गणपति के मूषक, व्यंग्य की पौध और परिक्रमा में इंदौर : बी.एल. आच्छा

Dr. Mulla Adam Ali
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रोचक, प्रेरक और समय प्रवाह को समेटे दिलचस्प आत्मलेख

रोचक, प्रेरक और समय प्रवाह को समेटे दिलचस्प आत्मलेख

गणपति के मूषक, व्यंग्य की पौध और परिक्रमा में इंदौर

बी. एल. आच्छा

        राजस्थान से पहली बार इन्दौर आया। सो भी मध्यप्रदेश लोकसेवा आयोग में साक्षात्कार के लिए। नलियाबाखल में अपने कस्बाई मित्र के यहाँ रुका। लड्डू और फैनी की प्रसिद्ध दुकान वाला घर। रात को हृष्टपुष्ट मूषकों को कूदते- फाँदते देखा तो नींद उचट गयी। पर 'निर्विघ्नं कुरु मे देव' के बहाने सो गया। साक्षात्कार ने प्रदेश ही बदलवा दिया और फिर बयालीस साल से अधिक प्राध्यापकी सो भी पूरे मालवा के अलग- अलग इलाकों की रस-गंध लिए। गणेश जी के समृद्ध मूषकों ने चयन सूची में मेरा नाम रहने दिया और बाद में तो आयोग के वास्तु से रिश्ता बना रहा।

     पर व्यंग्य और अधबीच? संयोग से आकाशवाणी में उ‌द्घोषक और बाद में विधान सभा के सचिव अशोक चतुर्वेदी ने मुझे आकाशवाणी के लिए प्रेरित किया। तब तक मेरे अकादमिक आलेख ही सरस्वती की कृपा में थे। बुला तो लिया। मगर वीरेन मुंशी ने बड़ा कडक सवाल कर दिया- "आच्छाजी, आकाशवाणी किन लोगों के लिए है?" मैंने कहा-"जनता के लिए, यह तो मास मीडिया है।" वे बोले- "फिर आपका आलेख तो..?" थोड़ा रुककर बोले-"पहली बार यह स्वीकार है। मगर अब व्यंग्य,कहानी,ललित निबंध जैसी रचनाएँ भेजेंगे, तो ही स्वीकार्य होंगी।" पूरे डेढ़ सौ रुपए मिले थे। उन दिनों वेतन कम और पारिवारिक दायित्व भरे- पूरे। सोचा कि साल के चार हुए तो हर महीने के आखिर के पाँच दिन तो सध जाएँगे। अर्थ ने लोभ दिखाया। सरस्वती ने व्यंग्य के नुकीले बाँस का स्फोट किया।

        पर उन दिनों नई दुनिया का क्रेज उच्चतम सूचकांक की तरह था। पत्र भी छप जाए तो पांचवे आसमान पर । पर बड़नगर में रहते गीतकार कवि प्रदीप जी से साक्षात्कार लिया। नई दुनिया में छप गया, तो बल्ले-बल्ले। संयोग से एक सवाल के उत्तर में प्रदीप जी ने कहा -"मैंने भैंसें भी चराई हैं। लकड़ियां भी फाड़ी हैं।मैं इंदौर से बड़नगर पैदल भी आया हूं।" मुझे उज्जैन में एक ज्योतिषी ने कहा था कि अब आप मासेज (जन समुदाय) में जाएँगे। मैं तो कक्षा के भूगोल में सीमित था।पर बड़नगर तो है ही चुलबुला, लोकप्रियता वहाँ उत्सव रचाती है। व्यंग्य की पौध इन्दौर आकाशवाणी में लगी। पर नई दुनिया के अधबीच में आना कंचनजंघा फतह करने जैसा था। ढाई साल चिट्ठियाँ लौटती रहीं। एक दिन गुलाबी स्याही के पोस्टकार्ड में यशवन्त व्यास का लिखा आया-' 'अक्ल और चरित्र का छत्तीसा'व्यंग्य स्वीकृत है,इसे अन्यत्र न भेजें। "मेरा होमोग्लोबीन अपडेट हो गया।

       आकाशवाणी में प्रभु जोशी ,संदीप श्रोत्रिय ही नहीं सभी अधिकारियों से संवाद होता था।कभी कक्ष में तो कभी कैन्टीन में। मध्यप्रदेश में रहते हुए आकाशवाणी और अधबीच एक ही राशि का वास्तु बन गये। आगर में भाषण देने गया तो एक एक मैडम ने बोल ही दिया- "सर, जैसे व्यापारी नई दुनिया के भाव-ताव को सबसे पहले देखते हैं, वैसे ही हम 'अधबीच ' को। कल ही आपका व्यंग्य पढ़ा-'प्याज की अमीरी रेखा।' एक लेखक को और क्या चाहिए। फिर तो 'खुला खाता' भी नई दुनिया के बड़े क्षेत्रफल में पसरता रहा। कभी कभी तो पूरी साइज के दो कॉलम में। पर आज प्रतियोगिता होती है, पुराने वेस्पा स्कूटर की तरह नंबर नहीं लगता।

