भारतीय भक्ति साहित्य : अस्मिता और प्रासंगिकता
अवतारवाद और श्री वेंकटेश्वर अवतार का वैशिष्ट्य
Avatarism and Specialty of Sri Venkateswara Avatar
वैष्णव संप्रदाय के अनुसार देवाधिदेव, सर्वलोक रक्षक, सृष्टि के मूल, सर्वप्राणियों के कारणभूत श्री महाविष्णु हैं। भारतीय भक्ति साधना में वैष्णव संप्रदाय का अद्वितीय स्थान है। भगवान के प्रति भक्ति को सरल बनाकर जन सुलभ भी वैष्णव संप्रदाय ने किया है। वैष्णव संप्रदायों के प्रयासों से ही भारत में समय समय पर भक्ति आंदोलन हुए हैं। वैष्णव संप्रदाय के द्वारा श्री महाविष्णु की प्रतिस्थापना और उन के अवातारों के प्रचार के बाद ही भारत में भक्ति का पूर्ण परिपाक संभव हो पाया है। वैष्णव संप्रदाय के विकास में कई महत्माओं एवं आचार्यों ने अनुपम योगदान दिया है। उन महात्माओं में वैखानम अग्रणी हैं। उन्होंने वैखानस संप्रदाय की स्थापना करके श्री महाविष्णु तत्व को जन जन तक पहुंचाया है। वैखानस ने श्री महाविष्णु के पांच रूपों की परिकल्पना करके जन जन के मन की भ्रांतियों को दूर किया है। साथ ही अवतारवाद और लीलाबाद की स्थापना करके श्रीमहाविष्णु की महिमा का गायन किया है। वैखानस आगम श्री महाविष्णु और उन के दशावतारों का समर्थन करता है।
वैखानस ऋषि ने वैष्णव संप्रदाय की स्थापना के साथ साथ सर्वाधिपति भगवान श्री महा विष्णु के रूपों की व्याख्या की है। जन सामान्य में ईश्वरीय स्वरूप पर विश्वास और विष्णु के विविध लीला रूपों के रहस्यों को विखनास ऋषि के विचारों से परिपुष्ट किया जा सकता है। साथ ही श्री महाविष्णु के अवतारवाद के बुनियादी लक्ष्य को भी इन विचारों से समर्थन मिलता है। वैखानस दार्शनिक पक्ष को वैखानस आगम कहा जाता है। वैखानस आगम में परमात्मा के रूप में श्री महाविष्णु को प्रतिस्थापित करके उन के अवतारों पर तथा उन के लीला-रूपों का महिमा गायन किया गया है। उस में परमात्मा श्री महाविष्णु के पांच रूप बताए गए हैं- 1. पर 2. व्यूह 3. विभव 4. अंतर्यामी 5. अर्चा । वैखानस आगम में इन रूपों की विपुल व्याख्या की गयी है। परमात्मा का 'पर' स्वरूप नित्य वैकुंठ में रहने वाला रूप है। श्री वैकुंठ के महामणि मंडप में अमित ज्ञानी गरुड, विष्वकसेन आदि नित्य सूरों से और लीला विभूति से भक्ति, प्रपत्ति आदि उपायों से बह्म पथगामी मुक्त पुरुषों से स्तुत्य होकर शेष तल्प पर श्रीदेवी-भूदेवियों सहित दिव्य मंगल रूप ही श्री महाविष्णु का 'पर' रूप हैं।
इस प्रकार पर स्वरूप में परमात्मा सर्वाधिपति वैकुंठवासी विष्णु हैं। वैखानस आगम के अनुसार 'व्यूह' स्वरूप के पुनः पांच भेद हैंहजो विष्णु, पुरुष, सत्य, अच्युत और अनिरुद्ध हैं। पांचरात्र शास्त्रियों के अनुसार 'व्यूह' के चार प्रकार हैं, जो वासुदेव, संकर्षणा, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध हैं। इन में संज्ञा भेद के सिवा अर्थभेद नहीं है।
