नहीं किसी से कम, हिंदी हैं हम
बाजार और विज्ञापन की भाषा बन गई है हिंदी
हिंदी दिवस 14 सितंबर पर विशेष : हिंदी भाषा पर हिंदी दिवस के उपलक्ष्य में शिवचरण चौहान जी का लेख "नहीं बनी हिंदी राष्ट्रभाषा", "चिंदी चिंदी हिंदी, बनी भारत के माथे की बिंदी" पढ़े और शेयर करें। हिंदी दिवस पर महत्वपूर्ण लेख "बाजार और विज्ञापन की भाषा बन गई है हिंदी", "नहीं किसी से कम, हिंदी हैं हम", "विरोध के बावजूद आगे बढ़ रही है हिंदी"।
विरोध के बावजूद आगे बढ़ रही है हिंदी
- शिवचरण चौहान
तमाम राजनीतिक विरोध, अंतर्विरोध और अंग्रेजी के बढ़ते वर्चस्व के बावजूद भी हिंदी के विकास को कोई रोक नहीं पाया। हिंदी अब बाजार की भाषा बन गई है, विज्ञापन की भाषा बन गई है। गूगल की भाषा बन गई है। कंप्यूटर और स्मार्टफोन में ऐसे सॉफ्टवेयर विकसित हो गए हैं जो किसी भी भाषा को हिंदी में अनुवाद कर देते हैं। गूगल के द्वारा हिंदी का 133 भाषाओं में अनुवाद किया जा सकता है। गूगल ने भोजपुरी और मैथिली भाषा को भी अपनी सूची में शामिल कर लिया है । यह दोनों भाषाएं देवनागरी लिपि में लिखी जाती हैं। यदि उर्दू भी देवनागरी लिपि में लिखी जाए तो हिंदी दुनिया के सबसे बड़ी भाषा हो जाएगी। हिंदी के खिलाफ एक अभियान कुछ बुद्धिजीवियों ने चलाया था कि हिंदी को रोमन लिपि में लिखा जाए किंतु देवनागरी लिपि कंप्यूटर और गूगल में लोकप्रिय हो गई। स्मार्टफोन में पसंद की गई। देवनागरी लिपि में जैसा बोला जाता है वैसा ही लिखा जाता है इस कारण यह लिपि वैज्ञानिकों ने सही पाई। इस सरकार ने या किसी भी सरकार ने हिंदी को राष्ट्रभाषा नहीं बनाया ना तो आरक्षण हटाया गया और ना हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाया गया। इसके बावजूद भी हिंदी लोकप्रिय होती चली गई। पहले देवकीनंदन खत्री के जासूसी उपन्यास पढ़ने के लिए आहिंदी भाषी लोगों ने हिंदी सीखी और फिर हिंदी फिल्मों को देखने के लिए पाकिस्तान और बांग्लादेश में भी लोग हिंदी सीख गए।आज दक्षिण की फिल्में भी हिंदी में डब होकर ही चल पाती हैं। अखबारों पत्रिकाओं टी वी, चैनल और सिनेमा की भाषा तो हिंदी पहले से ही हो गई थी। हिंदी की फ़िल्में और हिंदी के टीवी चैनल दुनिया भर में देखे जाते हैं। आज हमारे देश का ना तो कोई धर्म है और ना कोई हमारी राष्ट्रभाषा फिर भी हम तरक्की कर रहे हैं उन्नति कर रहे हैं निज भाषा उन्नति अहै। भारतेंदु के कहने के बावजूद हिंदी उपेक्षित है।
चौबीस से अधिक भाषाओं वाला हमारा देश जिस विविधता में एकता का प्रतीक है, उसके मूल में वह भारतीयता है जो साथ चलने, साथ पलने में विश्वास करती है, जो यह मानती है कि धर्म, जाति, वर्ग, वर्ण की सारी भिन्नताओं के बावजूद इस देश का मानस एक है। भारत में बोली-लिखी जाने वाली भाषाओं का साहित्य हमारी साझा सम्पत्ति है, जिस पर हर भारतीय को गर्व होना चाहिए।. लेकिन गर्व के साथ, इस सुख के साथ, दुख की एक लकीर भी जुड़ी हुई है- यह दुख उस भाषाई वैमनस्य का है जो पिछले 75 बरसों में हमारे सामाजिक समरसता वाले ताने-बाने को कमज़ोर कर रहा है। जब-तब संकुचित मनोवृत्ति और सीमित स्वार्थों के चलते एक गर्म हवा-सी बहने लगती है हिन्दी के खिलाफ। समूचे भारतीय सोच को झुलसा देनेवाली हवा। चाहे इसके पीछे हमारी राजनीति हो या संकुचित स्वार्थ, इसका कुफल पूरा भारत भुगत रहा है। अंतर्राष्ट्रीय भाषा के नाम पर और वैश्वीकरण की दुहाई देकर न केवल अंग्रेज़ी हम पर थोपी गई है और आज भी थोपी जा रही है, बल्कि उसके माध्यम से भारत की भाषाओं को आपस में लड़ाया भी जा रहा है। ऐसा वातावरण बनाया जा रहा है जिसमें भारत की भाषाएं एक-दूसरे को परस्पर विरोधी समझें, जबकि वास्तविकता यह है कि यदि कोई लड़ाई है तो वह भारतीय भाषाओं के थोपे जाने के खिलाफ़ है, क्योंकि अंग्रेज़ी देश की मानसिकता, देश के सोच पर थोपी जा रही है। जब महात्मा गांधी ने यह कहा था कि 'दुनिया से कह दो कि गांधी को अंग्रेज़ी नहीं आती' तो इसके पीछे इसी खतरे का अहसास था। हम इस खतरे को समझ नहीं पाये, इसी का परिणाम है कि हमें जोड़ने वाली भाषाएं हमें तोड़ने का माध्यम बन रही हैं। भाषा के नाम पर बांटने का षड्यंत्र रचने वाले वस्तुत: हमारे समूचे व्यक्तित्व को ही खंडित और अपंग बना रहे हैं. लेकिन भाषा के नाम पर बांटने के षड्यंत्र को हमने कितना समझा है? भाषाओं के माध्यम से एक-दूसरे को जोड़ने की कितनी कोशिशों के भागीदार रहे हैं हम? ये और ऐसे अनेक सवाल बेचैन कर देते हैं।
दिल्ली सहित भारत के अनेक विश्वविद्यालयों में हिंदी पढ़नेवाले छात्रों की संख्या तेज़ी से बढ़ रही है। दुनिया भर के दो सौ विश्व विद्यालयों में हिंदी पढ़ाई जाती है। हिंदी विरोध की राजनीति त्याग कर उसे सीखने और समझने का सकारात्मक संकेत पूरे देश से मिलने लगा है। अन्य भारतीय भाषाओं को सीखने की प्रवृत्तिभी बढ़ी है। इस सुखद समाचार के पीछे मुख्य कारण बाज़ार है, साहित्य, राजनीति या भाषा प्रेम ही नहीं है। अपनी बाईस समृद्ध बोलियों के साथ हिंदी विश्व के लगभग पचास देशों में फैले 85 करोड़ से अधिक लोगों की अभिव्यक्ति की भाषा बन गयी है। भारत के 65 प्रतिशत लोग और मॉरीशस, फ़िजी, सूरीनाम, ट्रिनीडाड तथा दक्षिण अफ्रीका में रहनेवाले लाखों लोगों की यह भाषा विश्व की तीसरी सबसे बड़ी भाषा के रूप में प्रतिष्ठित है। दुनिया के दो सौ से अधिक विश्वविद्यालयों में हिंदी के भाषाई और साहित्यिक पक्ष का शिक्षण और उस पर अनुसंधान हो रहा है।
इतिहास इसकी पुष्टि करता है कि भारत के कई राज्यों में राज्यभाषा के रूप में हिंदी (हिंदुस्तानी) का प्रयोग शताब्दियों पूर्व भी हो रहा था। मराठों के शासन में हिंदी का राजभाषा के रूप में प्रयोग होता था। डॉक्टर केलकर ने अपने शोध प्रबंध 19 वीं शती के हिंदी पत्र' में बड़ी संख्या में पत्तों, दात्रों, बहियों का उल्लेख करके इसकी पुष्टि की है। टीपू सुल्तान और केरल में कोच्चीन के राजा के साथ हुई संधि में हिंदुस्तानी सिखाने की व्यवस्था का भी उल्लेख था। कारण अलग-अलग हो सकते हैं लेकिन यह निर्विवाद है कि हिंदी को प्रशासन और शिक्षा के क्षेत्र में स्थापित करने में उन लोगों की भूमिका महत्त्वपूर्ण रही है जिनकी मातृभाषा हिंदी नहीं थी। हिंदी में व्याकरण लेखन की शुरुआत एक डच विद्वान 'जोशुआ केटलियर' ने 1695-98 लखनऊ में की थी। सन 1744 में बेंजामिन शुल्तज ने 'ग्रामेटका हिंदोस्तानिका' पुस्तक लिखी थी. यह पुस्तक लैटिन भाषा में थी। 1773 में जॉनफर्ग्युसन की हिंदुस्तानी डिक्शनरी' प्रकाशित हुई। गिलक्रिस्ट ने 1787-1796 के बीच कोलकाता में 'हिंदुस्तानी कोश' तैयार किया था। 1878 में ग्रिफ़िथ ने जो रिपोर्ट दी थी उसमें यह साफ़ लिखा था कि इस देश की भाषा हिंदी है। 12 अगस्त 1881 का जो आदेश लंदन से सेक्रेटरी सिविल सर्विसेज़ कमीशन को भेजा गया उसके अनुसार भारत आनेवाले अंग्रेज़ों को हिंदी मैन्युअल पढ़ना और हिंदी की परीक्षा पास करना अनिवार्य था। जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने 'लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ़ इंडिया' (भारत का भाषा सर्वेक्षण) जैसा विशाल ग्रंथ तैयार किया था। उस समय की सरकार ने 1927 में 11 खंडों में इसका प्रकाशन किया था। अनेक भाषाशास्त्री ग्रियर्सन के परिश्रम को सराहते हैं, लेकिन उनकी विभेदकारी फूट डालो राज करो मंशा पर सवाल भी उठाते हैं।