Devanagari Lipi
विदेशी विद्वानों द्वारा देवनागरी लिपि के लिए योगदान
भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी के राज स्थापना के पूर्व फारसी यहाँ की राजभाषा थी और फारसी लिपि में ही शासकीय पत्र-व्यवहार और अभिलेख लिखे जाते थे। इस बात पर कभी विचार नहीं किया गया कि जन साधारण की लिपिक्या है और शासकीय कार्य उस लिपि में होना चाहिए। लगभग उन्नीसवीं शती के प्रारंभ तक योरोपीय जाति की दृष्टि में भी देवनागरी लिपि का कोई विशेष महत्व नहीं था वे या तो रोमन लिपि के पक्षपाती थे अथवा फारसी लिपि के कुछ समय पश्चात उन्होंने देवनागरी लिपि की वैज्ञानिकता एवं विस्तृत व्यावहारिकता को पहचाना और इससे प्रतिष्ठित स्थान प्रदान करने के लिये प्रशंसनीय प्रयत्न किया।
लिपियों के विशेषज्ञ विलियम कैरे ने न केवल देवनागरी के टाइप ढलवाकर मुद्रणालय की स्थापना की अपितु उत्तर भारत की अनेक भाषाओं में देवनागरी का उपयोग कर इस बात की ओर संकेत किया कि यह लिपि अधिकांश आधुनिक भाषाओं के लिये उपयुक्त है।
उन्नीसवीं शती में हिन्दुस्तानी को कचहरी की भाषा और देवनागरी लिपि के प्रयोग के लिये विदेशियों द्वारा श्लाघनीय प्रयत्न किये गये। इस प्रसंग में ईस्ट इंडिया कम्पनी के एक अंग्रेज सिविलयन फ्रेड्रिक जॉन शोरे का उल्लेख करना आवश्यक होगा। इस विद्वान ने अपनी पुस्तक में कहा कि कचहरी की भाषा हिन्दुस्तानी और लिपि देवनागरी होनी चाहिए। शोरे महोदय ने समय से पूर्व नागरी लिपि को प्रश्रय देने की मांग की थी। इसके पश्चात लगभग बीस वर्ष तक किसी ने भी इस विद्वान के कथन को विशेष महत्व नहीं दिया। हिन्दुस्तानी को कचहरी की भाषा का स्थान दिलाने का श्रेय फैलन और ग्राउज को है।
1866 ई. में कचहरी की भाषा हिन्दुस्तानी के रूप और लिपि को लेकर बड़ा विवाद हुआ। कुछ लोग अरबी-फारसी के शब्दों से लदी हिन्दुस्तानी के पक्षपाती थे। ग्राउन ने हिंदी और देवनागरी लिपि का पक्ष लिया। उनका मत था कि फारसी लिपि की तुलना में नागरी लिपि अधिक स्पष्ट और नियमनिष्ठ है यद्यपि यह अपेक्षाकृत धीरे लिखी जाती है। रोमन लिपि की तुलना में भी यह अधिक उपयोगी है। पश्चिमोत्तर प्रांत में हिन्दुस्तानी को कचहरी की भाषा का सम्मान प्राप्त होने के बाद भी उनकी लिपि फासी रखी गई थी। उस प्रांत में देवनागरी को सरकारी लिपि बनाने का श्रेय पश्मिोत्तर प्रांत और अवध के गवर्नर एन्थोनी मैक्डानल्ड को है। जनवरी 1899 ई. में उनकी घोषणा प्रकाश में आई। देवनागरी लिपि को सरकारी रूप में अपनाने की घोषणा कर उन्होंने भारत के एक बड़े वर्ग की इच्छाओं का सम्मान किया।
कोश ग्रंथों में देवनागरी लिपि का प्रयोग: कुछ काल तक विदेशी कोशकारों ने अपनी कृतियों में नागरी लिपि को कोई स्थान नहीं दिया। ये ग्रंथ अधिकांश रूप में रोमन लिपि में ही प्रकाशित होते थे। 1785 ई. में क्रिकपैटिक ने एक शब्दकोश की रचना की। उनकी इच्छा थी कि कोश में हिन्दी के शब्द सम्मिलित किये जाएं और देवनागरी लिपि का प्रयोग हो । परन्तु उस समय तक नागरी के टाइप का अभाव था। ऐसे समय में गिलक्रिस्ट का अर्विभाव हुआ जो फारसी और देवनागरी के स्थान पर रोमन लिपि के पक्षपाती थे। 1824 ई. में एच. एच. विलसन ने हिन्दुस्तानी और फारसी मुहावरों के कोश की रचना की। यह ग्रंथ उन्होंने अपने मित्र गिलक्रिस्ट को समर्पित किया है और प्रस्तावना में गिलक्रिस्ट की रोमन लिपि की नीति का विरोध किया है।
- गगनांचल से साभार
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