Rahiman Heera Ab Kahe Laakh Taka Mera Mol : Hindi Vyangya by B. L. Achha Ji
रहिमन हीरा अब कहे लाख टका मेरो मोल
बी. एल. आच्छा
जमाना किस कदर बदला है। कभी रहीम ने कहा था- "रहिमन हीरा कब कहै लाख टका मेरो मोल।" पर इस जमाने में खुद हीरे को ठोक बजाकर कहना पड़ रहा है-" लाख टका मेरो - मोल।" अब चीजे ही नहीं आदमी को भी बिकने के लिए बाजार चाहिए। कभी फिल्में आती थीं, तो ढोल-नगाड़ों के साथ प्रचार होता था मारधाड़ से भरपूर महान् सामाजिक फिल्म...। अब फिल्में - कितने ही बड़े बजट की बनें, प्रोमोशन माँगती हैं। हीरो-हिरोइन शहर-शहर भागते हैं। प्रदर्शन से बॉक्स ऑफिस पर हिट होना माँगते हैं। अपनी हरकतों- कलाओं से अखबारों में बाजार खड़ा करना चाहते हैं। अपनी मुद्राओं ठुमकों से दर्शकों पर वशीकरण मन्त्र फेंकते हैं। अटपटे बयानों से सुर्खियाँ बनाना चाहते हैं। संवादों में तन्नाटपन, शब्दों की दबंगई, अदाओं की लुभावन मादकता के मसाले बनकर दर्शकों को सिनेमा खिड़की की ओर धकेलते हैं। अखबार, चैनल सबसे सम्मोहन पैदा करना चाहते हैं। हीरो-हिरोइन अपने किरदार की खूबसूरत अंदाजेबयानी करते हैं। तब जाकर 'हीरा' दर्शकों में कभी लट्टूपन पैदा कर पाये तो....।
यों भी आदमी अब विजिटिंग कार्ड से दिखता है। दोनों हाथों से कॉलर उठाकर पर्सनेलिटी का डंका बजाता है। चमचमाती कारों से लोगों के माथे पर टन्न से बजना चाहता है। अब 'आत्मा' के जुमले बीते जमाने की वेद वाणी है। 'आत्मा' है ,तो वजनदार होकर पैंदे में ही पड़ा रहेगा। पर बिना 'आत्मा' के वह फैशनेबल कपड़ों की आक्रामकता से देखने वालों के बीच उतरेगा, तो पानी की सतह पर तिरते तेल की तरह साफ-साफ दिखाई पड़ेगा। कभी आत्माएँ बिन कपड़े के लोगों के दिलों में तैरती थीं, अब गायब आत्मा वाले शरीरों पर कपड़े दबंगई दिखाते हैं। अपने को दिखाकर ही स्कॉलर और दूल्हा अब 'पैकेज' बन पाता है। अब तो मुद्राओं और सम्मानों से ही लेखक दिख पाता है। कल्चर का कार्पोरेट बनी उनकी पर्सनेलिटी कभी विदेशी मुद्रा की बचत की देशी आस्था को धकियाती रहती है। यों भाषणबाजी का मामला हो तो इन दिखनौटे वक्ताओं को गाँधीजी की मितव्ययिता और शास्त्रीजी की सादगी याद आ जाती है। वे सादगी को आम आदमी की जेब के हवाले कर देते हैं और लवाजमों की चमक-दमक से अपने शाहीपन को ब्राण्ड बना लेते हैं।
गली मुहल्ले में बैठे ज्योतिषी भी अब रुपहले पर्दे पर रूप बिखेरे बगैर चल नहीं पाते। उनकी वस्त्र-सज्जा उन्हें अभिनेता की तरह सजाती है। उनके गले के मणि-हार और उँगलियों में रत्नों के बूस्टर ही दर्शकों और ग्राहकों को खींच पाते हैं ।तोता-मैना' के पिंजरे से पिण्ड छुड़ाकर वे अपनी भविष्यवाणियों की तरीफों से ही यन्त्रों की 'विक्रय-सिद्धि कर पाते हैं। दरअसल क्रिकेट को जैसे 'चीयरगर्ल्स' की जरूरत होती है, फिल्मों को 'आयटम गर्ल' की जरूरत होती है, उसी तरह पर्सनेलिटी को भी दिखनौटेपन की दरकार होती है। अब लोग पुराने लोकनायकों की तरह लोगों को हथेली पर नहीं उठाते। इन दिखनौटों को लोगों की हथेलियों पर उगने के लिए अपना लाख टकापन दिखाना ही पड़ता है।
लगता है कि ये यशस्वी हीरे अपने मुंह से अपने यशस्वी गान से ही हीरे बन पाते हैं।
- बी. एल. आच्छा
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