Stri Aatmakathaon Mein Stri Vimarsh : Stri Aatmkathayen
स्त्री आत्मकथाओं में स्त्री विमर्श
आत्मकथा यानी किसी व्यक्ति की स्वलिखित जीवनी है। व्यक्ति के अंदर छिपी अदृश्य संसार को पाठकों के समक्ष उद्घाटित करना होता है और इस कार्य को सम्पन्न करता है स्वयं व्यक्ति। अपने जीवन में घटित सभी घटनाओं को ईमानदारी से पाठकों के सामने रखना आसान बात नहीं है, उसमें भी परंपरा से घिरे भारत जैसे देश में जहाँ एक नारी के लिए कुछ नियम, परंपराएँ है। आत्मकथा में अपने आप को खोलना तथा अपनी गलतियाँ को पाठकों के सामने रखना होता है यह बड़े साहस का काम है। इसी कारण लेखिकाओं की आत्मकथाएँ न के बराबर थी, लेकिन आज नारी में नई दृष्टि आई है, आत्मनिर्भर बन रही है जिसका नतीजा है, भय, लज्जा और लोकापवाद से अप्रभावित रह इन लेखिकाओं ने अपने जीवन को पाठकों के सामने रखा है।
आत्मकथाएँ जिसमें पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था द्वारा नारी पर ढ़ाए जानेवाले अन्याय, अत्याचार, विवाह संस्था की असंगतियों, पति की खलनायकी भूमिका, आत्मविकास में बाधक तत्वों से संघर्ष करती नारी, आर्थिक आत्मनिर्भरता की प्राप्ति हेतु प्रयास करती नारी आदि कुछ आयामों को अभिव्यक्त करती है जो सीधे स्त्री विमर्श का मूल है। आज स्त्री विमर्श को बढावा देने में हिंदी महिला आत्मकथा साहित्य विपुल मात्रा में है और चर्चित भी।
कुसुम अंसल, प्रभा खेतान, मैत्रेयी पुष्पा, कृष्णा अग्निहोत्री, तसलीमा नसरीन, कौसल्या बैसंत्री, डॉ. प्रतिभा अग्रवाल, पद्मा सचदेव आदि आत्मकथाकारों ने औरत का नया बेबाक रुप प्रस्तुत किया जो सत्य कहने से नहीं डरती खुद अपने जीवन को खुली किताब से समान जीती है।
कृष्णा अग्निहोत्री की आत्मकथा 'लगता नहीं है दिल मेरा' पुरुष निर्मित पितृसत्ताक नैतिक प्रतिमानों की धज्जियाँ उडाकर रख देती है। कृष्णा जी ने एक ऐसे समाज में आँखे खोली जहाँ पुत्र के सामने पुत्री कुछ भी नहीं। यह आत्मकथा लिंगभेद की पक्षपात पूर्ण नीति के दुष्परिणामों की ओर संकेत करती है। सुन्दर स्त्री के प्रति कामुक पुरुषों की दूषित निगाहें उनके जीवन को संकटग्रस्त बनाती है। यह आत्मकथा पुरुष अहं और स्वार्थ से पीड़ित नारी का कांटोभरी जिंदगी की दास्तान है। भूमिका में अपना पक्ष प्रस्तुत करते हुए लेखिका ने कहा - "बहुत झेला, बहुत भोगा, बहुत सहा.... नहीं सहन हुआ तो लिख डाला। कुद पाठकों को यह नारी यातना की महागाथा लगेगी और कुछ पाठक रसमय कामकथा के रुप में देखेंगे क्योंकि इस में अवैद्य संबधों की बहुत अधिक चर्चा हुई है।"
कुसुम अंसल की 'जो कहां नहीं गया' जीवनी रुपी आत्मकथा है। आमुख में उन्होंने लिखा है मेरा यह लेखन मेरी वह यात्रा है जिसमें प्रवाहित होकर मैं लेखिका बनी थी, मेरे उन अनुभवों का कच्चा चिठ्ठा जिनको अपने प्रति सचेत होकर मैंने रचनात्मक क्षणों में जिया था (पृ. 131) उन्हें शिकायत है कि भाई-बहन, नाते-रिश्तेदार, स्वयं के बच्चों से भी उन्हें लेखन में किसी प्रकार की मदद नहीं मिली। उन्होंने लिखा है- 'भयानक अकेलेपन मेरी साधना मैं मेरे साथ था-अकेली चली में उस राह पर' (पृ.15)