परमात्मा का ‘विभव' स्वरूप परमात्मा की लीलाओं से तथा विविध अवतारों से बंध रखनेवाला स्वरूप है। इसलिए वैष्णव संप्रदाय के विकास में इस का ही प्रमुख स्थान है। साधु संतों रक्षा, दुष्टों को दंड देने के लिए परमात्मा 'विभव' स्वरूप में विविध अवतार लेते हैं। धर्म की स्वरूप का मुख्य लक्ष्य है। मख्य, कूर्म, वराह, वामन, नृसिंह, परशुराम, राम, कृष्ण, श्री वेंकटसर आदि अवतार विभव स्वरूप की लीलाओं से उद्भूत हैं। इन में से कुछ साक्षात श्री महाविष्णु किसी माँ के से अवतरित हुए। जैसे राम, श्री कृष्ण, परशुराम आदि। कुछ अवतार प्रत्यक्ष रूप से प्रकट हुए हैं। जैस नृसिंह, वामन, वराह आदि । इस के अतिरिक्त परमात्मा का 'अंतर्यामी' स्वरूप सर्वत्र व्याप्त रूप है। प्रकृति के कण कण में वास करते हुए सभी पर शासन करते हैं। वे ज्ञान गोचर रूप भी है। परमात्मा का अर्चा स्वरूप वह रूप है जो अपने आश्रित भक्तों के इच्छानुसार आविर्भूत होकर विभव स्वरूप लक्षण से देश कालावधि रहित सर्वसहिष्णु होकर अर्चक के पराधीन होते हुए मंदिरों और गृहों में विराजमान होता है। इस अर्चा स्वरूप के भी चार प्रकार होते हैं। । स्वयं व्यक्त रूप- भगवान स्वयं व्यक्त रूप में प्रकट होते हैं। 2. दिव्य रूप देवताओं से प्रतिष्ठित रूप 3. सैद्ध रूप योग संसिद्धों से प्रतिष्ठित अर्चारूप। 4. मानुष रूप जो मानवों से प्रतिष्ठित होता है। इस रूप में वैखनस ने विष्णु के विविध रूपों उन के द्वारा की गयी लीलाओं तथा अवतारी रूपों को जनसुलभ बनाने की कोशिश की है। वैखानस के अनुसार परमात्मा विभव स्वरूप ही सभी लीलाओं एवं अवतरों के लिए जिम्मेदार है। इस 'विभव' स्वरूप के कारण विष्णु के स्वरूप का अधिक प्रचलन हुआ है।
भक्ति चिंतन के क्षेत्र में प्रचलित धारणा के अनुसार अवतारवाद या लीलाबाद का प्राचुर्य काव्य काल में हुआ है। भक्त कवि अपनी कलात्मक श्रेष्ठता के सहारे भक्ति चिंतन के अवतारवाद और लीलावाद का अधिक प्रचार किया है। दूसरे शब्दों में भक्त कवियों के काव्य अवतारवाद और लीलाबाद प्रचार के लिए अच्छे उपकरण बने हैं। इसीलिए लीलाबाद अथवा अवतारवाद की यही व्याख्या से भक्ति काव्य के मूल स्वरूप को तद्वारा उस की प्रासंगिकता पर विचार किया जा सकता है। अवतारी श्री राम, श्री कृष्ण और श्री वेंकटेश्वर अधिक प्रचलित हुए हैं। भारतीय भाषाओं में इन अवतारों से संबंधित साहित्य ही अधिक लिखा गया है। इस प्रचलन के अपने कारण हैं।
अवतारवाद और लीलाबाद से ही भारतीय भाषाओं का भक्ति साहित्य अधिक प्रभावित है। आज का मनुष्य इन के प्रति सही दृष्टिकोण के अभाव में भक्ति संबंधी अनेक गुत्थियों में उलझ जाता है। श्री राम, श्री कृष्ण के अवतारों से श्री वेंकटेश्वर का अवतार कुछ भिन्न है। श्री वेंकटेश्वर ने अपनी ओर से अवतारवाद की नयी व्याख्या की हैं। साथ ही लीलाओं से संबंधित दर्शन को ही बदल लिया है। लीलावाद और अवातरवाद से संबंधित दर्शन की नई उद्भावना से ही संभव होगा। आज लीलावाद और अवतारवाद से संबंधित मौलिक उद्भावनाएँ प्रस्तुत की जारी हैं।
