Social exploitation in Yashpal's novels
यशपाल के उपन्यासों में सामाजिक शोषण
हिन्दी कथा साहित्य में प्रेमचन्द, प्रसाद आदि के बाद राहुल सांस्कृत्यायन, अश्क, रांगेय राघव, नागार्जुन और समकालीन कथाकारों में जो सबसे अधिक चर्चित नाम है, वह यशपाल का है। यशपाल ने बहुत लिखा है। उपन्यास, कहानियाँ, संस्मरण समीक्षा आदि। कथावस्तु, पात्रों तथा घटनाओं के लिए यशपाल को प्रयास करना नहीं पडा। उनकी 1946 तक की अपनी ही जीवन घटनाओं से ही साहित्य के लिए पर्याप्त सामग्री एकत्रित कर ली और इन्हीं घटनाओं को कथाकार ने अपनी लेखनी की तीक्ष्ण-धार से अपने रंग में रंग कर चित्रित करना आरंभ कर दिया।
यशपाल के लेखन के सम्बन्ध में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि उन्होंने अपने ही अनुभवों को अपने उपन्यासों की पृष्ठभूमि बनाया। प्रायः देश विदेश में जितने भी उच्चकोटि के साहित्यकार हैं क्या उन्होंने केवल लेखन के लिए लेखन किया है? नहीं। गोर्की, तालस्ताय, प्रेमचन्द और शरतचन्द्र जैसे उपन्यासकारों ने देश की दुर्व्यवस्था को देखा, भोगा तथा उसको अभिव्यक्ति देने के लिए उनकी लेखनी चल पडी। लेखन को अपने जीवन का अभिन्न अंग मानकर वे उसमें एकाकार हो गए। उन्होंने डूब कर लिखा। आज वे ही मूर्धन्य उपन्यासकार के पद पर प्रतिष्ठित हैं और उनकी कृतियाँ ही विश्व साहित्य की अमर कृतियाँ है।
यशपाल ठोस और वास्तविक साहित्य को, जो समाज और देश के लिए हितकर हो, वरीयता देते हैं। आप की सम्पूर्ण रचनाएँ सप्रयोजन हैं। "कला कला के लिए" अथवा "स्वान्तः सुखाय" लिखने वाली बात में उन्हें विश्वास नहीं है। अपने उपन्यास दादा कामरेड की भूमिका में ऐसे विचारों को प्रकट करते हुए उन्होंने लिखा है; "मेरे विचार में कला का उद्देश्य जीवन में पूर्णता की प्राप्ति है।''¹ इस तरह उनके विचार में समाज की अनुभूति और आदर्श ही साहित्य की आधार- शिला होना चाहिए। लेखक के विषय में यशपाल का कथन है "लेखक के लिए समाज के अस्तित्व से स्वतंत्र कोई कल्पना कर सकना सम्भव नहीं। उसकी कला या प्रयत्न का आधार समाज की अनुभतियाँ, आकाक्षाएँ और आदर्श होते हैं। हमारी अनुभूति हमारे अनुभवों का सार होती है और हमारे आदर्श हमारी संवारी हुई कल्पनाएँ हैं।"² परन्तु आप केवल आदर्श को ही साहित्य का प्राण नहीं मानते बल्कि यथार्थ का साहित्य में होना आवश्यक मानते हैं। यशपाल के अनुसार "यथार्थ से खिन्न होकर हम आदर्श की ओर बढ़ना चाहते हैं। यथार्थ के अरुचिकर भीभत्स सत्य की नग्नता को प्रकट कर उससे मुक्ति की इच्छा की उत्कट और दुर्दमनीय बनाना आवश्यक होता है। हमारी अवस्था का नग्न रूप अतृप्त शिष्णोदर का चीत्कार भी है। वह श्रेणी - संघर्ष और राष्ट्रों के संघर्ष के रूप में भी प्रकट होता है। वह जघन्य है, परन्तु वह हमारी अपनी सामाजिक स्थिति की वास्तविकता है" इस तरह यशपाल का साहित्य ठोस यथार्थ के धरातल पर खडा है। यशपाल के साहित्य में युग की प्रतिछाया मिलना स्वाभाविक है। रामदरश मिश्र के शब्दों में - "उपन्यास आज के साहित्य की सबसे अधिक प्रिय और सशक्त विधा है। कारण यह है कि उपन्यास में मनोरञ्जन का तत्व तो अधिक रहता ही है, साथ ही साथ, जीवन को उसकी बहुमुखी छवि के साथ व्यक्त करने की शक्ति और अवकाश होता है।"³