एक बालिका के रुप में ऐसा बचपन मिला कि सपनों को फैलने के अवसर रुढिवादी परिवार ने नहीं दिया। विवाह हुआ ऐसे परिवार में जहाँ व्यवसाय के द्वारा आर्थिक समृद्धि पाने की धुन महत्त्वपूर्ण थी। पत्नी की रोमांटिक कल्पनाओं की पूर्ति के लिए कोई अवकाश नहीं था। आगे चलकर इप्टा के माध्यम से कला और साहित्य की दुनिया से जुडी कई अनुभवों से गुजरने के बाद उन्होंने निष्कर्ष निकाला 'इस संसार की जनसंख्या में कम से कम पचास प्रतिशत लोग या शायद अस्सी प्रतिशत लोग सैडिस्ट हैं। घात-प्रतिघात को तैयार प्रतिस्पर्धा, जलन कुंठाएँ या मैल... एडजस्टमेंट जीते हुए।' (पृ. 206)
'दोहरा अभिशाप' कौसल्या बैसंत्री की आत्मकथा अस्पृश्य समाज में जीनेवाली नारी की करुण गाथा को प्रस्तुत करती है। लेखिका स्वयं दलित समाज में पैदा हुई है और जो कुछ पीड़ा इससे उन्हें झेलनी पडी उसीका यथार्थ चित्रण प्रस्तुत किया है। दोहरा अभिशाप में एक तो दलित होने का अभिशाप और दूसरी ओर नारी होने का। इसमें प्रमुख रूप से कौसल्या जी की आजी उनकी माँ भागेरथी और स्वयं कौसल्याजी का जीवन संघर्ष चित्रित हुआ है। अनपढ़ आजी एक आदर्शवादी स्त्री है। उन्हें अपनी जिंदगी में जो दुःख मिला, वह पति और अपने लोगों से मिला। लेखिका की माँ भागेरथी अशिक्षित लेकिन दृढ निश्चयी महिला है। अपनी सभी बच्चों को उच्च शिक्षा देकर सम्मानित जीवन प्रदान करने की कामना करती है। उनपर अच्छे संस्कार करती है। लेखिका की आजी हो या लेखिका की माँ भागेरथी हो या स्वयं लेखिका हो, वे हर हालत में अपने जिंदगी में आगे बढ़ती जाती है। लेखिका ने अपने माता, पिता से लेकर अपने व्यक्तिगत जीवन के प्रसंग भी बखूबी चित्रित किए हैं। दलित वर्ग के रीति रिवाज छूआछूत, खानपान आदि सभी का प्रस्तुतीकरण यथार्थ है। इस समाज में प्रचलित धार्मिक अंधविश्वासों एवं सामाजिक मान्यताओं का भी ब्योरा प्रस्तुत किया है।
पाठशाला में व्याप्त अस्पृश्यता और छूआछूत के कारण लेखिका अन्य लड़कियों के साथ घुल मिलकर नहीं रहती। लेकिन विपरीत परिस्थितियों में भी शिक्षा के मार्ग से हटती नहीं। समाज में व्याप्त रूढ़ि परंपराओं का बड़े साहस के साथ विरोध करती है। वे एक ऐसे व्यक्ति से विवाह करना चाहती थी, जो उच्च शिक्षित हो और दलित समाज सुधार में शामिल हो। उच्च शिक्षा और आंबेडकरवादी विचारधारा के देवेन्द्र कुमार से विवाह करती है। उच्च शिक्षित देवेन्द्र कुमार को पत्नी सिर्फ खाना बनाने और शारीरिक भूख मिटाने के लिए चाहिए थी। विवाह के पश्चात 50 वर्षों तक देवेन्द्र कुमार के उपेक्षित, प्रताड़ित और यातनापूर्ण व्यवहार को सहती जाती है। अंत में वे निश्चय करती है कि अब वे पति के अत्याचार को सहन नहीं करेंगी और पति से अलग होकर सम्मानपूर्वक जीवन जीने का निर्णय लेती है। प्रस्तुत दलित आत्मकथा दलित स्त्री जीवन की अभिव्यक्ति करनेवाली एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण साहित्य कृति मानी जाती है।
नाटक और रंगमंच के लिए समर्पित जीवन जीनेवाली डॉ. प्रतिभा अग्रवाल की आत्मकथा दो खंडों में प्रकाशित है। प्रथम खंड 'दस्तक जिंदगी की' में बनारस से ब्याह होकर मदन बाबू के साथ कोलकता आने तक का इतिवृत्त है। दूसरे खंड 'मोड जिंदगी का' में लेखिका ने कोलकता में अपने पारिवारिक जीवन के सुख-दुख के साथ हिंदी और बंगला रंगमंच से जुड़े महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों के योगदान का तटस्थ मूल्यांकन किया है।
