राम कथा : जीवन, साहित्य एवं कला
लोक कलात्मकता और लोक रामायण
अज्ञात बहु कर्तृत्व लोक साहित्य का मुख्य वैशिष्टय है। अज्ञात लेखकीय अद्भुत सृजन लोक साहित्य है। लेखकीय अज्ञात होते मात्र से किसी भी रूप में कलात्मकता के संदर्भ में लोक साहित्य को कम नहीं आंका जा सकता है। बल्कि कई संदर्भों में साहित्य के अन्य रूपों से लोक साहित्य उच्च व श्रेष्ठ ठहरता है। लोक साहित्य को बहु कर्तृत्व अत्यधिक सठीक बनाता है। कला के संबंध में भी यही बात कही जा सकती है। बहु कर्तृत्व से लोक साहित्य निखरता है। बार बार परिवर्तन से संवर्धन से लोक साहित्य नित्य नया बन जाता है। सौंदर्य शास्त्र के मूल सूत्रों के अनुसार नित्य बदलने वाला साहित्य अन्य रूपों से अत्यधिक सुंदर बनने की पूरी संभावना होती है। इस दृष्टि से भी लोक साहित्य की कलात्मकता उच्च स्तर पर ही होने की पूरी संभावना होती है।
1. लोक साहित्य की कलात्मकता :
लोक साहित्य की कलात्मकता के संदर्भ में दो बातों पर विचार करने की आवश्यकता होती है। लोक संप्रेषण और लोक ग्रहण भी लोक साहित्य की कलात्मकता को प्रभावित करते हैं। लोक संप्रेषण का मतलब लोक साहित्य की संप्रेषणीयता है। लोक साहित्य का पाठकों तक पहुंचाने की कला है। लोक साहित्य के पाठक एक नहीं बल्कि सभी है। पंडित पामर, शिक्षित-अशिक्षित, बजे बूढे, स्त्री-पुरुष सभी से लोक साहित्य संबंध जोडता है। सभी तक वह पहुंचने की शक्ति लोक साहित्य में होती है। लोक- साहित्य-लेखक उसे उसी रूप में निर्माण करता है। लोक मानस के लिए यथासंभव अनुकूल ही लोक साहित्य निर्मित होता है। लोक मानस को जानना और उस के अनुकूल लोक साहित्य को ढालना ही लोक साहित्य की कला है। लोक-लेखक इस में निपुण होता है। लोक मानस के अनुकूल कला के साथ लोक लेखक लोक साहित्य का निर्माण करता है। इस संदर्भ में एक और बात का उल्लेख किया जा सकता है। लोक साहित्य पाठकों की बुद्धि से अधिक हृदय से संबंध रखता है। क्यों कि लोक साहित्य का सहज गुण भावुकता है। भावुकता लोक साहित्य का हृदय ग्राह्य बना डालती है। लोक-लेखक इस रहस्य को अच्छी तरह जानता है। लोक मानस की इस भावुकता के अनुकूल ही लोक साहित्य का सृजन करता है। लोक मानस के अनुकूल कला ही इस में उपयोग करता है। इस के लिए आवश्यक पात्र, प्रसंग, रस, छंद, अलंकार, समास कलात्मक साधनों का उपयोग करता है। इसलिए लोक साहित्य की कला बाकी साहित्य के अन्य रूपों से विशिष्ट बन जाती है। लोक साहित्य इसलिए भी लोक जनता के अतिनिकट पहुंचने में तथा लोक मानस को स्पंदित करने में अधिक सफल हो जाता है। यानी लोक साहित्य की संप्रेषणीयता के लिए लोक कलाओं का प्रयोग लोक लेखक करता है।
