Vishnu Prabhakar : विष्णु प्रभाकर की यादगार कहानियां
विष्णु प्रभाकर की कहानी बंटवारा का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण
यह विष्णु प्रभाकर की एक ऐसी कहानी है, जो शायद दूसरे कहानियों के जितना प्रसिद्ध नहीं हुई, पर एक मन के गहराई में उतरने वाली संवेदना उसमें है।
भाभी देवर के सम्बन्धों में आनेवाले बदलाव तथा - परिस्थिती के प्रतिकुल स्थिति में भी उनके आपसी अटूट विश्वास का दर्शन इस कहानी में होता है। कहानी में अधिक संवाद नहीं हैं पर पात्र के मानसिक स्थिती को पाठक सहजता से समझ जाता है।
धरती के अन्य प्राणीयों की अपेक्षा मनुष्य एक बुद्धिमान तथा उच्चस्तर का प्राणी है। इसलिए मनुष्य की जिज्ञासा बनी रहती है। उसके अपने या दूसरों के अनुभवों तथा व्यवहार के क्या कारण है। यह जानने के लिए वह उत्सुक रहता है कि उसके विचार उसके क्रियाकलाप चेष्टाएँ इत्यादि क्यों एक विशेष रूप धारण कर लेते है। इसको सामान्य मनुष्य नहीं जानता पर वह जाने-अनजाने में मनोविज्ञान को अवश्य समझ लेता है। वह अपने सम्पर्क में आनेवाले व्यक्ति के व्यवहार या व्यक्तित्व का निरीक्षण अवश्य करता है। बचपन से ही यह वृत्ति मनुष्य में पायी जाती है। ईर्ष्या, द्वेष, घृणा, मोह, कुण्ठा, क्रोध, अतृप्त कामवासना आदि व्यक्ति के व्यवहार से प्रकट होते है। जिसका अध्ययन मनोविज्ञान करता है। हम किसी के बारे में जो धारणा बनाते है उसकी आधारशिला मनोविज्ञान है।
हम प्रत्यक्ष जगत की वस्तु का हम इंद्रियों की सहायता अनुमान कर सकते है। पर अप्रत्यक्ष जगत को जानने के लिए से अदृष्य तत्वों को खोजना पड़ेगा। मानव-मन की परते खोलने का ढंग वैज्ञानिक है। विज्ञान विवेचन तथा मूल्यांकन ठोस तथा अपरिवर्तनीय आधार पर करता है।
मानव मन की इस परोक्ष वृत्तियों और भावों के मूल्यांकन आकलन के लिए जो वैज्ञानिक ढंग अपनाया गया है। वही मनोविज्ञान है। आज के कथानक में कथा का ह्रास हो गया है कथा ह्रास के लिए मनोवैज्ञानिक प्रभाव सबसे अधिक उत्तरदायी रहा है। वस्तुतः कथा साहित्य जीवन के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभाता जा रहा है। आज के आधुनिक जीवन-बोध ने जीवन को अत्याधिक जटिल और उलझनों से पूर्ण बना दिया है। परिणामतः मनुष्य समाजन्मुखी न रहकर व्यक्ति केन्द्र हो गया है। वह आत्ममुखी होता चला गया है। उसकी इस आत्ममुखी होने के कारण कथानक अत्याधिक छोटा होता गया है। उसमें जहाँ घटनाक्रम का अभाव एक ओर परिलक्षित हुआ है तो दूसरी ओर आन्तरिक द्वन्द की अभिव्यक्ति भी हुई है।
विष्णु प्रभाकरजी ने अनेक कहानियाँ लिखी हैं। उन्हें अनेक साहित्यिक पुरस्कार भी प्राप्त हुए हैं। वे साधारण से साधारण चरित्र को इतनी सुन्दरता से चित्रित करते थे कि वह विशिष्ट बन जाता था ।
इस कहानी की मुख्य पात्र है नन्दा। नन्दा का देवर है। देवेन । दोनों का देवर-भाभी का रिश्ता है, पर नन्दा देवेन को पुत्रवत स्नेह करती है। देवेन के माता-पिता का देहांत बचपन में ही हो गया था। भाभी नन्दा ने कभी माँ की कमी महसुस न होने दी। भाई-भाभी ने उसे पढा लिखाकर ऐसा योग्य बना दिया कि वह व्यापार में पारंगत हो गया। वह खूब कमाने लगा। भाई रामदास की व्यापार से ज्यादा धर्म में रूची थी। अतः उनकी कमाई अधिक नहीं थी। अब देवेन को लगने लगा था कि उसकी कमाई से ही भाई का खर्चा चलता है। नन्दा ने बात बिगडने से पहले देवर का विवाह कर बटवारा कर दिया।
"___वह कॉप उठी, देवेन भी कभी ऐसे ही तो पुकारता था। वहीं देवेन आज मुझसे अलग हो गया है। यह ठीक नहीं हुआ है। वह बुद्धिमान है, खूब कमाता है। इसलिए कुछ दिनों से यह बात उसके मस्तिष्क में समा रही थी कि कुटुम्ब का जीवन उसकी कमाई पर अवलम्बित है और शासन करती है। भाभी और यह भी सोंच था कि भाभी का परिवार बड़ा है, मूर्ख कहीं का।"
