आधुनिक समाज में नारी चेतना : कथा साहित्य के संदर्भ में

Dr. Mulla Adam Ali
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Women's consciousness in modern society : In the context of fiction

Women's consciousness in modern society

आधुनिक समाज में नारी चेतना : कथा साहित्य के संदर्भ में

इक्कीसवीं शताब्दी प्रत्येक क्षेत्र में नई परिपाटियों का युग है। आधुनिक युग में यदि कुछ चिरंतर है तो वह है बदलाव । हर क्षेत्र में परिवर्तन आया है। यह परिवर्तन हम देख समझ और अनुभव भी कर सकते हैं। नारी भी आज वह नहीं रह गई है जो पचास वर्ष पूर्व थी। समयानुसार और सामाजिक परिवर्तनों के चलते उसके व्यवहार और सोचने के तरीकों में भी बदलाव आया है। इस बदलाव को साहित्य में अपने तरीके से प्रतिबिंबित किया गया है। हिन्दी कथा साहित्य के संदर्भ में भी यह बात अक्षरशः सत्य है कि प्रेमचंद पूर्व व उनके पश्चात भी जो छवि नारी की थी वह बदली और पिछले कुछ वर्षों में नारीवादी लेखिकाओं और अन्य साहित्यकारों ने नारी को मात्र 'अबला' नहीं अपितु 'सबला' भी माना है।

यह भी सत्य है कि इस आधी दुनिया को समेटने वाली नारी कदम-कदम पर पुरुष द्वारा अनुशासित होती रही। 'आदमी की निगाह में औरत' (राजेन्द्र यादव) को देखने का उपक्रम भले ही हुआ हो किन्तु उसकी भूमिका को सभी समग्रता से देखा नहीं गया, देखने की शायद आवश्यकता भी नहीं हुई। हिन्दी की प्रख्यात लेखिका मृणाल पाण्डेय ने धर्मयुग में कई वर्ष पूर्व जो लिखा था वह आज भी सही है - जिस प्रकार हाथी के चार भिन्न अंगों को छूकर चार अंधों ने हाथी के विषय में एक संपूर्ण मानस चित्र बनाया और उसकी 'प्रामाणिकता' को लेकर वे हठपूर्वक आपस में लड़ते रहे, ठीक उसी प्रकार से दार्शनिक, विचारक, साहित्यकार आदि अपनी दृष्टि विशेष से नारी के एक पक्ष को संपूर्ण नारी समझने-समझाने की भूल करते रहे हैं। यही कारण है कि नारी एक साथ देवी और भोग्या, माया और शक्ति, श्रद्धा और ताड़न की अधिकारी समझी जाती रही है। ये सज्ञाएं नारी की चरित्रगत विशेषताओं को उभारती अवश्य हैं, 'नारी' को परिभाषित नहीं कर सकती। (19-25 अप्रैल 1987)

आज यह सही नहीं होगा कि नारी को परंपराबद्ध मान्यताओं एवं विशेषणों के आलोक में देखा जाए। नर अर्थात् पुरुष की तरह नारी भी एक सामान्य प्राणी है। उसका कार्य क्षेत्र भी पुरुष जैसा न होते हुए भी वह पुरुष के प्रतिकूल नहीं है। वस्तुतः नर नारी एक दूसरे के पूरक हैं। नर-नारी का यह संबंध अनादि काल से चला आया है किंतु समय समय पर पुरुषों के वर्चस्व के कारण नारी के स्थान को निम्नतर हो जाना पडा । पुरुष ने सभी साम, दाम, दंड, भेद आदि युक्तियों से स्त्रियों के मन पर अधिकार किया और कभी तन पर। वैदिक युग में जो नर-नारी की समानता थी, मध्य युग तक आते आते क्षीण हो गई। नारी की स्थिति को पनुस्मृति में बार-बार गौण बताया गया है, चाहे वह पूजनीया ही क्यों न हो (यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः)

हिन्दी साहित्य में नारी को वीरगाथा काल में यदि कोई विशेष स्थान नहीं मिला तो भक्तिकाल में तो वह समस्त सांसारिक बाधाओं का प्रतीक ही बन गई। रीतिकाल में वह भोग्या मात्र थी। जब 19वीं शताब्दी के भारतीय नव जागरण का बिगुल बजा तब नारी को केन्द्र में रखकर उसकी मुक्ति के अथक प्रयास हुए जिसका प्रभाव साहित्य पर भी पड़ा। मैथिलीशरण गुप्त ने 'उर्मिला' और 'यशोधा' को अपने काव्य की नायिका बनाकर नारी के प्रति आए बदलाव को रेखांकित किया। उनकी निम्न लिखित पंक्तियाँ कौन भूल सकता है ?

अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी।

आँचल में है दूध और आँखों में पानी।।

छायावाद युग में नारी के पावन रूप की उद्भावना हुई। प्रसादजी ने कहा - 'नारी तुम केवल श्रद्धा हो विश्वास रजत नग पग तल में। पीयूष स्त्रोत सी बहा करो जीवन के सुंदर समतल में।' महादेवी जी ने नारी को प्रकृति के समान ही मूर्त और अमूर्त स्थान दिया। पंत और निराला की सहानुभूति नारी के प्रति थी।

प्रगतिवादी कवि ने द्विवेदी युग की गतिशील नारी और छायावादी कवि की सूक्ष्म भावमयी एवं अमूर्त नारी को सजीव आकार दिया। उसने नारी को मानवी की संज्ञा दी। इसके साथ-साथ ही नारी का एक नवीन रूप कथा साहित्य में भी उभरा। यह देखा जाना चाहिए कि उपन्यास साहित्य के पहले कुछ उल्लेखनीय उपन्यासों में नारी की दशा का वर्णन अधिक है। श्रद्धाराम फिल्लौरी द्वारा रचित 'भाग्यवती' को हिन्दी का प्रथम उपन्यास माना जाता है जो सन् 1877 में लिख गया और 1987 में प्रकाशित हुआ। 'परीक्षा गुरु' उपन्यास चाहे पहले आ गया हो फिर भी 'भाग्यवती' का महत्व कम नहीं होता। प्रथमतः हिन्दी उपन्यासों में नारी का जो चित्रण हुआ उसको सतर्क पाठकों व आलोचकों ने कोई अच्छी बात न मानी। कई ने 'चंद्रकांता सतति' का भी विरोध किया था क्योंकि इस प्रकार के उपन्यासों में नारी का वर्णन आदि कालीन कवि वीर और श्रृंगार का जैसा वर्णन करते थे, वैसा था। किशोरीलाल गोस्वामी के उपन्यासों को लेकर यही बहस चली। 'समालोचक' ने उनके उपन्यासों की समीक्षा करते हुए लिखा था 'लीलावती, लाडली और तारा की लज्जा यों उघाड़ी जाकर सही भी जा सकती थी क्योंकि उसका उघाड़ना पवित्रता से सुवासित था किंतु देखते हैं, गोस्वामी जी को गढ़े चित्र उघाडने में भी मजा आता है।' कई विद्वानों ने कथा साहित्य को 'हिन्दी का हानिकर साहित्य' कहा क्योंकि इनमें स्त्री के श्रृंगार से कुवासना उत्पन्न होती थी।

इस प्रकार की नारी भावना के चित्रण को लेकर हुई प्रारंभिक चिंता ने पाठकों व लेखकों की रुचि को विकृत होने से बचाया क्योंकि जब उपन्यास व कथा साहित्य ने बल पूर्वक मध्यवर्गीय जीवन में प्रवेश कर लिया था तो यह स्वाभाविक था कि समाज का सतर्क पाठक वर्ग इधर ध्यान दे और व्यापक जन रुचि को बिगडने से बचाए।

प्रेमचंद ने आदर्श और यथार्थ का, घटना और अनुभूति का क्रमशः संतुलन करके एक नई बात प्रस्तुत की। 'गोदान', 'सेवा सदन', 'कफन' और 'पंच परमेश्वर' की नारियाँ अपने आप में ऐतिहासिक दस्तावेज हैं तत्कालीन युग की नारियों की। वे अपने अपने स्थान पर अपने से जुडे पुरुषों के साथ भी हैं किंतु वे अपना अलग अस्तित्व दिखाने से भी नहीं चूकती। 'कफन' में 'कथा नायिका' मृत है फिर भी सारी सहानुभूति उसके साथ है। पंच परमेश्वर की बूढ़ी के साथ भी पाठक है और 'गोदान' की 'सिलिया' और 'धनिया' के साथ भी। वे समाज से विद्रोह कम और तालमेल अधिक रखना चाहती हैं। यह बात हमें 'सेवा सदन' 'कर्मभूमि', 'रंगभूमि' 'और 'निर्मला' आदि रचनाओं के नारी पात्र बता देते हैं। प्रेमचंद युग के अन्य उपन्यासकारों में चतुरसेन शास्त्री और वृंदावनलाल वर्मा ने भी अपने सामाजिक और ऐतिहासिक उपन्यासों में नारी के उदात्त स्वरूप को रेखांकित किया है। वे भारतीय इतिहास की वीरांगनाओं को हमारे सामने प्रस्तुत करके नारी जीवन का उज्ज्वल पक्ष प्रस्तुत करते हैं। झांसी की रानी, विराटा की पद्मिनी, मृगनयनी आदि नायिकाएं नारी की महानता, कर्मठता और त्याग के उदाहरण हैं। बाद में भगवती चरण वर्मा ने विशेष रूप में 'चित्रलेखा' के माध्यम से नर्तकी चित्रलेखा को समकालीन दिखाने की कोशिश की है। इसी प्रकार 'तीन वर्ष' उपन्यास में वर्माजी ने एक संभ्रान्त परिवार की युवती प्रभा की तुलना में वेश्या सरोज के जीवन मूल्यों को उच्च आसन पर बैठा कर नारी की गरिमा को बढाया है। कहानी में भी देखें तो प्रारंभिक कहानियों में 'इंदुमती', 'दुलाई वाली' आदि में नारी की प्रधानता है। परिपक्व कहानी 'उसने कहा था' में भी कहानी कला की जो उदात्तता जन्म लेती है वह नारी पात्र के कारण ही उसी के प्लेटोनिकलव आदर्श प्रेम में लहना सिंह आत्म त्याग करता है। नारी के प्रति सम्मान भी इससे अधिक भावना क्या होगी।