लोक साहित्य की कलात्मकता के संदर्भ में दूसरा विचारणीय मुद्दा लोक ग्राह्य है। साहित्य व कलात्मक ग्रहण वैयक्तिक गुण है। अपने स्वभाव और विचारों के अनुकूल ही कोई ग्रहण होता है। स्वभाव और विचारों की अनुकूलता ग्रहण के लिए मूलाधार होने पर सौंदर्य और कला के संदर्भ में भी वे ही गुण काम करते हैं। इसलिए सौंदर्य बोध वस्तु सापेक्ष होने के साथ साथ व्यक्ति सापेक्ष भी माना जाता है। लोक साहित्य की कला और सौंदर्य तभी पाठकों के द्वारा गृह्य होता है। जब वह पाठक- अनुकूल होता है। पाठकों के स्वभाव और विचारों के अनुकूल होता है। लोक साहित्य में व्यंजित भाव और विचार पाठकों के अनुकूल होने पर ही वे गृह्य बन सकते हैं। वह भी पाठकों के सौंदर्य बोध के अनुकूल होने पर ही उन का सरल-सायास ग्रहण संभव होता है। गृह्य अनुकूल बनाने में ही लोक-लेखक की कला की परीक्षा होती है। पाठक की रुचि और ग्राह्य-रुचि के अनुकूल निर्मित होने पर लोक-लेखक की कला की सार्थकता होती है। लोक लेखक की इस कला में पात्र प्रसंग, संवाद, रम, छंद, अलंकारादि सभी शामिल है। लोक-लेखक यह अंदाजा लगाता है कि लोक मानस की मांग क्या है? लोक मानस किससे अधिक स्पंदित होता है। किस प्रसंग से, किस प्रकार के पात्र से, किस प्रकार की अभिव्यक्ति से लोक मानस आकृष्ट होता है? इसी के अनुकूल सृजन होने पर ही लोक-पाठक उसे ग्रहण करता है। लोक कलात्मकता से संबंधित यह वैशिष्ट्य आंध्र के लोक साहित्य के संदर्भ में स्वीकार कर लिया जा सकता है। आंध्र में अन्य भारतीय भाषा साहित्यों की तरह लोक साहित्य अति प्राचीन है। फिर उस में राम कथाश्रित लोक साहित्य अत्यधिक प्राचीन है। शायद इस लिए कि पाठकों में स्पंदन पैदा करने के प्रसंग और पात्र राम कथा में अधिक है। अन्य पौराणिक कथाओं में कम है। इसलिए राम कथा ही आंध्र के लोक साहित्य में अधिक व्यंजित हुई है।
2. लोक कलात्मकता और आंध्र के लोक-रामायण :
लोक मानस को भानेवाले प्रसंग और पात्र रामायण में अधिक हैं। इसलिए आंध्र के लोक साहित्य में लोक रामायण या राम कथा से संबंध रखनेवाले प्रसंग और पात्र लोकमानस में अधिक प्रचलित है। बड़ी संख्या में इस प्रकार के लोक रामायण तेलुगु में प्राप्त होते हैं। स्वर्गीय पंडित श्री कृष्ण श्री ने 'स्त्रील रामायणपु पाटलु' शीर्षक से बडी संख्या में लोक रामायणों का संग्रह कार्य किया है। प्रकाशित ग्रंथ के रूप में यह उपलब्ध होता है। जन जन में प्रचलित ऐसे रामायण और उपलब्ध होने की पूरी संभावना है। तेलुगु लोक साहित्य के पितामह माने जानेवाले आचार्य बिरुदु राजु राम राजु ने भी कम से कम ऐसे पचास रामायणों का उल्लेख किया है। उन में से कुछ के नाम इस प्रकार हैं। कृचु कोड रामायण, शारद रामायण, श्रीमद्रामायण, धर्मपुरि रामायण, रामकथाः सुदार्णवम्, मोक्षगुंड रामायण, सूक्ष्म रामायण, संक्षेप रामायण, गुत्तेन दीदि रामायण, आध्यात्म रामायण, चिट्टि रामायण, श्री राम दंडमुलु, रामायण गोवि पाठ, श्री राम जाविलि, अडिवि शांत पेंडिल, सेतु गोविंद नाम आदि इस दृष्टि से उल्लेखनीय हैं।