परिवारिक विघटन की समस्या मूलतः आर्थिक तथा सामाजिक सोंच की वैषम्य की देन है। यह सोंच वस्तुतः अर्न्तसतह पर मनोविज्ञान से सीधा प्रभावित है। स्वस्थ सामाजिक वृत्ति की अनुप्रेरणा ही मनुष्य को परिवार संस्था को निर्मित करने में सहायक सिद्ध होती है और उसका अत्याधिक आत्मकेन्द्रित बनाने में उसके निज के अहं का सर्वाधिक योगदान रहता है। अतिवैयक्तिता की जड़ों की गहराई के कारण नई पीढी ने अपने उत्तरदायित्व को भुला दिया है।"
"__वह जवान हो गया था और मैं उसे निपत अनजान बालक ही समझती रही। पर मैं क्या करू? मेरी आँखे तो उसी को देखती है, जो कभी स्कूल से पिट कर सिसकता हुआ आकर मेरी गोद में चिपट जाता था।---"
प्रेमचन्द के अनुसार नारी का हृदय सेवा के सुक्ष्म परमाणु से बना है, जिसका प्रेम, अधिकार, क्रोध सभी की चरम सीमा सेवा-भाव में निहित है।
नन्दा अपने नये घर में आती है। उसका अपना भरापूरा परिवार है फिर भी उसे अपने देवर-देवरानी की कमी महसुस होती है। वह अपने पुत्र में देवेन का बचपन देखती है, वह उस समय को याद करती है। इससे स्पष्ट होता है कि ऊपर से तो वह अपने देवर से अलग हुई हो पर मन से अभी भी जुड़ी हुई है।
जब नैतिक तथा सामाजिक नियमों का दबाव व्यक्ति पर बहुत अधिक पड़ता है तो वह अपने आप को पिडा पहुँचाने में तृप्ति का अनुभव करता है।
हर घर का एक न एक दिन बटवारा होता है, घर के साथ-साथ मन भी बॅट जाते है। इसमें नई बात नहीं, पर यहाँ लेखक ने अपनी कलाकौशल से यह स्पष्ट किया है कि चाहे घर- दुकान का बँटवारा हुआ हो पर भाभी देवर के रिश्ते का बँटवारा हो न सका। उनके स्नेहबंधन को बॅटवारा न तोड़ सका।
देवेन जानता था कि भाई की अल्प कमाई में घरखर्च मुश्किल से चलता होगा और वह यह भी जानता है कि उसकी स्वाभिमानी भाभी उससे माँगेगी नहीं। इसलिए वह स्वयं भतिजे के पढाई खर्च के बहाने मुछ रूपये देना चाहता है, पर स्वाभिमानी भाभी लेने से मना कर देती है। नाराज देवर वहाँ से चला तो जाता है पर इस बात को वह भूला नहीं पाता जब दुकान गिरवी लेने का प्रस्ताव भाभी उसके सामने रखती है तो वह मना कर देता है। अपना अपमान का बदला लेता है।
यह अहम का उदाहरण है। अहम् का सामान्य अर्थ है अपने बारे में अपना विचार। बच्चे के बढने पर बाह्य सम्पर्क में आने पर उसकी अहम् धारणा का विकास होता है। किसी के द्वारा अपने अहम् की अवमानना की प्रतिक्रिया मनुष्य अवचेतन में होती है। व्यक्ति दूसरों के प्रति प्रच्छन्न व्यवहार करके अपने आत्मसम्मान का बदला लेता है।
पर देवेन को जब पता चलता है कि उसका भाई बहुत अधिक मुसीबत में है तो वह दुकान तो गिरवी रख लेता है पर उन गिरवी के कागजों को फाड़ देता है क्योंकि आगे चलकर वे उन रिश्तों में कडवाहट न लाएँ और उन पवित्र रिश्तों का बटवारा ना कर दे।
"सोंचता हूँ कहीं पागल न हो जाऊँ, इसलिए उसके कारण को समूल मिटा देना चाहता हूँ।"
मानव का मन बड़ा विचित्र होता है जब कोई चीज पास में होती है तो उसकी उसे किंमत नहीं होती है पर वो ही चीज दूर जाने पर उसे उसका महत्व मालूम होता है।
इस कहानी के पात्र पग-पग पर अपनी तथा अन्य पात्रों की मनःस्थितियों को समझाने का प्रयत्न करते है साथ ही अपने आत्मा को खगालते रहते हैं।
मानव-व्यवहार का विश्लेषक मनोविज्ञान साहित्य का आधार फलक तथा उसके मूल्यांकन का वैज्ञानिक विकास है। कहानी जीवन की अन्तः बाह्य अनुभूतियों का प्रतिफलन है। आत्मभिव्यक्ति की प्रेरणा ही इसका मूल्य है।
विष्णु प्रभाकरजी सामान्य घटना और सूक्ष्म से सूक्ष्म अनुभूति को विशद् रूप में चित्रित करने में सफल रहे है। परिणामतः कथानक तो सीमित हुआ पर दूसरी ओर गहराई में आकर परत दर परत मानव मन की अच्छाई तथा विकृति को निरावृत भी किया। साराशं में यह कहानी जीवन दर्शन कथानक चरित्र चित्रण वातावरण सभी दृष्टि से मानव मन का विश्लेषक है।?
- वसुधा कंधारकर
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