Hindi Satire by B. L. Achha Ji
कस्बे-मोहल्ले की कवि गोष्ठी से लेकर ब्रह्मांडेशनल संगोष्ठी तक
बी. एल. आच्छा
जी कुलबुला रहा था बहुत दिनों से। कोरोना ने हर किसी को मोहल्ले से निकालकर इंटरनेशनल बना दिया। चार फोटो लगाए और लिंक दे दिया। बिना यात्रा-मेजबानी के अर्थशास्त्र के विश्व का समाजशास्त्र।
पर फिजिकल के आदी मित्र बोले- "दो महीने हो गये अपनी संस्था की कवि- गोष्ठी नहीं हुई है।"
"बात तो सही है। कोरोना भी रुख्सत हो गया।पर अब कस्बे-मोहल्ले की गोष्ठी तो ऐसी लगती है, जैसे बरगद के पेड़ के नीचे गाँव के कुछ लोग अपनी-अपनी कह-सुन रहे हों! खर्चा कौन दे? यहाँ तो लोग अपनी-अपनी सुना के खिसक जाते हैं।"
"ठीक है, कुछ ऐसा करते हैं, कि किसी पड़ोसी राज्य के अल्पख्यात कवि को बुलाकर राष्ट्रीय संगोष्ठी से अपग्रेड कर देते हैं।"
"पर खर्चा तो माँगेगा न? पहले तो आसपास के किसी अतिथि कवि को और पैसेवाले अध्यक्षीय भेरू से काम निकाल लेते थे। पर अब वे भी बोर हो जाते हैं। सामने पड़ते ही कतराकर इधर-उधर।"
"तो फिर क्या निकाल है? कवि-गोष्ठी तो सरस्वती की आराधना है।"
"बात तो सही है। पहले छोटे उद्योग की तरह, मोहल्ले की कवि गोष्ठी। फिर मध्यम उद्योग की तरह नगर की। पर अब तो मामला प्रादेशिक, राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय।"
"एक बात अच्छी हो गयी है। जैसे रुपया फिजिकल की बजाय डिजिटल हो गया है, वैसे ही आजकल बिन लागत के इंटरनेशनल मंच है। इनमें तो यूपीआई भुगतान भी नहीं चाहिए।"
"बात तो सही है। जो भी शामिल होता है, वह खुद ही इतना प्रचार करवा लेता है कि ज़ूम भी झूमने लगता है। फेसबुक भी फेशियल हो जाती है। यूट्यूब भी ट्यूब से निकली सरस्वती बन जाती है।"
"अरे वाह, जानते तो सभी हैं, पर तुमने तो कविता की तरह बखान दिया।"
"हाँ, थोड़ा सम्पर्क करें तो अपना भी क्षेत्रफल लम्बा हो जाएगा। मोहल्ला तब उड़ान देखेगा हसरत भरी निगाहों से।"
"हाँ यार, ये प्लेटफॉर्म अच्छे है। न जगह से हिलना-डुलना, न यात्रा खर्च, न तीमारदारी।वाई-फाई तो आम है।"
"तो फिर क्या विचार है?"
"विचार क्या, मैं सोचता हूँ घर से ही इंटरनेशनल संगोष्ठी कर लें। ज्यादा गरज भी नहीं करनी पड़ती। लोग अपने आप आ जाते हैं खुशी-खुशी और हर रचनाकार अपने दो चार को हवाई रस्सी से पकड़कर ले ही जाता है।"
"पर इससे श्रोताओं के मूड का पता नहीं चलता"
"क्यों नहीं चलता। संख्या दिख जाती है। लाइक्स और कमेन्ट्स गोष्ठी की धड़कन बता देते हैं। संचालक उनके कमेन्ट और श्रोताओं की आदरास्पद उपस्थिति से हिलगाए रखता है।"
'हाँ, यह तो है। देखो न, अच्छा कवि भी हर पुरानी - नयी प्रस्तुति के साथ ताली बजवा लेता है। वैसे ही जैसे कुछ लोग हथेली में तंबाकू- चूना रगड़कर काम की ऊर्जा ले आते हैं। बिन-ताली तो कवि सरकता ही नहीं है। ताली तो काव्य-चौराहे की हरी बत्ती है।"
"तो क्या कविता दमदार नहीं है, जो ताली- बजवैयाओं से ही दम भरती है।"
"अरे भाई, हम मूल थीम से भटक रहे हैं। बात तो आयोजन की है, डिजिटल इंटरनेशनल की।"
"यार, मैं भी देखते-देखते रच-बस गया हूँ। पर चाँद पर 'लैण्डर से प्रज्ञान उतरा, वैसे ही एक आइडिया दम मार रहा है।"
"अरे वह क्या?"
"मुझे लगता है कि अब इंटरनेशनल पुराना हो गया है। बीस-तीस लोग मिलकर सोशल मीडिया पर इंटरनेशनल हो जाते हैं।आठ अरब में से कुल आठ या अस्सी।पर हैं वे वैश्विक , कट्टर इंटरनेशनल।इससे कम का ओहदा, कम का नाम और काम पसन्द ही नहीं है।"
"तो इससे क्या, क्या तुम कवियों का- भी "जी- 20" चाहते हो? या कवि-ब्रिक्स या फिर फिक्स क्वॉड का मेंबर। वे ही आएँ, सुनें और कविता के प्रशांत महासागर में भावों की लहरें उठाएँ ?"
"नहीं, मेरा मतलब इसे इंटरनेशल से ब्रह्मांडेशनल बनाने का है।"
"सो कैसे ?"
"यार अब चाँद पर तो प्रज्ञान है ही। सूर्य के ऑरबिट पर यान के मशीनी घोड़े चक्कर मार रहे हैं। शुक्र और मंगल की भी तैयारी। बुध तो छोटा ही है। चन्द्रमा पर इन सभी का स्टेशन बन जाएगा। अब लैंडर हर ग्रह पर न भी उतरे,पर तकनीक का प्रज्ञान तो डेवलप होगा ही। फिर इंस्पेक्टर मातादीन को तो पहले ही चांद पर भेज रखा है। संगोष्ठी की राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय पहचान के लिए किसी एक अन्य प्रदेश -देश की जरूरत होती है।उसीतरह चंद्रमा से ब्रह्मांडेशनल। हो सकता है हमारा प्रज्ञान दूसरे ग्रहों की प्रतिध्वनियां कैच कर लें। पर एलियन बस्ती न हुई तो भी, नये प्रज्ञान- रिले की तो पूरी संभावना है।"
"अरे है तो अभी काल्पनिक, पर आइडिया अच्छा है।"
"अरे दुनिया और तकनीक कभी रुकी है क्या?"
"हांजी, इसीलिए जहाँ न पहुँचे रवि वहाँ पहुँचे कवि। ब्रह्मांडेशनल जिन्दाबाद।"
- बी. एल. आच्छा
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