Sanskriti Aur Sahitya : संस्कृति और साहित्य का रिश्ता

Dr. Mulla Adam Ali
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Sanskriti Aur Sahitya

Sanskriti Aur Sahitya

संस्कृति और साहित्य का रिश्ता

यह प्रामाणिक तौर पर कहा जा सकता है कि भारतीय संस्कृति हज़ारों वर्ष पुरानी है, इससे जीवंत और दीर्घ परंपरा का बोध होता है, ऋषियों तथा मुनियों ने इसकी परवरिश की है, यह ब्रह्मा की भाँति अवर्णनीय है और अपने गौरव व भव्यता के कारण एक स्वतंत्र अस्तित्व बनाए हुए है, जबकि विश्व की अनेक समृद्ध संस्कृतियाँ काल के प्रभाव में विनष्ट हो चुकी हैं। जैविक कोण से देखें तो संस्कृति और सभ्यता जीवन की दो भिन्न प्रेरणाओं को व्यक्त करती हैं। वैसे सभ्यता का संबंध नागरिकता से है और समाज में रहने की योग्यता का भाव भी इसमें निहित है। एक अन्य अर्थ में सभ्यता बाह्य क्रियात्मक रूप है और इसका विशुद्ध संबंध भौतिक विकास से है। लेकिन संस्कृति का संबंध मुख्यतः मनुष्य की बुद्धि, स्वभाव और मनःप्रवृत्तियों से होता है। संस्कृति विचारधारा का परिणाम भी है, तभी तो मनुष्य की भाव- धारा और संवेदना इसमें शामिल हैं। फिर अहिंसा, प्रेम, सद्भाव, दया, सत्य, परिग्रह आदि मूल्य भी संस्कृति से सीधे जुड़े हुए हैं। आचार की दृष्टि से देखें तो विभिन्न धर्मावलंबियों और समुदायों में मित्रता होते हुए भी, वे विचार और अनुभूति के धरातल पर एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। इसी कारण भारतीय संस्कृति को सामाजिक संस्कृति कहा गया है। इस संस्कृति में यहाँ के निवासियों के भाव, विचार, संस्कार, संवेदनाएँ आदि शामिल हैं।

मनोवैज्ञानिक कोण से देखें तो संस्कृति मनुष्य की मानसिकता का प्रतिनिधित्व करती है। मानव व्यवहार, शील, क्षमा, सत्यनिष्ठा, धैर्य, सहनशीलता, दया, प्रेम आदि सांस्कृतिक गुण हैं। प्रतिभा और सांस्कृतिक गुण भौतिक समृद्धि से कहीं ऊँचे हैं। मिसाल के तौर पर रामकृष्ण परमहंस, निजामुद्दीन औलिया, रामानंद, कबीर और स्वामी दयानंद के पास भौतिक सुविधाएँ एवं आर्थिक संपन्नता नहीं थी, लेकिन उनके पास अमूल्य सांस्कृतिक निधि थी। संस्कृति का जो उत्स उनके पास था, उसी की शीतल धारा में भारत की चारों दिशाएँ आप्लावित हुई। उन्होंने काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि वृत्तियों का नियमन सांस्कृतिक सूत्रों से ही किया।

गौरतलब है कि विश्व की किसी भी संस्कृति में सामासिकता नहीं है। यह गुण भारतीय संस्कृति में है और इसने विभिन्न संस्कृतियों को अपने स्वभाव में समन्वित करने में अद्भुत प्रतिभा और लचीलेपन का परिचय दिया है। भारतीय संस्कृति के प्रवाह में आर्य, अनार्य, द्रविड़, शक, हूण, यवन, पठान, तुर्क, मुग़ल, अंग्रेज़ आदि ने अपनी-अपनी उपधाराओं के जल मिलाए, फिर भी पुण्य भागीरथी की तरह इसकी मूलधारा अविच्छिन्न है। इधर इसमें पश्चिम का विराट प्रवाह भी मिला है, लेकिन भारतीय संस्कृति महासागर है, संसार की तमाम संस्कृतियाँ इसमें समाहित हो गई हैं। इसका निजत्व, स्वभाव, मौलिक रंग, प्रेरक तत्त्व और उदारवादिता में कोई कमी नहीं आई है। आश्चर्य नहीं कि पश्चिम के कई देश भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों की ओर लौट रहे हैं। पहाड़ों, हाथियों और साँपों का प्रदेश समझने वाले ये अतिविकसित देश अपनी सांस्कृतिक रुग्णता के इलाज के लिए आज भारतीय संस्कृति को अपना वैद्य माने हुए हैं।