1. चरित्र का संबंध मनुष्य से होता है और लीला का संबंध ईश्वर से। धार्मिक चिंतन के अनुसार जगत ईश्वर की लीला का परिणाम है। श्री राम और श्री कृष्ण के अवातरों के दौरान इसी रूप को देख सकते हैं। लीला और चरित्र में अंतर है। लीला भगवान की इच्छा का परिणाम है और चरित्र व्यक्ति के शील का स्वरूप। इस दृष्टि से भी श्री वेंकटेश्वर का अवतार विशिष्ट है।
2. जगत के चेतन-अचेतन सभी तत्व उन के ( ईश्वर के) आत्म रूप ही है, वह सब में अंतर्निहित है, सारा जगत उस में स्थित है और वह सब का नियामक है।
3. वस्तुतः भगवान में रिरंसावृत्ति के साथ ही सिसृक्षावृत्ति और युयुत्सावृत्ति भी रहती है, ये दोनों वृत्तियाँ सामयिक होती हैं। रिरंसावृत्ति ही नित्य होती है।
4. पराशक्ति ही लीलावती लक्ष्मी है। जो लीलारस समुत्सुक सच्चिदानंद भगवान की नित्य लीला सहचरी है। रामावतार में सीता, श्री कृष्णावतार में राधा और श्री वेंकटेश्वर अवतार में अलिमेलुमंगा है।
5. भगवान की सच्चिदानंदमयी लीला दो प्रकार की होती है- नित्य लीला और नर लीला या अवतार लीला। इसे ही गुप्त लीला और प्रकट लीला भी कहते हैं। ऐसी लीलाओं में श्री राम, श्री कृष्ण और श्री वेंकटेश्वर के अवतारों में काफी साम्य । तीनों अवतारों में प्रकट लीलाओं एवं गुप्त लीलाओं का उद्घाटन हुआ है।
इन पाँचों कारणों के अतिरिक्त इन तीनों अवतारों में अलग दिखाई पडनेवाले कुछ तत्व हैं। खासकर श्री वेंकटेश्वर के अवतार का वैशिष्ट्य है। इस में अनेक वैषम्य प्राप्त होते हैं।
1. श्री महाविष्णु अवतार उस समय लेते हैं जब लोक कल्याणार्थ देवताओं की ओर से कोई ऐसी विनति होती है। खासकर समस्त लोकों को दुष्ट शक्तियों से बचा कर फैलनेवाले अधर्म को रोकर फिर से धर्म की स्थापना हेतु अवतार लेते हैं। श्री रामावतार और श्री कृष्णावतारों का उद्देश्य भी यही है। जब कि श्री वेंकटेश्वर अवतार के पीछे ऐसा लक्ष्य दिखाई नहीं पडता है। श्री वेंकटेश्वर अवतार में साक्षात श्री महाविष्णु सीधे वैकुंठ से पधार कर अपनी लीला भूमि श्री शेषचल पहाड़ों में बसे हैं।
2. इन अवतारों में समयगत अंतर भी है। श्री राम त्रेता युग के श्री कृष्ण द्वापर युग के और श्री वेंकटेश्वर कलियुग के हैं। इन युगों में धर्मगत बडा अंतर है।
3. श्री राम और श्री कृष्ण मानव योनी से पैदा हुए। श्री राम की माँ कौशल्या हैं, श्री कृष्ण की देवकी हैं। किंतु श्री वेंकटेश्वर की माँ वकुला है, जो पोषित माँ हैं।
