Essay on Hindi : Vartman Samay Me Hindi Ki Sthiti Par Nibandh
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भारतीय समाज और हिन्दी भाषा
हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा राजभाषा तथा संपर्क भाषा है। इस देश के लगभग अस्सी प्रतिशत लोग इसी भाषा के माध्यम से एक दूसरे के साथ विचारों का आदान-प्रदान करते हैं। हिन्दी भारत के नौ प्रदेशां की मातृभाषा है। इसके पश्चात हिन्दी विदेशों में भी बड़े पैमाने पर बोली और समझी जाती है। यानि हिन्दी भाषा का स्वरूप या क्षेत्र व्यापक है।
हम देखते हैं कि हिन्दी का साहित्य विरोध, अंतर्विरोध और संघर्ष का साहित्य है। मध्यकाल के भक्त कवियों को राजाओं और शासकों से सरोकार नहीं था। आधुनिक समय में ऐसी बात नहीं हैं। हिन्दी साहित्य का एक भाग व्यवस्था - परिवर्तन से जुड़ा रहा है। आधुनिक साहित्य विशेष रूप से सामंतवादी और साम्राज्यवादी शक्तियों के विरुद्ध रहा है। आज के लेखकों में ईमानदारी एवं नैतिकता की कमी है, नेताओं में विश्वसनीयता घटी है तो संस्कृति-कर्मियों में भी पहले जैसी विश्वसनीयता नहीं है। अर्थात् भारतेंदु, निराला, प्रेमचंद जी की सही परंपरा का यहाँ पर अभाव है।
आज के भूमंडलीकरण के दौर में सबकुछ बदल रहा है। समाज, भाषा, साहित्य सब में एक प्रकार का परिवर्तन या बदलाव दिखाई दे रहा है। किंतु परिवर्तन या बदलाव की यह दिशा सही नहीं हैं। फिल्मों ने हिंसा या सेक्स की एक नई भाषा क़ायम की है। पूंजी की अपनी भाषा है, जो भाषा की पूंजी पर प्रहार करती है और पूंजी के अनियंत्रित प्रवाह से भाषा प्रभावित होती है। अपितु वह भाषा की पूंजी को तहस-नहस करने के साथ ही संस्कृति को भी प्रदूषित - विकृत करती है। वैश्विक पूंजी या विदेशी पूंजी बाजार की भाषा आकर्षक और आक्रामक है। किन्तु हिन्दी भाषा का रिश्ता इसकी गति और रफ्तार से मेल नहीं खाता। इसी कारण भाषा के भीतर तोड़-फोड़ की जाती है।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में हिन्दी को गवारों, अनपढों, अशिक्षितों, ग्रामीणों, किसानों, मजदूरों आदि की भाषा मानकर यह बताया जा रहा हैं कि भविष्य हिन्दी में नहीं, अंग्रेजी में हैं, अर्थात् इसकी दासता में है। यहाँ के समाज और हिन्दी भाषा को अपने मनोनुकूल करने से बड़ी शक्तियों को लाभ है। चूंकि स्मृति- वंचित और स्वप्न-विहीन होकर जिया गया जीवन सार्थक नहीं होता। इस प्रकार से पूंजी की भाषा हमें असामाजिक बनाकर अपने हित में नए समाज का निर्माण करती है। एक समाज में कई उप-समाज बनते हैं। आज पब्लिक स्कूलों में पढ़ने वाले अधिकांश छात्रों को कपास, चना, मूंग, मक्के और गेहूं की पहचान नहीं है। अधिकांश यह भी नहीं जानते कि आलू ऊपर लगते हैं या मिट्टी के भीतर? अर्थात् जीवनबोध के बदलने से समयबोध और इतिहासबोध भी बदल जाता है।
