विदेशी विद्वानों की हिन्दी भक्ति और भारतीय मानसिकता

Dr. Mulla Adam Ali
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हिन्दी : विदेशी विद्वानों के लिए अद्वितीय आकर्षण का केंद्र रही है

विदेशी विद्वानों की हिन्दी भक्ति और भारतीय मानसिकता

विदेशी विद्वानों की हिन्दी भक्ति और भारतीय मानसिकता

अनेक भाषाओं, धर्मों व कई झंझावातों की विभिन्नता के बावजूद भी भारत अब तक एक राष्ट्र इसलिए बना हुआ है कि इसमें अन्य भाषाओं को अपने में समाहित रखने की क्षमता है। इसकी सबसे बड़ी काबिलियत तो इसकी सार्वदेशिकता है, जो देश के कोने-कोने में बोली जाती है। यह काशमीर में गयी तो कश्मीरी हिन्दी, आन्ध्र प्रदेश में गयी तो आन्ध्र हिन्दी, केरल में मलियाली हिन्दी, पुरब में पुरबिया हिन्दी और महाराष्ट्र में मुम्बईया हिन्दी कहलाई। इस प्रकार यह हिन्दी विभिन्न रूपों में विकसित हो गयी। इसका कारण संसार के श्रेष्ठतम भाषाओं में जिसे जैसे बोला जाय वैसे ही लिखा भी जाय, यह विशेषता मात्र हिन्दी में ही संभव है। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा पारित विश्व के अन्य भाषाओं में यह गुण नहीं जो हिन्दी में है । किन्तु इसका प्रयोग स्वाभिमानी भाषा के रूप में नहीं, बल्कि गुलामी भाषा के रूप में किया जाने लगा है। आज राष्ट्र को जहाँ बाजारु शक्तियों ने दबोच रखा है, वहीं राष्ट्रभाषा को बाजारू भाषाओं ने। जिसके चलते हमारी हिन्दी न राष्ट्रभाषा बन पा रही है और न ही राजभाषा। यही नहीं उसे सम्पर्क भाषा बनने में काफी मशक्कत करनी पड़ रही है।

हिन्दू, हिन्दी और हिन्दुस्थान तथा स्वदेशी की राग अलापने वाली केन्द्र की असल सरकार अमेरिका में हिन्दी भाषण देकर तो खूब वाहवाही लूटती है, किन्तु देश में संसद की 80% कार्रवाही अंग्रेज़ी में संचालित करती है। यही नहीं यहां की तथाकथित बुद्धिजीवी कहे जाने वालों द्वारा भी विभिन्न साहित्यिक खेमों व हिन्दी मंचों के माध्यम से अंग्रेज़ और अंग्रेज़ी भाषा की जमकर खींचाई की जाती रही है तथा हिन्दी की अवनति के लिए इसे दोषी भी ठहराया जाता रहा है। जबकि सच्चाई यह है कि पूर्ण रूपेण हिन्दी जानने व समझने वाले भी राष्ट्र भाषा का प्रयोग करने में अपने को उपेक्षित अनुभव करने लगते हैं।

हाल ही में मुझे एक राष्ट्रीय सम्मेलन के सिलसिले में चेन्नई जाना हुआ। हमारे साथ उच्च व उच्चतर माध्यमिक विद्यालय के कुछ हिन्दी के आध्यापक भी थे। वे हिन्दी भाषी होते हुए भी शुद्ध हिन्दी बोल पाने में असमर्थ थे, किन्तु दक्षिण पहुंचकर गड़बड़ अंग्रेज़ी बोलने में अपनी शान अवश्य ही समझने लगे। उनके इस अंग्रेज़ी मोह ने यह भी भुला दिया था कि हमारी गलत और अटक-अटक कर अंग्रेज़ी बोलने की प्रवृत्ति ने सामने वालों पर कहीं बुरा प्रभाव तो नहीं जमा रहा। यद्यपि हम शुद्ध अंग्रेज़ी बोलकर भी अंग्रेज़ तो बन ही नहीं सकेंगे, किन्तु हमारे विदेशी विद्वानों ने हिन्दी सीखकर व हिन्दी की सेवा करके अपनी भारतीयता का परिचय अवश्य दिया है। यह हमारे लिए कम गौरव की बात नहीं है। डॉ. स्मैकल, डॉ. चेलीशेव, आचार्य लुक्से, जॉन एर्डमेन, जैकहाले, नाखन हैन, के.ई. ब्रयण्ट, वादविले, स्टूवर्ट, मैकग्रेर, लोढार लूत्खे, चार्ल्स व्हाईट, लूसी हरकस, जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन, सी. आर. कींरुग, नारमन जाईड, फादर कामिल बुल्के, सर जॉन ग्रिल क्राईस्ट, गर्यो द -तासी, व फ्रेडरिक पिंकाट। जिन्होंने हिन्दी के विकास में न सिर्फ अपना विशिष्ट योगदान दिया है, बल्कि इनसे हम और हमारी हिन्दी भी गौरवान्वित हुई है। इन्हें किसी तरह विस्मृत कर देना या इनका जिक्र न करना हिन्दी के साथ अन्याय भी होगा।

