Contribution of Swami Dayanand Saraswati
स्वामी दयानन्द सरस्वती तथा उनका अवदान
उन्नीसवीं शताब्दी में हिन्दू समाज और धर्म के क्षेत्र में प्रचलित बुराइयों को दूर करने के लिए महत्त्वपूर्ण आन्दोलन हुए। 'आर्य समाज' इन्हीं महत्त्वपूर्ण आन्दोलनों में से 'एक' है। 'आर्य समाज' एक साथ ही सामाजिक, धार्मिक एवं राष्ट्रीय पुनर्जागरण का आन्दोलन था जिसने भारत को नवजीवन प्रदान किया। 'आर्य समाज' के संस्थापक थे- स्वामी दयानन्द सरस्वती।
दयानन्द का जन्म सन् 1824 में गुजरात के 'टंकारा' नामक गाँव में हुआ था। 24 वर्ष की अवस्था में उनकी भेंट स्वामी पूर्णानंद से हुई। जिन्होंने उनको सन्यास देकर दंड ग्रहण कराया और उनका नाम स्वामी दयानंद सरस्वती रख दिया। सन् 1869 में स्वामी दयानंद ने मथुरा (उ.प्र.) आकर स्वामी विरजानंद से वैदिक शिक्षा ग्रहण की। वह बाद में 'दयानन्द' के नाम से यशस्वी हुए। उनके पिता शैव धर्म के कट्टर अनुयायी थे।
1. आर्य समाज की स्थापना : स्वामी दयानन्द सरस्वती ने आर्य समाज की स्थापना 10 अप्रैल, सन् 1875 को शनिवार के दिन बम्बई (अब मुम्बई) में की थी। इसके प्रमुख उद्देश्य थे- वेदों का प्रचार करना, जाति पाँति के भेदभाव को मिटाना तथा मूर्ति पूजा का विरोध करना।
2. वेदों की नवीन व्याख्या : स्वामी जी ने वेदों में मिथ्या धारणाओं को दूर करने की दृष्टि से वेदों के नवीन भाष्य किए, जिनमें 'बहुदेवतावाद' का खण्डन किया गया । उन्होंने वेदों को ही 'समस्त ज्ञान का मूल' माना है। उनकी मान्यता रही है कि - "वेद ही ईश्वरीय ज्ञान तथा सत्य का भण्डार हैं।"
यशस्वी शिक्षाविद डॉक्टर शंकरदयाल शर्मा साहब ('हमारी सांस्कृतिक धरोहर', पृष्ठ 33) की मान्यता रही है कि "दयानन्द सरस्वती जी का एक महत्त्वपूर्ण कार्य मैं यह मानता हूँ कि उन्होंने वेद को सर्वोच्च सत्य घोषित करके हमारे देश के लोगों में स्वाभिमान और आत्मविश्वास का भाव भरा। अंग्रेजी के प्रचार-प्रसार और व्यवहार के कारण भारतीयों के मन में धीरे- धीरे जो हीन भावना घर करती जा रही थी, उसे दयानन्द सरस्वती जी ने दर किया।"
3. हिन्दी का उत्थान : स्वामी दयानन्द सरस्वती 'राष्ट्रभाषा हिन्दी' के प्रबल समर्थक रहे थे। उनकी मान्यताएँ रही हैं -
1. "जो व्यक्ति इस देश में उत्पन्न होकर यहाँ की भाषा हिन्दी को सीखने में परिश्रम नहीं करता, उससे और क्या आशा की जा सकती है ?"
2. "हिन्दी के द्वारा ही सारे भारत को एक सूत्र में पिरोया जा सकता है।"
स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अपने उपदेशों एवं ग्रंथों का माध्यम 'हिन्दी भाषा' को ही बनाया था। उन्होंने कहा था कि "दयानन्द के नेत्र वह दिन देखना चाहते हैं जब कश्मीर से कन्या कुमारी तक, अटक से कटक तक नागरी-अक्षरों का प्रचार होगा।"
दयानन्द सरस्वती जी ने यह भी कहा था कि - "मैंने सम्पूर्ण आर्यावर्त में भाषा की एकता स्थापित करने के दृष्टिकोण से अपने समस्त ग्रन्थ आर्य भाषा में लिखे हैं।"
- महेशचंद्र शर्मा
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