भारतीय समाज के पास आज सचमुच कोई स्वप्न हैं ? यहाँ 'विजन' का अभाव है। विकल्पहीनता की बात कर अतिरेकी मार्ग का ही स्वीकार किया जा रहा हैं। अमेरिका का समय हिंदुस्तान का समय नहीं हो सकता। उस मार्ग को अपनाने से भाषज्ञ बदलेगी और साहित्य का मिजाज भी बदलेगा। अपितु प्रतिरोधी शक्तियां क्षीण होंगी। भारतीय समाज एवं भाषा और साहित्य को दासता या गुलामी का स्वीकार करना है या संघर्ष और प्रतिरोध की विरासत को आगे बढ़ाना चाहिये ? सेंसेक्स के अंकों की भाषा ने शब्दों पर हमले कर दिए हैं। मुनाफा कमाना सबका लक्ष्य हो गया और मुनाफा कमाने की कोई आचार संहिता नहीं हैं। हिन्दी को बाज़ार की भाषा बनाने में तुले लोगों की संख्या बढ रही हैं। बाज़ारवाद के इस नये दौर में समाज और भाषा में काफी परिवर्तन होकर नई अर्थव्यवस्था का निर्माण हो रहा हैं।
वर्तमान समय में बहुराष्ट्रीय निगम और वैश्विक पूंजी के द्वारा एक नई हिन्दी को विकासित किया जा रहा हैं जो 'हिंग्लिश' या 'हिंग्रेजी' है। भाषा का यह रूप परिवर्तन एक विशेष उद्देश्य के तहत है। पूंजी का अनियंत्रित प्रवाह भाषा को प्रभावित करता है। यहाँ पर इस प्रकार का खिलवाड़ हिन्दी भाषा के साथ अधिक हो रहा है। हमारे पास भाषा की विराट पूंजी है। भाषा की इस संपन्न पूजी को किनारे कर पूंजी के भाषा के साथ खड़े होकर 'नई वर्णमाला' बनाने से किसे लाभ है ? आज समाचार -पत्रों मं चालीस प्रतिशत अंग्रेजी के शब्द मिलाकर हिन्दी भाषा की हत्या करने का सुनियोजित षड़यंत्र है, चूंकि हम और आप इसके प्रति अधिक सचेत नहीं हैं। हमारे समाज के एक शिक्षित वर्ग ने यहाँ के समाज से अपना रिश्ता तोड़ा है। यही वर्ग यहाँ के समाज और हिन्दी भाषा को नुकसान भी पहुंचा रहा है।
हिन्दी भाषा संबंध राष्ट्रीयता से है और बहुराष्ट्रीय निगमों का इससे विरोध है। चूकि जातीय चेतना और राष्ट्रीय चेतना से युक्त जन-जागरण का उसे हमेशा खतरा होता है। आज देश बाजार में बदलकर विकास का नया दर्शन प्रचारित किया जा रहा है। देवनागरी लिपि के स्थान पर रोमन लिपि प्रभावी बनाई जा रही हैं। हिन्दी को पिछड़ों की भाषा मानकर इस प्रकार का प्रचार एवं प्रसार किया जा रहा हैं कि ये विज्ञान और प्रौद्योगिकी की, समाज विज्ञान की चिकित्सा ओर अभियांत्रिकी की, वाणिज्य व्यवसाय की, विविध अनुशासनों की, प्रबंधादि की भाषा नहीं हो सकती। किन्तु यह सच नहीं हैं। चीन और जापान ने अपना विकास अपनी ही भाषा में किया है, इसे हम और आप नकार नहीं सकते। हिन्दुस्तान में न्याय-व्यवस्था, प्रशासन की भाषा भारतीय भाषाएं क्यों नहीं हैं ? सबको बदलने की मुहिम जारी है, सत्ता-व्यवस्था भारतीय जनता की विरोधी है। आज हमें और आप को इस विषय को गंभीरता से सोचने की आवश्यकता है। इक्कीसवीं सदी में इन चुनौतियों को स्वीकारने के पश्चात हमें अपनी स्थिति का भी अवलोकन करना होगा।
हम अंत में इतना ही कह सकते हैं कि हिन्दी भाषा का व्यवहार आज केवल भारत में ही नहीं, अपितु विश्व के अनेक राष्ट्रों में हो रहा हैं। स्वतंत्रता के पश्चात हिन्दी का महत्व देश तथा विदेश में काफी बढ गया है। विदेशी राष्ट्रों में हिन्दी अध्ययन - अध्यापन तथा प्रचार - प्रसार का कार्य जोर पकड़ रहा है। इसी से उम्मीद बंधती हैं कि हिन्दी भाषा का भविष्य बेहतर होगा इसमें संदेह नहीं।
- मजीद शेख
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