इसमें भी दो राय नहीं कि भारतीय संस्कृति प्रारंभ से ही प्रगतिशील रही है, यह असाम्प्रदायिक है, इसमें ममत्व और अखिल भारतीय भावना है। आचार्य शंकर ने भारत के चार कोनों पर चार पीठों की जो स्थापना की, उसके पीछे भी यही भावना थी। इसी भावना के वशीभूत होकर अयोध्या के राम रामेश्वरम में शिव की उपासना करते हैं। भारतीय संस्कृति का यह समन्वित रूप संस्कृत भाषा के माध्यम से रामायण, महाभारत, गीता, कालिदास, भवभूति, भास आदि के काव्यों और नाटकों के ज़रिए बार-बार व्यक्त हुआ है। प्रसिद्ध जर्मन कवि गेटे ने 'अभिज्ञान शाकुन्तलम' को पढ़कर उल्लसित मनोभाव से कहा था, 'इस नाटक में स्वर्ग और धरा का उदात्त सम्मिलन है।' बिना शक यह कथन समूची भारतीय संस्कृति ओर साहित्य की श्रेष्ठता की ओर संकेत है। फिर साहित्य भी तो सत्य के साथ शिव और सौन्दर्य का समन्वय करता है। कहना न होगा कि भारतीय सांस्कृतिक स्थिति का परिमार्जन और सौष्ठवयुक्त रूप में संस्कृत, प्राकृत एवं हिन्दी साहित्य के माध्यम से भी प्राप्त होता है। आध्यात्मिक मूल्य, मानव मूल्य, सांस्कृतिक मूल्य, मानव प्रेम, उच्चतम सत्य का अस्तित्व, धर्म, कर्तव्य और शील सूर, तुलसी, जायसी, मीरा आदि के काव्य में चरमोत्कर्ष पर है। बुद्ध, शंकर, भारतेन्दु, गाँधी और निराला ने सांस्कृतिक धरातल पर समाज को विशेष दिशा में गति प्रदान की।

साहित्य, संस्कृति का सुरक्षा कवच होता है और संस्कृति के विकास, प्रचार व प्रसार में अपनी सशक्त भूमिका निभाता है। सांस्कृतिक मूल्यों से परहेज़ करने वाली तथा अनैतिकता का स्वागत करने वाली कृतियों को समय की बरसात में घुलने में देर नहीं लगती। अकविता के नाम पर नैतिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों की अनदेखी करके नारी भूगोल के निकष पर रचित कविताएँ श्रेष्ठ काव्य साहित्य का दर्जा प्राप्त नही कर सकीं। अकविता के कवि विशेष के जागरूक मन में विचार की जो वैयक्तिक प्रक्रिया चली, वही रचना-प्रक्रिया बनी रही। यहाँ विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि साहित्य द्वारा विचारों का समाजीकरण होता है, उदात्तीकरण होता है और एक सीमा के बाद इनका वैश्वीकरण भी होता है।

यह भी सच है कि विचार जगत में नेतृत्व करने वाले मनीषियों की व्यक्ति चेतना समाज द्वारा स्वीकृत होकर समाज चेतना बन जाती है और वह आगे चलकर सामाजिक संस्कृति को रूप देती है। फिर, अनेक सामाजिक संस्कृतियों के योग से सामासिक संस्कृति का स्वरूप सामने आता है। इसका प्रमाण सरहपा, स्वयंभू, पुष्पदंत, अब्दुल रहमान, मुल्ला दाऊद, विद्यापति चंदबरदाई, जगनिक, अमीर खुसरों आदि की साहित्यिक रचनाओं में अनायास मिल जाता है। यह विभिन्न संस्कृतियों के मिलन का काल था। इस दौरान संस्कृतियाँ एक-दूसरे से मिली और उनके बीच सह- अस्तित्व की स्थिति बनी। सूफी कवियों ने अपने काव्य के माध्यम से हिन्दू-मुस्लिम संस्कृतियों के समन्वय का प्रयास किया। काव्य के माध्यम से भावात्मक एकता का यह प्रयास हिन्दी भक्ति साहित्य की सबसे बड़ी उपलब्धि है। 'रामचरितमानस' स्वयं में एक उच्चकोटि का काव्य है। इस संबंध में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ठीक ही कहा है- 'इसमें गृहस्थ और वैराग्य का, भक्ति और ज्ञान का, भाषा और संस्कृति का, निर्गुण और सगुण का, पुराण और काव्य का, भाव और चिंतन का समन्वय है।'