4. श्री राम अवतार में श्री राम ने सिर्फ सीता के साथ विवाह किया। वैसे ही श्री कृष्ण अवतार में श्री कृष्ण ने अष्ठ पनियों के साथ विवाह किया। श्री वेंकटेश्वर अवतार में श्री वेंकटेश्वर ने लक्ष्मी अवतारी अंश से, अयोनिजा के रूप में राजा आकाश राज की पुत्री वेद लक्ष्मी (पूर्व जन्म में वेदवती, वेदों के अवतारी) पद्मावती के साथ विवाह किया। यहाँ ध्यान देने की बात है कि तिरुचानूर में बसी पद्मावती से ये पद्मावती अलग हैं।
5. श्री रामावतार की सीता और श्री कृष्णावतार की राधा आदि उन अवतारों के साथ अलग से दिखाई देती हैं। किंतु श्री वेंकटेश्वर अवतार में में उन की वेदलक्ष्मी (भू लक्ष्मी और व्यूहलक्ष्मी (भू देवी और श्री देवी)
6. प्रश्न उठता है कि दोनों देवेरियाँ उन के वक्षस्थल पर रहते हुए श्री वेंकटेश्वर में लीन दिखाई देती हैं। इसलिए आनंद निलय में श्री वेंकटेश्वर की एक ही स्वयंभू मूर्ति दिखाई देती है। दोनों देवेरियाँ वक्षस्थल पर रहने के कारण श्री वेंकटेश्वर 'श्रीनिवास' कहलाते हैं। दोनों देवेरियाँ उन की हर पल सहायता करती हैं।
7. श्री रामावतार और श्री कृष्णावतारों के द्वारा रावण, कुंभकर्ण आदि, कंस, शिशुपाल जैसे राक्षसों का संहार करके धर्म की स्थापना पुनः भगवान ने की है। प्रश्न उठता है कि श्री वेंकटेश्वर के अवतार का मुख्य उद्धेश्य क्या है ? श्री वेंकटेश्वर अवतार का मुख्य लक्ष्य पर कलियुग में अनेक प्रकार के दुर्गुण रखनेवाले मनुष्यों को सुधारना, उन में भक्ति की चेतना को जगाना, दीन-दुखियों की रक्षा करना है। आज एक दो रावण और कुंभ कर्ण नहीं है। कलि के प्रभाव से सारे लोग थोडा बहुत राक्षसी गुणों से ओत प्रोत हैं। उन्हें उन गुणों से मुक्त करना ही श्री वेंकटेश्वर, वेदलक्ष्मी और व्यूह लक्ष्मी का लक्ष्य है। दोनों देवेरियाँ मिलकर भूत कारुण्य लक्ष्मी बनी हैं।
8. नेत्रों पर त्रिपुंड लगाने के बावजूद श्री वेंकटेश्वर सब की असलियत को देखते हैं। दयालु, भक्त वत्सल, आपदाओं से अपने भक्तों को दूर करनेवाले (श्री वेंकटेश्वर ) अपने वक्षस्थल निवासी व्यूह लक्ष्मी से अपने इस अवतार के लक्ष्य के बारे में बताते हैंह" कलियुग के मानव काल प्रभाव के कारण, जान कर कुछ पाप, अनजान में कुछ पाप करते हैं। उन दोषों के कारण, उन पापों के कारण उन्हें अनेक विचित्र रोग और व्याधियाँ सतायेंगी। उनकी अतुरताएँ भी बढ जाती हैं। कमजोर मानव रोगों से, व्याधियों से, बाधाओं से भयभीत हो जाते हैं। भय के कारण दिशाहीन होकर आश्रयहीन होकर, भूलोक वैकुंठ इस पुण्य स्थल में वक्षःस्थल पर तुम्हारे साथ रहनेवाले मुझे श्रीनिवासा! गोविंदा! गोविंदा!! पुकारते हुए, श्री लक्ष्मी वेंकटरमण गोविंदा! पुकारते हुए अनेक रूपों में शरण मांगते हैं। हम दोनों अभिन्न होकर मिलकर आनंद निलय में बसने पर हम से अनेक रूपों में विनति करते हैं। उन भक्तों की आपदाओं को दूर करना ही हमारा परम धर्म है !