यशपाल के अनुसार "उपन्यास से मेरा अभिप्राय समाज की विचारधारा और विचार धारा के आधार में तारतम्य को प्रकट करना है। उपन्यास में जिन घटनाओं की हम कल्पना करते हैं, वे स्थान और परिवर्तन से प्रायः घटती रहती हैं। हम विचारों को समाज का शाश्वत बंधन न मान बैठें बल्कि सामाजिक जीवन में इस सत्य को अनुभव करें कि हमारा अपना जीवन ही हमारे विचारों को जन्म देता है। हमारी विचारधारा हमारे जीवन का परिणाम है।"⁴
किसी भी कहानीकार या उपन्यासकार की सफलता इस तथ्य में है कि उसका पाठक उसकी कृति से तादात्म्य स्थापित कर ले और उसे वह काल्पनिक न लगकर वास्तविक लगे। यशपाल को इसमें सिद्धि प्राप्त है।
यशपाल समाज में शोषक एवं शोषित के बीच की गहरी खाई को पाट देने के लिए प्रयत्नशील दिखाई देते हैं। उसकेलिए मज़दूरों में क्रांति ला कर उनको जागरुक बनाने के लिए प्रयत्नशील हैं। यशपाल के रूप में 'दादाकामरेड' का पात्र हरीश, जिसको दल का अनुशासन भंग करने के अपराध में गोली मार देने का विचार किया गया था, दल से अलग होकर पुराने मित्र अख्तर (जो रेल्वे में खलासी है, मज़दूर है, शोषित हैं) के यहाँ चला जाता है और वहाँ अपने मन में सोचता है, "मज़दूरों की इस विशाल शक्ति के जो आकाश में गरजने वाली बिजली की तरह दुर्दमनीय है, कैसे संगठन के तार द्वारा क्रांति के उपयोग में लाया जा सकता है।"
भारत का मजदूर जो दिन-रात मेहनत करता है, पेट की ज्वाला तक शान्त नहीं कर पाता और न ही अपना तन ढ़क पाता है। इससे अधिक और क्या दुर्भाग्य होगा। इसी सबका चित्रण 'दादा कामरेड' और 'देशद्रोही' में मिलता है।
जैसे-जैसे समाज का विकास हुआ, मानव उन्नति करने लगा वैसे-वैसे श्रेणियाँ और वर्ग बनने लगे। समाज वगर्गों में विभक्त होने का प्रमुख कारण आर्थिक वैषम्य । यह आर्थिक वैषम्यता इतनी अधिक बढ़ती जा रही है कि एक ओर वैभव और दूसरी ओर दारिद्र्य; एक ओर गल्लों का ढेर और दूसरी और भूख एवं क्षुधा से व्रसित हजारों प्राणी; एक ओर कपडों की मिलें और दूसरी ओर सर्दी से ठिठुरता प्राणी हैं। यह वास्तव में एक आश्चर्यजनक विरोधाभास है। इन सबका बहुत स्वाभाविक और यथार्थवादी चित्रण यशपाल ने किया है। वह इन सब विरोधाभासों को मिटाकर सब लोगों की समान स्वतन्त्रता और उन्नति में विश्वास करते हैं लेकिन इसके लिए हमें व्यक्तिगत संग्रह और मुनाफा खोरों की वृत्ति को समाज हित की वेदी पर समर्पित करना पड़ेगा। इस तरह समाज व्यवस्था जन साधारण के लिए अहितकर नहीं वरन सहयोगी सिद्ध होगी।
यशपाल समाज में ऐसी क्रांति लाना चाहते हैं कि जिससे सर्वहारा वर्ग में जागृति लाकर उनको अपने अधिकारों के प्रति सचेत करे और शोषण के विरुद्ध आवाज उठाने में सहायक हो, जैसा कि आप के इस मत से स्पष्ट होता है "क्रांतिकारियों का विश्वास है कि देश की जनता की मुक्ति केवल जनता और विदेशी सरकार में सशक्त संघर्ष नहीं है, हमारी क्रांति का लक्ष्य एक नवीन न्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था है। इस क्रांति का उद्देश्य विदेशी पूंजीवाद को समाप्त करके श्रेणीहीन समाज की स्थापना करना और विदेशी-देशी शोषण से जनता को मुक्त करके आत्म-निर्णय द्वारा जीवन का अवसर देना है। इसका उपाय शोषकों के हाथ से शासन शक्ति को लेकर मजदूर श्रेणी के शासन की स्थापना ही है।"⁵