कथा वस्तु की दृष्टि से इन लोक रामायणों के तीन वर्ग बन जाते हैं। पहले वर्ग के लोक रामायण वे हैं, जिन में राम कथा संपूर्ण रूप से वर्णित है। दूसरे वर्ग के अंतर्गत वे आते हैं, जिनमें राम कथा के किसी एक मुख्य प्रसंग को लेकर बनाया गया है। तीसरे वर्ग के अंतर्गत वे आते हैं, जिन में सीता पात्र को प्रमुख केंद्र बनाकर राम कथा कही गयी है। ऐसे रामायणों में प्रमुखतः सीता के जीवन के विविध कष्टों का वर्णन ही किया गया है। इन तीनों प्रकार के लोक रामायण आंध्र के कोने कोने में गूंजते सुनाई पड़ते हैं। उपर्युक्त उल्लेखित सभी रामायण प्रथम वर्ग के हैं। यानी इन रामायणों में राम कथा पूर्ण रूप से वर्णित है। राम कथा के कुछ मुख्य प्रसंगों को लेकर गाये जानेवाले लोक रामायणों के दूसरे वर्ग में रामुलवारि अलुक, रामुनि उग्गु पाट, शांता कल्याणमु, पुत्रकामेष्टि, कौसल्य देवि, राघव कल्याणमु, सुंदरकांड पदमु, सुग्रीव विजयम, कोवेल रामभारमु, अंगद राय भारमु, लंकायागमु, लक्ष्मण मूर्छा, गुह भरत अग्नि प्रवेश, लक्ष्मण देवर तब्बु, ऊर्मिला देवी निद्रा, कुशलबल युद्धम्, कुशलव कुबुल कथा, पाताल होममु आदि उल्लेखनीय है। सीता पात्र को केंद्र में रखकर रचे गए तीसरे वर्ग के लोक रामायणों में सीता वसंतमु, सीता वामन गुंटलु, सीम्मवारि अलुक, सीत पुट्टूक, सीता कल्याणम्, सीतनु अत्तवारिटिकि पंपुट, सीत समर्त, सीता शुभगोष्टि, सीता गडिया, सीता सुरिटि, सीता आनवालु, सीता अग्निप्रवेश आदि उल्लेखनीय हैं। आंध्र के लोक रामायणों में से कुछ का ही उल्लेख यहाँ समय और संदर्भ के अनुसार वह भी संग्रहकार्य की अनुकूलता को देखते हुए प्रस्तुत किए गए हैं। इन से बढ़कर और भी लोक रामायण आंध्र में प्राप्त हो सकते हैं।
उपर्युक्त सभी लोक रामायण जीवन के विविध प्रसंगों में विविध कार्य-व्यापार करते हुए स्त्री पुरुष गाते ज्ञानंद का अनुभव करने के साथ साथ श्रमपरिहरण करते दिखाई पहते हैं। इन की दृष्टि में ये लोक रामायण उन के जीवन का संगीत है। उन के जीवन का विधान है। राम सीता को वे उसी रूप में देखते है। खेतों में विविध काम करते हुए, बलिहानों में धान संग्रह करते हुए, घरेलू सभी काम करते हुए एकांत में तथा सामूहिक रूप से ये गीत गाये जाते हैं। इन लोक रामायणों में कथा सूत्र तो होता ही साथ ही विविध संदर्भों के लघु गीतों के रूप में इन को गाते देख सकते हैं। धान कूटते हुए, आटा पीसते हुए, घर लेपते हुए, घर में बुहार करते हुए, घर पर चुना लगाते हुए, झोपडी बनाते हुए, एक क्या जीवन के सभी कार्यों में इन गीतों को ही आधार बनाकर लोक मानस इन से रस के साथ साथ काम धंधे करते दिखाई देते हैं।
उदाहरण के लिए घर में आटा पीसते हुए चक्की के सामने बैठकर गाने वाले एक चक्की-गीत को देख सकते हैं। दो स्त्रियों आमने सामने बैठकर चक्की चलाते हुए जनक के घर में सीता के विवाह की तैयारी संबंधी गीत गा रही है-
मुत्याल रतनाल मुत्तैदुलारा
इंटिलो चेसेरु एमि एमि पनुले
गोधुमलु इसिरेस गोड बूसेरु
पंदिलु वेसेरु पसुपुर्वचेरु
जनकुल इंट्लो सीतम्मा पेंडिल पनुलम्मा
ननि ननि रूप नयनाल मेरुपू
वारि चूपुलतोन वाकीट निलपी
भामनडगोति वारलेवरम्मा
सीत नडगोजिन सिरिमंतुलेवरू
कमसल्य तनयुले काकुञ्च कुलमे
साकेत रामुले शांत तम्मले