भूख के समय, थकान के समय, निराश्रित समय, भ्रष्ट हुए समय, दुष्टों के हाथ में पडकर जेल में रहते समय, सिर्फ श्रीनिवास अकेला ही आश्रय है, कहते हुए हमारी शरण में आएंगे।
आपदाओं के होने पर, कष्टों के आने पर, पाप करने पर, भय खाने पर सिर्फ वेंकटेश ही एक मात्र आश्रय है- कहते हुए मेरा नाम स्मरण करते वेंकटाद्री पर पहुंचते हैं। इतना ही नहीं, जेल में डालने पर, खून करने बुलाने पर, उधारवाले सताने पर, सिर्फ वेंकटेश का नाम स्मरण ही हमें मुक्त कर सकता - ऐसे विश्वास से अनेक कष्टों को झेलकर अनेक कठिनाइयों का सामना करते हुए और कोई मुझ मार्ग न पाकर सिर्फ सप्तगिरियों का मार्ग पकड़ कर चल कर मेरी शरण में आते हैं। अनेक रूपों में से विनती करते हैं।
इस कलियुग में 'कलौ वेंकट नायकः' नामक प्रसिद्ध नाम पानेवाला मैं भक्त रूपी मानवों के पापकर्मों को, दोषों को, रोगों को, सभी को अपने अपने धन के आधार पर ही आकर्षित करके उसी में निक्षिप्त रहता हूँ। उस रूप में रोगों से, पापों से भरे धन को संपदाओं को भक्तों से मैं स्वीकार करके उन्हें पापों से, दोषों से मुक्त करता हूँ। उन्हें पवित्र बनाता हूँ। उनकी समस्त कामनाओं की पूर्ति करता हूँ। जिस धन को मैं ने उन से स्वीकार किया, उसे अज्ञानी, दुराशा, दुष्ट लोगों से भ्रम पैदा करके, उन्हें आशा में डालकर, आकर्षित करके, उन के द्वारा उस धन को उस के साथ संक्रमित पापों को, रोगों को और बाधाओं को फिर से उन को झेलने के लिए विवश करता हूँ।
लेकिन मेरे पास आनेवाला धन या मेरे द्वारा स्वीकृत होनेवाला धन पूरा पापी नहीं होता है। रोगग्रस्त भी नहीं होता है। उस में सज्जनों, उपासकों, साधक रूपी भक्तों के द्वारा भक्ति प्रपत्तियों से, नियम निष्ठाओं, नीति-नियमों से विनम्र रूप से भेंटों के रूप में दिया गया धन भी होता है। और कुछ लोग बिना किसी कामना के अपने धन को निष्काम रूप में समर्पित करते हैं। और कुछ भक्त व्यक्तिगत रूप से नहीं कर सकनेवाले, लोक कल्याणकारक मानव सेवा कार्यों के लिए, उदारता से मुझे धन समर्पित करते हैं। उस प्रकार उत्तम भक्तों के द्वारा समर्पित पवित्र धन में से कुछ भाग को कुबेर को ब्याज के रूप में चुकाता हूँ। थोडा और धन भक्तों को सेवा करनेवाले मेरे कर्मचारियों को, यात्रीयों, भक्तों के वैद्य के लिए, विद्या के लिए, अन्न दान के लिए -- इस रूप में लोक कल्याणकारक सत्कार्यों के लिए खर्च करता हूँ।
इसलिए, कलियुगांत में उधार चुकाऊंगा, इस रूप में लिख कर दिए उधार पत्र को अभी रद्ध करने की आवश्यकता नहीं है लक्ष्मी!" यह कहते हुए श्री वेंकटेश्वर व्यूह लक्ष्मी से प्रार्थना करते हैं कि वे सभी भक्तो को संपदाएँ प्रदान करें। तब व्यूह लक्ष्मी कलियुग देवाधिदेव श्री वेंकटेश्वर से प्रश्न करती है कि कलियुग में दान-परोपकार पुण्य नहीं कमानेवाले लोगों को मैं क्यों संपदाएँ दूँ? तब भक्त का ही पक्ष लेते हुए श्रीवेंकटेश्वर उन से आग्रह करते हैं" देवी ! मोक्ष के लिए योग्य लोगों को मोक्ष देना, पुण्यात्मा की इच्छाओं की पूर्ति करना मेरे लिए बहुत प्रिय है। इसलिए सर्वसंपदाओं के लिए अधिष्ठात्री होने के नाते हे श्री महालक्ष्मी ! तुम मेरे भक्तों को सर्व संपदाओं को उन्हें देने की आदत बना लो। तुम्हारे द्वारा दिए गए धन को उन से मैं दुबारा स्वीकार करके उन की सारी आपदाओं को दूर करने के साथ साथ संतानादि वर उन्हें प्रधान करूंगा। इच्छाओं की पूर्ति हो जाने के बाद वे भक्त अत्यंत खुश होते है तो उसे देखकर हमें प्रसन्न होना हमारा धर्म है।