भारतीय भाषाओं को रोमनलिपि में लिखने का षड्यंत्रकारी विचार उसी दौर में दिया गया था जिसे आज भी अंग्रेज़ी की मानसिक गुलामी से ग्रस्त कई विद्वान दोहराते रहते हैं। आचार्य केशवचंद्र सेन, राजा राममोहन राय तथा स्वामी दयानंद ने हिंदी को चिंतन और पूरे देश में सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा के रूप में स्वीकार किया था। सन 1904 में 'इंडियन यूनिवर्सिटीज़ एक्ट' पारित होने के पहले तक भारतीय भाषाओं के साहित्य अध्ययन-अध्यापन की कोई व्यवस्था नहीं थी। इस कानून में पहली बार यह व्यवस्था की गयी थी कि मैट्रिक से आरम्भ करके स्नातक स्तर तक के विद्यार्थियों की अपनी मातृभाषा ज्ञान की परीक्षा होनी चाहिए। सन 1912 में पहली बार कोलकाता विश्वविद्यालय ने बांग्ला भाषा और साहित्य के अध्ययन के लिए दिनेशचंद्र सेन को एक फ़ैलोशिप प्रदान की थी। उसी वर्ष रवींद्रनाथ ठाकुर को साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिल था। दोनों घटनाओं की देशव्यापी चर्चा हुई थी। सन 1919 में कोलकाता विश्वविद्यालय में भारतीय भाषाओं के तुलनात्मक अध्ययन का विषय शामिल हुआ था, जिसमें बांग्ला, हिंदी, उड़िया असमिया और उर्दू के अध्ययन-अध्यापन के व्यवस्था भी की गयी थी। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान 1928 में कांग्रेस तथा सभी दलों की एक बैठक स्वाधीन भारत के संविधान निर्माण के लिए हुई थी, पंडित नेहरू उसके अध्यक्ष थे। उस हिंदुस्तानी' को सर्वमान्य भाषा घोषित किया गया। सन 1936 में जब प्रांतीय सरकारें बनी थीं। यह स्पष्ट निर्देश था कि 'हर प्रांत की सरकार भाषा' राज्य के कामकाज के लिए उस प्रांत भाषा होनी चाहिए। परंतु हर जगह अखिल भारतीय भाषा होने के नाते 'हिंदुस्तानी को सरकारी तौर पर माना जाना चाहिए। उस समय की.'संविधान सभा में मतदान के दौरान हिंदी के पक्ष में 63 और हिंदुस्तानी के पर 32 मत पड़े थे। इसी तरह 45 मतों के बहुमत से हिंदी की देवनागरी लिपि स्वीकार की गई थी। 14 सितंबर 1949 को हिंदी को राजभाषा के रूप में मान्यता दी गई थी। 14 सितंबर 1949 को ही सभी भारतीय भाषाएं राजभाषा यें बनाई गई थीं। पर इसके बाद सरकारें राजनीति के चक्कर में पड़कर हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाना भूल गईं। हिंदी अपने ही घर में बेगानी हो गई हिंदी की जगह अंग्रेजी का ही वर्चस्व कायम रहा। मैकाले की शिक्षा व्यवस्था अभी भी चल रही है। राष्ट्रवादी राजनीतिक दल और राजनीतिक पार्टियां इतना साहस नहीं जुटा पाई कि हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाकर उसका गौरव स्थापित करें। प्रशासनिक सेवाओं के अफसर और न्यायालय अभी भी अंग्रेजी में काम करते हैं। हिंदी दिवस के दिन हिंदी वर्ग गोष्ठियां करके सब कुछ भूल जाते हैं।
बंगाल हो चाहे तमिलनाडु केरल हो अथवा पांडिचेरी सभी जगह हिंदी बोली जाती है और समझी जाती है यहां के नेता हिंदी में अपना भाषण करते हैं। किंतु हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के नाम पर ना नुकुर करने लगते हैं।
आज अंग्रेजी के टीवी चैनल हिंदी में परिचर्चा बहस करते हैं। आज हिंदी के अखबार सारे भारतीय भाषाओं के अखबारों से ज्यादा बिकते हैं और छपते हैं। हिंदी के चैनल दुनिया भर में देखे जाते हैं और लोकप्रिय भी हैं। अधिकांश विज्ञापन हिंदी में बनाए जाते हैं। आज बाजार की भाषा हिंदी है। संपर्क की भाषा हिंदी है किंतु इसके बावजूद भी हमारी सरकार हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए मुंह चुराती नजर आती है। बड़े-बड़े कठोर कानून बिना जनता की मर्जी के बनाए जाते हैं किंतु हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का कानून बनाने की कोई नहीं सोचता है। इसके बावजूद भी हिंदी लोकप्रिय हो रही है सम्मानित हो रही है। (हिंदी के बारे में लेखक के अपने विचार हैं।)
- शिवचरण चौहान
विचारक और वरिष्ठ पत्रकार हैं
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