डॉ. प्रतिभा अग्रवाल की आत्मकथाएँ उनके बचपन के घर-परिवार से संबंधित सुखद दुखद अनुभवों का लेखा जोखा ही नहीं प्रस्तुत करती, एक नारी के आत्मविश्वास पूर्ण अभ्युदय और उत्थान की गाथा भी कहती है। बंगला भाषा सीखकर उसपर अधिकार प्राप्त कर बंगाली नाटकों के हिंदी अनुवाद कर उन्होंने हिंदी के नाट्य साहित्य को सम्पन्न बनाया। नाट्य शोध संस्थान एक अभूतपूर्व संस्था है, जिसका उद्भव प्रतिभाजी के रक्तप्रवाह में भिन्न नाट्य संस्कारों से हुआ। यह आत्मकथा नारी के आत्मविकास के सामर्थ्य का बोध कराती है कि वह अबला नहीं सबला है।
पद्मा सचदेव की 'बूंद बावड़ी' एक ऐसी आत्मकथा है जो पाठकों को अंदरतक दहला देती है। इस आत्मकथा में 'पद्मा जी ने कई सवाल उठाये हैं जैसे क्या समाज की प्राचीन परंपरा टूटेगी? क्या महिलाओं को पुरुष रुपी पति समझ पायेंगी? क्या सभी इस रूप में बुरे ही होते हैं ? शीर्षक के अंतर्गत उन्होंने लिखा है मेरी ये स्मृतियाँ आत्मकथात्मक होने पर भी अपने से ज्यादा दुनियाँ से जुड़ी है। इसमें आप बीती भी है और जग बीती भी दुनिया की कहानी ही मेरी कहानी है। बूंद और बावडी का प्रतीक व्यक्ति में समष्टि के सम्बन्ध को सफलता प्रदान करता है। परिस्थितियाँ कितनी भी कठिन हो लेखिका डिगती नहीं है। लेखिका आत्मविश्वासी, दृढ़ प्रतिज्ञा एवं अदम्य जिजीविषा लेकर उपस्थित हुई है।'
मैत्रेयी पुष्पा का 'कस्तूरी कुंडल बसै' आत्मकथा है। लेखिका लिखती है यही है हमारी कहानी। मेरी और मेरी माँ की कहानी। आपसी प्रेम, घृणा, लगाव और दुराव की अनुभूतियाँ से रची कथा में बहुत सी बातें ऐसी है, जो मेरे जन्म के पहले ही घटित हो चुकी है। 'आत्मकथा के प्रथम खंड में कस्तूरी और उसकी बेटी मैत्रेयी (लेखिका) के बीच मनोवैज्ञानिक द्वन्द का वर्णन है। कस्तूरी अकाली वैधव के भार से दबकर हार नहीं मानती। ग्रामीण परिवेश के विरोधी एवं नकारात्मक तत्वों से टकराते हुए निंदा और उपहास की चिंता न करते हुए शिक्षा की डगर पर चलते हुए आत्मनिर्भरता के लक्ष्य को प्राप्त करती है। समाज से प्राप्त कटु अनुभवों से उसे पुरुष वर्चस्व का कट्टर विरोधी बना दिया और वैवाहिक बंधन से मुक्त रखना चाहती है तथा उसे आत्मनिर्भर बनाना चाहती है। बेटी शादी करना चाहती है मगर शादी के बाद आये अनुभवों से मैत्रेयी अपने में अपनी माँ को खोजती है। मैत्रेयी के अनुसार आज भी भारतीय समाज में नारी मात्र वस्तु और मनोरंजन का साधन बनी हुई है।"
इन आत्मकथाओं के द्वारा स्त्री जगत की सूक्ष्म परतें खुल सकती है। दाम्पत्य तनाव के कारणों का परिचय मिल सकता है। ये लेखिकाएँ अपने अस्तित्व की सार्थकता की तलाश कैसे कर रही है? अब स्त्रियों की चाहतें क्या है ? असंतुष्टि के कारण क्या है ? अब स्त्रियों की चाहतों को नजर अंदाज करना समाज के लिए खतरों से खाली नहीं है। मैत्रेयी पुष्पा कहती है - यदि कोई पति अपनी पत्नी की कोमल भावनाओं को कुचलकर खत्म करता है तो पत्नी को पतिव्रत के नियमों को उल्लंघन हर हाल में करना है। (गुडिया भीतर गुडिया)
संदर्भ ग्रंथ:
1. लगता नहीं है दिल मेरा - कृष्णा अग्निहोत्री
2. जो कहा नहीं गया - 'कुसुम अंसल'
3. दोहरा अभिशाप - कौशल्या बैसंत्री
4. दस्तक जिंदगी की - डॉ. प्रतिभा अग्रवाल
5. मोड़ जिंदगी का - डॉ. प्रतिभा अग्रवाल
6. बूंद बावडी - पद्मा सचदेव
7. कस्तूरी कुंडल बसै - मैत्रेयी पुष्पा
- डॉ. कांचन बाहेती (रांदड)
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