सच है! सच है! यह बहुत बडा सच है। तुम ने सच ही कहा देवी! इस कलियुग में पैदा मनुष्य कपट और परम कंजूस हैं। इस में कोई संदेह ही नहीं है। लेकिन मैं ने एक उपाय के बारे में सोचा है। क्या वह जानना चाहती हो तो सुनो।
कलियुग के मनुष्य अनेक पाप करते हैं। इन पापों को करने के कारण उन्हें कई रोग सतायेंगे। कई बाधाएँ उन को होगी। उन रोगों एवं बाधाओं को सहने में असमर्थ वे मुझे स्मरण करेंगे। आपदाओं से मुक्ति के लिए मनौतियाँ मांगेंगे। 'वें' - पापों को, रोगों को, 'कट' दूर करनेवाले वेंकटेश्वर मैं हूँ । इसलिए उन में से कुछ को सपने में दिखाई देकर उन के द्वारा मनौतियाँ कराऊंगा। उन की मनौतियों के द्वारा प्राप्त धन में थोडा उन्हीं के द्वारा ब्याज के रूप में वसूल करूंगा। वे समय पर मनौतियाँ पूरा नहीं करेंगे। इसलिए ब्याज सहित चुकाने के लिए तैयार हो जाएंगे। इस रूप में मूल धन को ही ब्याज के ब्याज बनाकर बढाऊंगा। रोजाना ब्याज पर ब्याज बढने के कारण, स्वामी की मनौतियाँ और भेंट चुकाने के लिए उन में भय जगाऊंगा। तुम जानती हो न मेरे लिए भय कृत भयनाशन: 'नामक एक सार्थक नाम प्रचलित है! यानी 'मेरे लोग' समझनेवाले मेरे भक्तों में भय का सृजन मैं करता हूँ। बस! उस भय से वे और कोई उपाय न देखकर विवश होकर मेरी शरण में आयेंगे। उस रूप में मेरी शरण में आने के लिए ही मैं उन्हें डराऊंगा। मेरी शरण में आनेवाले सभी के आपदाओं तथा रोगों को भय, पूरी तरह मैं 'दूर करूंगा।
ऐसे मनुष्य सभी मेरे पास आकर व्याज पर ब्याज बढनेवाले धन को मेरी मनौतियों और भेंटों के रूप में समर्पित करते हैं। उन के द्वारा समर्पित धन को मैं 'निशित' दृष्टि से देखकर उस में पुण्य और पाप धन को अलग करता हूँ। उस में से पाप धन को सिर्फ दुष्टों में ही बाँटता हूँ। इस के लिए उन में आकर्षण पैदा करता हूँ। उसे अज्ञान से और आशा से अनुभव करनेवालों को शारीक एवं मानसिक रोग सताते हैं। यह उन का भाग्य है! बस !
फिर पुण्य धन को अन्नदान, विद्यादान, वैद्य दान जैसे दीन-जन सेवा कार्यक्रमों में उपयोग करूंगा। तद्वारा महिमावान इस क्षेत्र में सत्कार्य करने का फल उन भक्तों को प्राप्त होता है। इसलिए हे श्री महालक्ष्मी! उन भक्तों के द्वारा किया स्वल्प दान को ही भूरी मात्रा में समझकर उन्हें समृद्ध रूप में संपदाएँ प्रदान करो। तुम्हारे अनुग्रह से प्राप्त संपदाओं को वे फिर इसी क्षेत्र में मंगाता हूँ। उन के द्वारा फिर से दान कराता हूँ। इस वेंकटाद्री में किए जानेवाले स्वल्प दान भी अत्यधिक फल देता है। इस के द्वारा इस कलिकाल में मनुष्यों को वेंकटाचल क्षेत्र की महिमा समझ में आयेगी। बार बार यात्रा करते हुए, मेरे दर्शन करके बार बार मेरे लिए दान-पुण्य करते हैं। अगर इस रूप में नहीं होता है तो इस कलियुग में कलिपुरुष के द्वारा अनेक रूप में सताये जाएंगे। उन बाधाओं से वे बार बार और पाप करते हुए, अति भयंकर नरक को प्राप्त करते हैं। भक्तों को इस प्रकार की