाषा के रूप में हिंदी प्रयुक्त होती है, तब वह राजभाषा होती है। तब वह जनभाषा नहीं होती।" हिंदी भाषा बोलने और प्रयोग करने में एकदम सरल है। इसका हृदय विशाल है। यह अन्य भाषा के पॉपुलर शब्दों को तुरंत अंगीकार कर लेती है। इसका स्वभाव एक दार्शनिक की अपेक्षा संत की तरह का है। जहां दार्शनिक कभी भी तर्कों के सहारे ऊपर उठता है वहीं संत लहरों की तरह फैलता जाता है। आज के युग में हिंदी का वैश्विक फैलाव इस तत्थ को स्वयं ही सिद्ध करता प्रतीत होता है।
हिंदी की विशेषता के संबंध में डॉ. राकेश अग्रवाल ने एक स्थान पर अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा है कि "जाति, वर्ग, भाषा, क्षेत्र आदि की विविधताओं के बाद भी राष्ट्रभाषा हिंदी राष्ट्रीय एकता का आधार बनी हुई है। हिंदी भारत की अनेक भाषाओं में उभयनिष्ठ बनकर पूरे देश में जन संपर्क का माध्यम है। हिंदी राष्ट्रभाषा और राजभाषा ही नहीं बल्कि समस्त भारतीय भाषाओं की संपर्क भाषा है।" देश के स्वतंत्रता सेनानियों ने अपने संपर्क में सूत्र इसी भाषा का सहारा लिया था तभी वह जन आंदोलन सफल हो पाया था। हम चाहें तो हिंदी को जनभाषा के रूप में या फिर राजभाषा या विश्वभाषा, किसी भी रूप में अपना सकते हैं।
कुछ लोगों ने भ्रांति पाल रखी है और वे राजभाषा को ही राष्ट्रभाषा कहते हैं। इस संबंध में स्पष्ट किया जाता है कि राजभाषा का क्षेत्र प्रशासनिक स्तर तक का है जबकि राष्ट्रभाषा अखिल देशीय संपर्क भाषा के रूप में जानी जाती है। राजभाषा का संबंध सरकारी कार्मिकों व प्रशासकों तक सीमित है जबकि राष्ट्रभाषा का संबंध जनसाधारण से होता है। यही कारण है कि आजादी उपरांत देश में हिंदी को संघ की राजभाषा बनाने के पश्चात् भी राष्ट्रभाषा के रूप में जो मुकुट उसने पहन रखा था वह बाद में भी यथावत रहा।
हिंदी के संबंध में प्रो. केसरी कुमार का मत है "इसी भाषा में संतों की वह बौद्धिक क्रांति हुई जिसका लक्ष्य था- वर्ग और जाति की दीवारों को तोड़कर, अंधविश्वासों को छीनकर एक समता समाज का निर्माण करना। इस क्रांति द्वारा हिंदू और मुसलमान, उत्तर और पश्चिम का भेदभाव मिट गया था ।" हिंदी का सम्मान न केवल देशी विद्वानों ने अपितु विदेशियों ने भी किया है। स्टीफन स्पेंडर ने तो हिंदी के संबंध में यहां तक कह दिया है कि 'हिंदुस्तान के लोग अपनी इतनी समृद्ध भाषाओं में रहते हुए अंग्रेज़ी में रचना क्यों करते हैं, समझ में नहीं आता।" केवल यही नहीं अपितु ऑक्तिवियों पॉज और निकलॉस गाइम्स ने भी हिंदी के महत्व एवं प्रसार प्रयोग को देखते हुए इसके पक्ष में गाढ़े संकेत दिए हैं। तभी तो समझदार लोगों को यह समझते देर नहीं लगती है कि हिंदी एक सख्य भाषा है, संस्कार भी है और व्यक्ति के विवेक की पहचान भी है।
यह कटु सत्य है कि आज़ादी के बाद हिंदी को स्वीकारने की जो संकल्पना हुई थी, वह पूर्णतः सफलीभूत नहीं हुई है। परंतु वह दिन दूर नहीं जब यह सर्वत्र परचम लहराती नज़र आएगी। महादेवी वर्मा जी की यह उक्ति 'आशा से आकाश थमा है' सदैव प्रेरणास्त्रोत बनी रहती है। हिंदी भारत की धरा पर विचरण करनेवाले सभी मानव प्राणियों के आपसी व्यवहार की, पारस्परिक मेल-जोल की भाषा के रूप में विकसित हुई है। यह हमारे महान राष्ट्र की राष्ट्रभाषा, राजभाषा, संपर्क भाषा या जनभाषा के रूप में सिंहासन पर विराजमान है। इसीलिए यह सभी कोणों से 'सुभाषा' कहलाने का अधिकार भी रखती है। आज की परिस्थितियों पर यदि नज़र डाली जाए तो आवश्यकता है दृढ़ राजनैतिक इच्छा शक्ति की, नौकरशाहों के कठोर निर्णय की और जनता-जनार्धन के संकल्प की।
अंततः हिंदी के उज्ज्वल भविष्य के संबंध में केवल इतना ही कहा जा सकता है कि जब इंग्लैंड के प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर, माइक्रोसॉफ्ट के शहंशाह बिल गेट्स, विश्व हिंदी सम्मेलन आदि हिंदी के वैश्विक प्रचार-प्रसार-प्रयोग और ताकत को शंखनादित कर चुके हैं तो फिर संदेह की गुंजाइश ही कहाँ रहती हैं। वह दिन दूर नहीं जब हिंदी विश्व मानचित्र पर प्रथम भाषा के रूप में स्थान ग्रहण करने वाली है। वह दिन इस सदी का एक महाविजयी चरण होगा। हम भारतवासियों की अब तक की उपलब्धियों का आयाम होगा। कंप्यूटर में हिंदी का दिन-प्रतिदिन बढ़ता प्रयोग अवश्य ही एक नई क्रांति को जन्म देगा।
- संतराम यादव
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