हमारी लंगोटी को उतारकर यदि किसी ने पेन्ट और शर्ट पहनना सिखलाया तो वे अंग्रेज़ थे और यदि किसी ने हमें सम्मान और स्वाभिमान के साथ जीना भी सिखाया तो वे अंग्रेज़ ही थे । यदि हमें अपनी राष्ट्रभाषा के प्रति निष्ठा जतलाना भी सिखाया तो वे भी कोई भारतीय नहीं, बल्कि वे अंग्रेज़ ही थे। जिनकी बदौलत आज दुनिया के विभिन्न देशों के लगभग 136 विश्वविद्यालयों में हिन्दी विशेष रूप से पढ़ाई जा रही है। इसी तरह पौलेण्ड की तीन विश्वविद्यालयों में इस समय हिन्दी पढ़ाने की विशेष व्यवस्था है। गियाना, सूरीनाम, मारिशस और फिज़ी में हिन्दी की विधिवत पढ़ाई तो चल ही रही है। इधर इटली, प. जर्मनी, कोरिया, इण्डोनेशिया, हंगरी, फ्रांस, ब्रिटेन, चेकोस्लविया, रूस, रोमानिया व बल्गारिया आदि देशों में हिन्दी का बढ़ता जाल भारतीयों के भरोसे नहीं, अपितु विदेशियों के हिन्दी अनुराग से ही संभव हो सका है। अंग्रेज़ अधिकारी जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन इसलिए स्मरण किया जाता रहेगा कि उन्होंने सर्वप्रथम भारतीय भाषाओं का वैज्ञानिक सर्वेक्षण प्रस्तुत किया था। उनका यह 'लिंम्बिरक सर्वे ऑफ इण्डिया' आज भारतीय भाषाओं का मेरुदण्ड बना हुआ है। इसके अतिरिक्त ग्रियर्सन महोदय ने हिन्दी साहित्य का इतिहास भी लिखा जो 'माडर्न वर्नाक्युलर ऑफ हिंदुस्तानी' नाम से प्रकाशित हुआ।

हिन्दी की बाह्य वकालत करने वालों को यह मालूम होना चाहिये कि, जब भी इस देश में हिन्दी का इतिहास लिखा जायगा। इन विदेशी विद्वानों की हिन्दी भक्ति को कभी भी नज़र अंदाज नहीं किया जा सकता, एक अंग्रेज़ विद्वान ग्रिल क्राईस्ट, जिन्हें सर्वप्रथम हिन्दी-अंग्रेज़ी शब्दकोष तैयार करने का श्रेय जाता है, जिसका प्रकाशन सन् 1787 और सन् 1791 में दो खण्डों में हुआ। इसी प्रकार उनका हिन्दी भाषा का सर्वप्रथम वैज्ञानिक आधार पर अध्ययन सन् 1798 में 'ओरियंटल लिंग्विस्टिक' नाम से प्रकाशित हुआ, इसके 26 साल बाद 1824 में एक सैनिक अधिकारी लेफ्टिनेंट टायस रॉय ने सर्वप्रथम हिन्दी की कहावतों व मुहावरों का संकलन कोलकाता से प्रकाशित किया था, हिन्दी का प्रथम व्याकरण भी सन् 1698 में डच भाषा में लिखा जा चुका था। जिसे हालैण्ड निवासी जॉन जिसुआ केटलर ने हिन्दुस्थानी भाषा नाम से लिखा था।

इसके बाद दो और महत्वपूर्ण कृतियों का प्रकाशन भी सन् 1745 में बेंजमिन शुल्ज द्वारा हिन्दुस्थानी व्याकरण व सन् 1771 में केसियानों बेलगति द्वारा अल्फाबेट्स तैयार किया गया। हिन्दी के प्रशासनिक शब्दावलियों का संग्रह भी सन् 1855 में मि. एच. एच. विल्सन द्वारा "ग्लोसरी ऑफ ज्युडिशियल एण्ड रेव्हेन्यु टाम्स" नाम से प्रकाशित करके हिन्दी भाषा की प्रशासनिक क्षमता की नींव को मजबूती दी है।

इन बातों से पता चलता है कि हिन्दी के महत्व को अंग्रेज़ सरकार ने सन् 1800 से पूर्व ही भलीभांति समझना प्रारंभ कर दिया था। यदि एक अंग्रेज़ अधिकारी लार्ड मैकाले ने भारतीयों को अंग्रेज़ी जानने की अनिवार्यता शुरू की थी, तो उसी अंग्रेज़ सरकार ने 19 वीं सदी में अपने ईस्ट इण्डियाके अधिकारियों को स्पष्ट आदेश दिया था कि, वे हिन्दी सीखे। सन् 1881 में उन्होंने यह निर्णय भी लिया था कि, भारतीय सिविल सेवाओं में वे ही व्यक्ति चयनीत किये जा सकेगे। जिन्हें हिन्दी या अन्य भारतीय भाषाएं आती हों। एक तरह से यह भी हिन्दी को राजभाषा बनाने का एक अंग्रेज़ी प्रयास था।

किन्तु आश्चर्य तो तब होता है कि विभिन्न उत्सवों, पर्वों और त्यौहारों के इस देश में हमारी भाषा ही पराधीन हो चली है, जहाँ भाषा के नाम पर प्रतियोगिताएं होती हो, मुल्यांकन ही और पुरस्कार दिये जाएँ, किन्तु कोई इसे अंगीकार नहीं करता।

- के. मुरारीदास

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