अर्थात ओ सुहागिनें जनक महाराज के घर में सीता के विवाह की तैयारी के क्या क्या काम कर रही हैं। गेहूं पीस रही हैं, दीवारों पर चूना लगा रही है, घर के आंगन में छाया बना रही है, हल्दी पीस रही है। वे कौन है? काले काले चमकनेवाले नेत्रों से दरवाजे के पास आकर हमारी लड़की के बारे में पूछनेवाले कौन हैं? शायद कौसल्या के बेटे होंगे, इक्ष्वाक वंशाग्रज होंगे, साकेत के राजा राम होंगे, शांता के भाई होंगे।
इस रूप में चकी के सामने बैठकर स्त्रियाँ चक्की गीत गाती श्रमहरण भी करती हैं। खेत में काम करते समय गाये जानेवाले एक और गीत इस संदर्भ में परखा जा सकता है। खेत में मेथ निकालते हुए खेत में काम करनेवाले कृषक 'लक्ष्मण मूर्छा' प्रसंग से संबंधित गीत गा रहे हैं-
मूर्चिति तम्मुनि मूर्चिति तम्मुनि
मुंदरेसुकोनि मुनिगे दुःखमुलोल लक्ष्मणा,
रामुलु मुनिगे दुःखमुलो लक्ष्मणा,
येडम येडमेगानि बेडमु येडमेगानि
येवटि केन्द्र राव तोडलयै कोल्तेवप्पा लक्ष्मणा
बोडिलो कोस्ति वप्पा लक्ष्मणा
येद्धु कोम्युलाल येडु कोम्सुलाल
इद्धुरूंटीमी मनमू बोगिण्णाइतिनष्पा
अर्थात राम रावण युद्ध में इंद्रजित के बाण से बेहोश हुए लक्ष्मण को गोद में लेकर राम विलाप कर रहे हैं। बेहोश हुए भाई लक्ष्मण को गोद में लेकर राम से रहे हैं। राम दुःख में डूब गए हैं। हमेशा अलग रहने पर भी हम कभी अलग नहीं रहे। मेरे सामने आकर कभी किसी भी चीज की शिकायत तुम नहीं करते थे। आज तुम मेरी गोद में आ गये हो। बैल के सींगों के समान हमेशा दो रहनेवाले आज मैं अकेला हो गया लक्ष्मण। इस रूप में राम भाई के युद्ध क्षेत्र में बेहोश होने से विलाप करते हैं। इस प्रकार के कई हृदय स्पर्शी प्रसंगों से संबंधित गीत लोक रामायणों में प्राप्त होते हैं।
3. आंध्र के लोक रामायणों की कलात्मकता :
लोक साहित्य को किसी भी रूप में कम हांका नहीं जा सकता है। वस्तु और कला दोनों दृष्टि से लोक साहित्य किसी से कम नहीं होता है। कला संबंधी प्रयोग भी लोक साहित्य में समृद्ध होते है। वस्तु चयन, वस्तु विन्यास और उसे प्रस्तुत करने में लोक साहित्य का सौंदर्य अनुपम एवं अद्वितीय होता है। वस्तु चयन में ही उन की अद्भुत कला का पहला परिचय हो जाता है। लोक साहित्य की वस्तु जीवन से संग्रहीत की जाती है। खासकर जीवन के ऐसे प्रसंग ही लोक कवि संग्रह करते हैं कि जिन में हृदय को स्पर्श करनेवाले प्रसंग अधिक हो। भावना के स्तर पर पाठक को बढ़ाने में अनुकूल हो। लोक रामायणों पर भी यही बात लागू होती है। जीवन के ऐसे प्रसंग ही वे लोक रामायणों केलिए चयन करते हैं। जो अधिकांश जनता को भाते हैं। लोक मानस करुणा और क्षमा गुणों को अधिक पसंद करते हैं। उन में भी अकारण ही दुःख मेलना, बिना अपराध के दंड भोगनेवाले लोगों के प्रति लोक कवियों को अधिक अनुकंपा होती है। मानव जीवन के ऐसे प्रसंगों को ही वे चुनते हैं। पौराणिक इतिवृत्तों के संदर्भ में भी वे यहीं काम करते हैं। इन दोनों गुणों से संपन्न पात्र और प्रसंगों को वे अधिक पसंद करते हैं। इसलिए राम कथा की सीता उन के लिए परम 'साई' बनी हुई है। शायद सीता ही ऐसा पात्र है जिन्होंने अपना बिना किसी अपराध के कई प्रकार की यातनाएँ झेलती है। इसलिए लोक कवि गायक अपने रामायणों की वस्तु चयन करते समय सीता से संबंधित प्रसंगों को तथा सीता पात्र को अधिक महत्व देते हैं। इस प्रकार के वस्तु चयन में ही उन की - कलात्मकता परावर्तित होती है।