कलिबाधाएं न हो, उन की रक्षा करने के लिए इस दिव्य भव्य वेंकटाचल क्षेत्र में मनौतियों के स्वामी के रूप में, अपद्धांधव के रूप में बसकर, वरों के देव के रूप में उपाधि प्राप्त करके भक्तों की रक्षा करता रहूँगा । इसलिए देवी! दीन जन बांधव के रूप में प्रसिद्ध मैं जो लोक रक्षण रूपी कार्यक्रम कर रहा इस कार्यक्रम भी सहायता पहुँचा दो। वह इस रूप में हैं कि मुझे उत्सवों, शोभायात्रों को करने के लिए, भेंटों, में तुम मनौतियों, धन को चुकाने के लिए भक्तों को तुम बडी मात्रा में संपदाओं को प्रदान करो। मैं इसकी प्रार्थना भी करता हूँ।
ऐसा न होकर अभी कुबेर के उधार को पूरी तरह तुम चुकाओगे तो! मुझे इस भूलोक में कोई काम नहीं बचेगा। यह सच है। तब कलियुग में भक्तों की रक्षा करने का मेरे अवातर का लक्ष्य भी पूरा नहीं होगा। इसलिए देवी! श्री महालक्ष्मी ! एक और बार मैं विनति कर रहा हूँ। तुम इस कलियुग में भक्तों की रक्षा करने की नौकरी मुझे दे दो। वही मेरे लिए बहुत बडा धन है। " कहते हुए श्रीनिवास ने अपने वक्षःस्थल में बसी व्यूह लक्ष्मी को और कुछ बल के साथ गले लगाकर प्रार्थना की।
स्वामी की प्रार्थना से फूलते हुए श्री महालक्ष्मी ने मंद मुस्कान से स्वामी के वक्षःस्थल में और जम कर बसते हुए परमानंद से इस रूप में कहा।
"स्वामी! श्री निवास प्रभू! अभी इसी समय मैं प्रतिज्ञा कर रही हूँ। इस भूलोक में एक तरफ दान, धर्म और परोपकार करते हुए, दूसरी तरफ " कलौं वेंकट नायकः " नामक अपाधि पाकर, पुकारने मात्र से दर्शन देनेवाले आप को इस पुण्य क्षेत्र में दर्शन करके, शरण मांगकर मनौतियों के द्वारा, भेंटों के द्वारा उदारता से धन को आप को समर्पित करनेवले भक्तों को मैं बडी मात्रा में धन, धान्य, वस्तु आदि समृद्ध रूप में प्रदान करूंगा। इतना ही नहीं, लोभियों के रूप में रहते हुए पापों को करनेवाले 1 लोगों की संपदाओं को नाश करूँगी।" कहते हुए व्यूह लक्ष्मी श्री निवास का समर्थन करते हुए कलियुग के मनुष्यों को सर्वसंपदाओं को प्रदान करती रहेंगी। वे भक्त वेंकटाचल पहुंच कर धन को मनौतियों के रूप में चुकाकर अपनी बाधाओं से मुक्त हो जाएंगे। इस भू लोक में सिर्फ यही एक मात्र मार्ग है। इससे बढकर इस कलियुग में इससे श्रेष्ठ मार्ग भी नहीं है। नहीं है। बिलकुल नहीं है।
इसलिए तिरुमल क्षेत्र में कलियुग में भक्तवरद के रूप में बस कर दर्शन देनेवाले श्री वेंकटेश्वर स्वामी की मूल मूर्ति कितना बडा महिमावान देव है, उस मूर्ति के हृदय में “ 'व्यूह लक्ष्मी " के रूप में विराजमान श्री महालक्ष्मी की मूर्ति उससे भी बडी महिमावान देवी के रूप में प्रचलित हो गयी।
वैष्णव संप्रदाय में शरणागति को उच्चस्थान दिया गया है। भक्त अपने मैं तत्व को मिटाकर भगवान के प्रति पूरी तरह समर्पित होता है। तब भगवान भक्त का उद्धार करता है। भागवत की कहानियाँ यही बताती हैं। किंतु कलियुग देवाधिदेव श्री वेंकटेश्वर तो एक बार स्मरण मात्र से, मनौती मांगने से ही भक्तों का उद्धार करने के लिए तत्पर होते हैं। इस रूप में श्री वेंकटेश्वर का अवतार अन्य अवतारों से विशिष्ट है।
- आई. एन. चंद्रशेखर रेड्डी
ये भी पढ़ें;
✓Tirumala Tirupati Devasthanams CALENDAR : तिरुमला तिरुपति देवस्थानम कैलेंडर