प्रेमचंद के सहयोगी रचनाकारों जैसे सुदर्शन, विश्वंभर नाथ शर्मा 'कौशिक', जयशंकर प्रसाद ने भी ताई, पुरस्कार आदि कहानियों में पारिवारिक व सामाजिक आदर्शों को नारी के माध्यम से प्रस्तुत किया है। यह गतिशीलता नारी को संयुक्त परिवार के करीब रखती है। हमारे समाज में परिवार के लिए त्याग और बलिदान करने वाली नारियों को दिखाया गया है। यह विकास धीरे-धीरे किन्तु हुआ अवश्य।

स्वतंत्रता के पश्चात युग ने करवट बदली। पहले सुभद्रा कुमारी चौहान या महादेवी वर्मा जैसी इक्की दुक्की कथाकार ही थी। बाद में अनेक स्त्रियों का आगमन इस क्षेत्र में हुआ। नए प्रश्नों के साथ नई समस्याएं और नई दिशाएं सूझने लगी। कई कथाकारों में उषा प्रियंवदा, कृष्णा अग्निहोत्री, कान्ता भारती, कुसुम बंसल, चंद्रकांता, शिवरानी देवी, मृदुला गर्ग, शिवानी, मन्नु भंडारी, शुभा वर्मा, अलका सरावगी, कृष्णा सोबती, कंचनला, सब्बरवाल, ,रजनी पनिक्कर, सूर्य बाला, शशिप्रभा शास्त्री, राजी सेठ, लीला अवस्थी, दीप्ति खंडेलवाल, मृणाल पांडे, अन्नपूर्णा ताँगड़ी, पुष्पा महाजन, मेहरुन्निसा परवेज, नासिरा शर्मा, मंजुल भगत, कान्ता भारती, निरुपमा सेवती, सुधा श्रीवास्तव, स्वर्ण मलहोत्रा, ऋता शुक्ला, गीतांजलि श्री, मैत्रेयी पुष्पा, प्रभाखेतान, नमिता सिंह, प्रेमलता, कुसुम लता, सरोजिनी प्रीतम, मधु राजवंशी और ममता कालिया का नाम है। ये महिलाएँ अपनी तरह से हिन्दी कथा साहित्य में नारी को प्रतिबिंबित एवं विकसित कर रही हैं।

आज स्थिति यह है कि भारत के मध्य वर्ग में मर्द- औरत के कुंठा जन्य भटकावों, यौन आकर्षण के बीच छिपी गहरी संवेदनाओं को हिन्दी कथाकार अपनी रचनाओं के द्वारा प्रस्तुत कर रहे हैं। जैसा कि ऊपर बताया गया कि नारी के चित्रण में साहित्यकारों का वर्ग उभरकर आया है। सह- अनुभूति जन्य लेखन के साथ-साथ सहानुभूति जन्य लेखन भी प्रचुर मात्रा में हो रहा है। स्त्री-पुरुष में नए रिश्ते बन रहे हैं। आधुनिक कथा साहित्य में जहाँ एक ओर इन रिश्तें के विभिन्न रूपों की छाया परिलक्षित हो रही है दूसरी ओर स्त्री के स्तर को ऊँचा उठाने के लिए कई संगठन व लेखक आगे आए हैं। दलित लेखन के समान ही स्त्री लेखन को भी रेखांकित किया जा रहा है। यूँ तो बकौल मनोहर श्याम जोशी 'हिन्दी समाज और साहित्य दोनों अर्द्ध सामंती दृष्टि और अतिनैतिकता के मारे हुए हैं' किंतु फिर भी स्त्री की देहमुक्ति और मन मुक्ति के नारे बुलंद किए जा रहे हैं।

स्त्री विमर्श के आधार पर सोचने वाले मानते हैं कि स्त्रियों और दलितों का कोई अलग इतिहास नहीं है क्योंकि इतिहास उनका होता है जो अपने फैसले खुद लेते हैं। आज के कथाकार इसी फैसले लेने वाली नारी अर्थात अपने व अपने परिवार के फैसले लेने वाली नारी को प्रस्तुत कर रहे हैं। इन कथाकारों में पुरुष भी हैं और स्त्री भी। सेक्सुऐलिटी और दैहिकश्रम से आगे जाकर भी स्त्री के मन को देखा जाए यह आज के कथाकार की अभिलाषा है यही उसका लक्ष्य भी है।

- एस. सुनीता

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