लोक रामायणों की कलात्मकता का एक और लक्षण विचित्र एवं अद्भुत प्रसंगों का सृजन करना है। विचित्र एवं अद्भुत प्रसंगों को लोक मानस पसंद करता है। क्यों कि ऐसे प्रसंगों तथा पात्रों में अधिक रोचकता और उत्सुकता होती है। रोचक प्रसंग और उत्सुक घटनाओं को पसंद करनेवाली लोक जनता ऐसी कथाओं को पसंद करती है। लोक कवि गायक उन के मनोनुकूल ही ऐसी घटनाओं एवं प्रसंगों के सृजन के साथ लोक रामायणों का निर्माण करते हैं। बल्कि इस रूप में कहना अधिक उचित है कि ऐसे प्रसंग और घटनाएँ ही लोक रामायणों में बच गयी है जो अद्भुत एवं विचित्र है। जिन्हें लोक जनता पसंद करती है। बाकी प्रसंग और घटनाएँ लोक रामायणों से अदृश्य हो गयी है। यह भी लोक कवियों की कलात्मकता से संबंधित विशेषता ही है। वस्तु चयन से संबंधित इन दोनों कलात्मकता की विशेषताओं को उदाहरणों के संदर्भ में अध्ययन विश्लेषण किया जा सकता है।
प्र-प्रथम लोक कलात्मकता की अद्भुत एवं विचित्र मानसिकता की विशेषता को परखा जा सकता है। अपनी इस विशेषता के लिए लोक कवि मूल कथा में नये प्रक्षेपणों को जोड़ते हैं। प्रचलित राम कथा के अनुसार सीता अयोनिजा है। जनक महाराज को हल जोतते समय भू से प्राप्त हुई है। जनक ने बड़े लाड़ प्यार से उसे पाला और पोषा है। लोक जनता को तथा लोक कवि गायकों को इस में कोई रोचकता दिखाई नहीं दी है। इसलिए इसे अद्भुत बनाने तथा रोचक बनाने अपनी कलात्मकता को जोड़ा है। आंध्र के महाबूद नगर जिले से संग्रहीत एक लोक रामायण में सीता के जन्म से संबंधित एक विचित्र प्रसंग है। उस प्रसंग के अनुसार एक बार श्रीमूर्ति आखेट पर गए। आखेट करते करते थक गए। उन्हें आराम की जरुरत हुई। तीनों आराम करने लगे। ब्रह्म और विष्णु शीघ्र ही सो गए। लेकिन शिव को नींद नहीं आयी। उन्होंने अपने शरीर पर लगी मिट्टी और पसीने से एक स्त्री प्रतिमा बना ली। इतने में उन्हें भी नींद आ गयी। वे भी सो गए। कुछ देर के बाद विष्णु नींद से जागे। बगल में ही सुंदर निरंलकृत स्त्री प्रतिमा को देखकर उसे सुंदर ढंग से सजाया। विष्णु फिर से सो गए। बाद में ब्रह्म नींद से उठ गए। पास में रखी गयी सुंदर अलंकृत बेजान स्त्री प्रतिमा को देख कर उसमें अपनी शक्ति से प्राण डाले। वह प्रतिमा सुंदर युवती बन गयी। इतने में शिव विष्णु भी नींद से जाग गए। तीनों ने अतिलोक सौंदर्यवती उस युवती को देखा। तीनों ने उससे परिणय करना चाहा। इसे लेकर तीनों में झगड़ा हो गया। झगडे के निवारण के लिए तीनों जांबवान के पास गए। जांबवान ने बताया कि प्रतिमा बनानेवाले तथा उस में प्राण डालनेवाले दोनों माता-पिता के समान है। उसे का अलंकरण करनेवाले