आगे चलकर छायावादी कवियों ने भौतिक एवं आध्यात्मिक संस्कृतियों तथा व्यक्ति और समाज का समन्वय किया। निराला की 'राम की शक्तिपूजा' में धर्म और अधर्म के शाश्वत संघर्ष का चित्रण है, तो पंत की 'स्वर्ण किरण', 'स्वर्णधूलि', 'शिल्पी', 'लोकायतन' आदि कृतियों में भौतिकवाद और अध्यात्मवाद का समन्वय है। महादेवी की 'आँसू' में व्यक्तिगत निराशा एवं विश्व वेदना का संतुलन है तो प्रसाद की 'कामायनी' में नारी-पुरुष का, धर्म-विज्ञान का, शास्त्र-लोक का और हृदय-बुद्धि का संतुलन है। दिनकर की कविता में संवेदना और विचार का सुन्दर समन्वय है। युद्ध और त्याग तथा करुणा और यातना का समन्वित रूप सियारामशरण की 'उन्मुक्त' रचना में देखा जा सकता है। 'प्रेमी' ने अपने नाटकों में हिन्दू-मुस्लिम दोनों हृदयों को एक-दूसरे के निकट लाने का प्रयास किया है।

यदि गहराई से देखा जाए तो आधुनिक साहित्य में सामाजिक संस्कृति के सर्वाधिक तत्त्व उपन्यासों में मिलते है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के 'पुनर्नवा' उपन्यास में पुरातन और नवीन संस्कृतियों के संतुलित संबंध सूत्र चित्रित हुए हैं। भगवतीचरण वर्मा के 'प्रश्न और मरीचिका' में विभिन्न जातियों और वर्गों का समन्वय है। भीष्म साहनी के 'तमस' का चित्रफलक हिन्दू-मुस्लिम सांस्कृतिक संघर्ष है। नरेश मेहता का 'यह पथ बंधु था', यशपाल का 'मनुष्य के रूप' एवं 'झूठा सच', प्रभाकर माचवे का 'किसलिए' आदि उपन्यास खंडित सांस्कृतिक मूल्यों को जोड़ते हैं। इसी प्रकार लक्ष्मीनारायण लाल कृत उपन्यास 'श्रृंगार' में महाबलीपुरम के मधुआरों और मध्यप्रदेश के बस्तर के आदिवासियों की दो भिन्न सांस्कृतिक इकाइयों का स्वस्थ्य मिलन है। शंभुनाथ आशुतोष कृत 'आ अब लौट चलें', 'संघर्ष और सीमा', जमुनादास अख़्तर का 'कश्मीर की बेटी', श्रीलाल शुक्ल का 'राग दरबारी', शिवप्रसाद सिंह का 'अलग-अलग वैतरणी', गली आगे मुड़ती है,' मधुकर सिंह का 'सबसे बड़ा छल', अमृतलाल नागर का 'नाच्यो बहुत गोपाल', जगदंबाप्रसाद दीक्षित का 'मुरदाघर', आदि उपन्यास सांस्कृतिक जीवन के मूल्यांकन की दृष्टि से उत्कृष्ट रचनाएँ हैं।

इसके अतिरिक्त तमिल, तेलुगु, मलयालम, कन्नड़, बंगला, उड़िया, पंजाबी, गुजराती, मराठी आदि भाषाओं में रचे गए उपन्यासों में भी सामासिक संस्कृतिक के प्रखर तत्त्वों को देखा जा सकता है। डॉ. मु. वरदराजन का 'मणकुडिसै' (मिट्टी की झोंपड़ी), नील पद्मनाभन का 'तलैमुरेकल' (परंपराएँ), नानक सिंह का 'चिट्टा लहू' (सफेद खून), आदि उपन्यासों में नई और पुरानी पीढ़ी के मध्य सांस्कृतिक मूल्यों के अन्तरालों, वैचारिक संघर्ष एवं मानवीय संवेदनाओं को उच्च सीमा पर अभिव्यक्त किया गया है। इस प्रकार हम देखते हैं कि आपसी भाईचारा, सौहार्द्र, प्रेम, आत्मीयता, मानवीय संवेदन, सत्यनिष्ठा, नैतिकता, सद्भावना आदि मूल्यों के संरक्षण में साहित्य ने अनूठी भूमिका निभाई है।

जब भी पश्चिमी समाज ने हमारी सांस्कृतिक एवं धार्मिक भावनाओं पर प्रहार किया, सामासिक संस्कृति ढाल बनकर खड़ी हुई और साहित्य ने भी तनकर और जमकर मोर्चाबंदी की। मनुष्य है तो विचार है, विचार हे तो साहित्य है और साहित्य है तो सांस्कृतिक मूल्य सुरक्षित हैं। यही संरक्षण विसंरचना में से भी संरचना- निर्माण के सूत्र खोज लेता है।

- डॉ. अमरसिंह वधान

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