      पर बिना इन्दौर की परिक्रमा के कुछ सधता नहीं।कोई व्यापार लिए, कोई खरीद के लिए, कोई स्वाद के चटखारों के लिए। अलग बात है कि ये प्रसंग लेखन,अध्यापन विश्वविद्यालय या मूल्यांकन कार्य के लिए ज्यादा रहे‌।पर बड़नगर में पाठक अधबीच में कमेन्ट किये बगैर नहीं रहता था। एक अधबीच छपा-'जूते चोरी चले गये'। एक दुकानदार ने रस्ते चलते कमेन्ट किया-""गुरुजी, ये नई चप्पल किस मंदिर से बदलकर पहन लिए हैं।" समीक्षा क्या इससे अधिक दिलचस्प होती होगी? यह साहित्यिक रिश्ता कभी किसी महाविद्यालय में व्याख्यान और व्यंग्य से बना। कभी 'वीणा 'में प्रकाशित आलेखों से। विश्वविद्यालय या मूल्यांकन के दौरान संवादों में। पर मालवा में जहां कहीं जाना हुआ तो अधबीच और आकाशवाणी की लिखित और वाचिक शब्दावली ने जगह बनवा दी।

     शब्द की सत्ता और उत्सवी अनुराग के लिए इन्दौर' शब्दगंधी तरंगों का शहर है। मामला जबान का है तो व्यंग्य के चटखारे भी कम मसालेदार नहीं होते। जिन‌को असल चटरखारों की दरकार है, वे सराफा और छत्तीस दुकानों के कायल हैं। पर सच कहूं कि मित्र के साथ शाजापुर में कचौरी खा रहा था।साथी प्राध्यापक ने कहा कि बहुत स्वादिष्ट है। मैंने कहा-" गरम बहुत है, इसे पेपर में दबा लो। तेल निकल जाएगा और कचौरी ठंडी भी हो जाएगी।" उन्होंने वैसा ही किया। पर तभी मेरी नजर पेपर पर पड़ी। पुराने अखबार में मेरा अधबीच छपा था। मैंने कहा- " यह कचौरी व्यंग्य और असल मसालों के कारण ज्यादा ही स्वादिष्ट लग रही है।"

    अब आठ बरस हो गये चेन्नई में। पर इंदौर में आयोजित "गक्खड़़ सम्मान" की याद बनी हुई है। सेवानिवृत्ति के समय जितना स्नेहिल आयोजन शासकीय माधव विज्ञान महाविद्यालय , उज्जैन में डॉ मोहन यादव के आतिथ्य में मिला,उतना ही इंदौर में "गक्खड़ सम्मान " के समय।

     इंदौर की परिक्रमा तो जारी है। नई दुनिया और वीणा में निरंतर लेखन भूगोल की दूरी को पाटता रहा।और उसका प्रसाद भी मिल ही गया। श्री मध्यभारत हिन्दी साहित्य सभा से "शताब्दी सम्मान "निश्चय ही मेरे जीवन का सर्वोच्च सूचकांक बन गया। समिति के बाहर लगे फ्लैक्स में बड़ा सा फोटो।सो भी कथाकार चित्रा मुद्गल जी के साथ। काफी समय तक लगा रहा। एक बहूरानी का वाट्सएप चित्र आया संदेश के साथ - "काका साहब ,आर एन टी पर जाते हुए आपके फोटो पर नजर पड़ी तो कार घुमा कर लाए फिर से।" यों मित्रों ने भी देखा तो संदेश मिले।पाठकीय रिश्तों की तरलता और महक अनूठी होती है।

      उल्लेख तो 'क्षितिज' साहित्य संस्था का जरूरी है। मुझे पहला "लघुकथा समालोचना" सम्मान दिया गया। साक्षात्कार भी छपे। लघुकथा समीक्षा पर काफी काम प्रकाशित हुआ। आज जब लगभग दो हजार किलो मीटर दूर चेन्नई में हूँ, तब भी मालवा- इन्दौर की परिक्रमा के कारण लोग यही कहते हैं-आप तो मालवा में खूब रमे हैं। इन्दौर अपनी सादी जबान में मुखर नहीं होता।"धांसू और चकाचक" इंदौर की चरपरी नुकीली जबान पर मुखर हैं। कुछ अर्सा बीत जाए तो सूना-सन्नाटा तोड़ने के लिए इंदौर सहित मालवा की परिक्रमा रिचार्ज का एहसास करवा देती है।

- बी. एल. आच्छा

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