ही पति के समान है। इस रूप में जांबवान ने विष्णु के पक्ष में फैसला सुनाया। यह लोक मानस की अद्भुत कला है। लोक चित्त को स्वीकृत करने की अनुपम कला है। इस फैसले से ब्रह्म और शिव संतुष्ट नहीं हुए। इसलिए जॉबवान ने उस कन्या को छोटा शिशु बनाकर एक पेटी में रखकर भूदेवी के हाथों में दे दिया। भूदेवी ने उस पेटी को एक कमल में रखकर सागर के जल में छोड़ दिया। वह पेटी सागर के जल में तैरते हुए सूर्य नमस्कार करने गए जनक महाराज को वह पेटी प्राप्त हुई। संतानहीन जनक ने उस पेटी से शिशु को पाकर पाल पोषकर बड़ा किया। वह सीता के रूप में बड़ी हो गयी। लोक कवियों की यह कल्पना इस रूप में अद्भुत एवं अनुपम है। पृथ्वी से प्राप्त होनेवाली घटना से यह अधिक सार्थक और विश्वसनीय है।
ऐसी ही एक और अद्भुत एवं कलात्मक कल्पना सीता के दूसरी बार वनवास घटना से संबंधित लोक रामायणों में प्राप्त होती है। यह कल्पना शिष्ट रामायणों में प्राप्त होनेवाली कल्पना से टकर लेती है। सवाल करती है कि लोक रामायणों की यह कल्पना उन से भी बेहतर और कार्य-कारण की विवक्षा को अधिक विश्वसनीय बनाती है। बाल्मीकी रामायण और वाल्मीकी परंपरा में आनेवाले रामायणों में राम सीता को दूसरी बार बनवास उसकी अपनी इच्छा पर और अयोध्या के एक धोबी के वचनों से प्रभावित होकर भेज देते है। किंतु लोक रामायण सूनकों को यह उचित नहीं लगा है। कुछ सीमा तक सीता माई को बनवास भेजने के लिए अर्थदीन और अल्पमत्व का कारण लगा। इसलिए उन्होंने एक मौलिक कल्पना के साथ इस कथा को और बलवान करना चाहार एक अद्भुत एवं कलात्मक कल्पना से इसे पाटने की कोशिश की है। इस के लिए उन्होंने फिर से सूर्पनखा के पात्र को ढूंढ निकाला। वाल्मीकी और अन्य रामायणों में राम-लक्ष्मणों के हाथों में पराभव होने के बाद रावण से शिकायत करने के बाद सूर्पणखा का औचित्य पूरा हो जाता है। फिर कहीं भी वह दिखाई नहीं पडती है। लेकिन लोक कवि गायकों ने सीता-राम की राजतिलक के बाद फिर से एक बार उस का वर्णन किया है। राम राज्य का तथा राम और सीता के सुची जीवन का समाचार राक्षसी सूर्पनखा को प्राप्त होता है। पुत्र, पति और भाई को खोई सूर्पणखा के लिए यह समाचार बडी ईर्ष्या का कारण बनता है। इस के साथ ही उस में बदला लेने की भावना फिर से अमक उठती है। वह फिर से अयोध्या आती है। एक नौकरानी के वेश डाल कर राम से सहायता मांगने राम के दरबार में आती है। उस के वेश से तथा उस के षडयंत्र से अनभिज्ञ राम उसे राजमहल में नौकरानी के रूप में नियुक्त करते हैं। वह भी सीता के महल के लिए। सूर्पणखा इस रूप में नौकरानी बनकर सीता के पास पहुँचती है। सीता की अच्छी सेवा करके उस के मन को जीत लेती है। एक दिन वह सीता से रावण के बारे में पूछ कर उसका चित्र बनाकर देने की बात कहती है। सीता सिर्फ रावण के पैर के अंगूठे का चित्र बनाकर देती है। बाकी चित्र को सूर्पणखा स्वयं बनाती है। फिर ब्रह्म का तप करके उस चित्र में प्राण डालती है। सीता की अनुपस्थिति में उस चित्र को सीता के शयनागार में छोडती है। सीता के शयनागार में रावण का चित्र देखकर राम सीता को दूस बार बनवास भेजता है। इस रूप में सूर्पणखा राम से अपने पति पुत्र, और भाई के महार का बदला लेती है। लोक कवि गायकों की यह उद्भावक कल्पना राम कथा को संपुष्ट करनेवाली है। यह कलात्मक कल्पना आंध्र के मेदक जिले, कर्नूल एवं महबूब नगर जिलों में प्राप्त होनेवाले उत्तर राम कथा संबंधित गीतों में प्राप्त होती है। जो प्रचलित कल्पना या घटनाओं को जोड़ने की दिशा में बलवती लगती है। लोक कवि गायकों की यह कलात्मक उद्धार उन की कलात्मकता में चार चांद लगाता है।
मूल राम कथा में कलात्मक जोड करनेवाले ऐसे कई प्रसंग आंध्र के लोक रामायणों में प्राप्त होते हैं। यह कलात्मकता लोक कवि गायों की अभिव्यंजना कौशलता का प्रमाण प्रस्तुत करती है। सरल भाषा में सरल भावों को विचित्र एवं अद्भुत ढंग से व्यक्त करने की कलात्मक विशेषता लोक कवि गायकों की है। उन के इस लोक संप्रेषण के कारण ही लोक जनता में उन के गीत अनायास ही प्रचलित हो जाते हैं। एक बार के श्रवण से बार बार श्रवण करने की उत्सुकता जन मानस में पैदा होती है। लोक कवि गायकों के लोक रामायणों की यह संप्रेषणीयता ही उन की कलात्मक बड़ी उपलब्धि मानी जा सकती है। भाषा एवं भावों को अलंकृत एवं सौंदर्यमूलक बनाने में वे पंडितों की तरह कठिन मार्गो को नहीं अपनाते हैं। बल्कि अत्यंत सरल जन मध्य में आसानी से प्रचलित होने के स्वभाव से अलंकारों, रस, छंद आदि का वे प्रयोग करते हैं। इसी कारण से सरत अलंकार को लेकर उन की भाषा और भाव जन जन में समतिक प्रभाव डालते हैं। उन की यह कलात्मक निपुणता अप्रतिम एवं अनुपम ही है। उपर्युक्त कुछ उदाहरणों के माध्यम से ही इस बात की पुष्टि हो जाती है। राम और अपने भाई लक्ष्मण के जिस उपमा का प्रयोग किया है ('एद्ध कोम्मुलु लागा', यानी बैल के सींगों की तरह दो ही थे) वह अनुपम और अद्वितीय है। बैल के दो ही सींग होते हैं। राम ने लक्ष्मण के साथ अपने अद्वितीय संबंध को जताने के लिए कृषकों एवं साधारण जनता में अतिप्रचलित बैल के सींगों का उदाहरण चुनकर अपने लोक स्वभाव का परिचय दिया है। ऐसे अनेक लोक जीवन से संबंधित कलात्मक उद्गार लोक रामायणों में प्राप्त होते हैं। इस रूप में आंध्र के लोक रामायण कला के स्तर पर उच्च स्तरीय ठहरते हैं। ऐसे उदाहरणों के कारण लोक रामायणों में स्थानीय संस्कृति का परावर्तन हो जाता है। जितने सारे कलात्मक उद्गार लोक रामायणों में प्राप्त होते हैं, वे सभी लोक जीवन से ही संग्रहीत हैं। इस कारण से स्थानीय संस्कृति उन के माध्यम से राम कथा प्रक्षेपित हो जाती है। अतः आंध्र के लोक रामायणों के अध्ययन विश्लेषण से आंध्रों की संस्कृति का अनुशीलन भी अनायास ही संपन्न होता है।
- आई.एन. चंद्रशेखर रेड्डी
ये भी पढ़ें;
✓Life Lessons from Ramayana: आंध्र तथा हिंदी साहित्यों में रामायण और जीवन मूल्य
✓ Tradition of Ramakavya and Loknayak Tulsi: रामकाव्य की परंपरा व लोकनायक तुलसी