वर्तमान पूंजीवाद समाज में अर्थ के आधार पर क्या कुछ सम्भव नहीं? दो वर्गों में संघर्ष को ही यशपाल ने अपने उपन्यासों में दिखाया है। कार्लमार्क्स से प्रभावित भी 'दादाकामरेड' में हरीश के माध्यम से मजदूर संघठन और मजदूर क्रांति पर बल देते हैं। इन्हीं विचारों की प्रसंगानुकूल लेखक ने 'दादा कामरेड' में प्रतिपादित करने का प्रयास किया है। भारतीय मजूदर के परिवार, घर तथा उसकी स्थिति का बहुत ही सजीव और यथार्थ चित्र चित्रित किया है एवं साथ ही शोषण करनेवाले वर्ग का भी नकाब उतारकर उसका वास्तविक भयावह रूप सामने ला दिया है। यशपाल के अनुसार जब तक मजदूरों या श्रमिक वर्ग की आर्थिक स्थिति और कठिनाईयों एवं भोजन और कपडे की समस्या का समाधान नहीं होता, तब तक राजनैतिक चेतना और उनकी स्थिति में सुधार होना असम्भव है। 'दादा कामरेड' के हरीश के शब्दों में - "मजदूरों और दूसरे परिश्रम करनेवाले लोगों के आर्थिक सुधार का प्रश्न अवश्य उठाया जाए परन्तु उसके सामने मुख्य प्रश्न रखा जाय राष्ट्रीय उद्देश्य से संगठन का। उसी के जरिये से अपनी माँगे उठाये । काँग्रेस के संगठन द्वारा ही उसकी लडाई लडी जाये। उनका कहना था कि राजनैतिक शक्ति प्राप्त करके ही हम दलित और शोषित वर्ग की कठिनाईयों को दूर कर सकते हैं।"⁶
गम्भीरता से विचार करने से ज्ञात होगा कि बेचारा मजदूर अपनी असहाय अवस्था में अपने श्रम को बेचने जाता है ताकि पेटभर अन्न प्राप्त कर सके, पर पूँजीपति मजदूर की मेहनत में से इतना अधिक हड़प जाना चाहता है कि मजदूर का जीवन ही दुर्भर हो जाता है। समाज में बेकारों की समस्या इतनी अधिक है कि पूँजीपति मजदूर की मजदूरी को जितना चाहे गिरा सकता है और इस तरह अपनी धुन शक्ति दिन-दूनी रात चौगुनी करता जाता है। मजदूर केवल इतना पाता है कि जितना उसके शरीर में प्राण रखने के लिए नितान्त आवश्यक हो और वह प्रतिदिन अपेक्षाकृत असहाय होता चला जाता है। ऐसी अवस्था में मजदूर संगठित होकर मिलों के सामने धरना, सत्याग्रह करते हैं तब पूंजीपति अपने को ईमानदार और देशभक्त कहलाने की लालसा रखकर सफाई देता है कि देश की गरीब जनता को सस्ता माल पहुँचाने के लिए सस्ती मजदूरी की आवश्यकता है। यशपाल 'देशद्रोही' उपन्यास में पूँजीपतियों की इस दुतरफा चाल को कितनी खूबी से चित्रित करते हैं, 'सेठजी बोले, मजदूरों की माँग क्या है? यह तो मजदूर सभा की शरारत है। मजदूर सभा और नये मजदूर नेताओं से पहले मजदूरों की माँगे कहाँ थी? मजदूर सभा तो मिलों की, मालिक बन जाना चाहती है? हम मिलें इन्हें कैसे सौंप दे? मिलें तो पत्तीदार जनता की सम्पत्ति हैं। हम लोग तो जनता की धरोहर सम्भाले हैं। मजदूर तीन आना रूपया मजदूरी बढ़ाने को कहते हैं? आप जानते हैं कि बाजार में भाव गिर रहा है? जापान 6 पैसे गज कपडा दे रहा है? इस समय देशी व्यापार रक्षा के लिए बाजार में सस्ता कपडा देना जरुरी है। कपडा बनाने की मजदूरी बढ़ाने से कपडे दाम बढ़ेगा या नहीं? क्या देश के गरीब महँगा कपडा खरीद सकते हैं? हमें किसानों का भी तो ख्याल रखना है, वे बेचारे क्या करेंगे। आधा देश तो नंगा पडा है। महँगा कपडा वे कैसे खरीदेंगे? क्या कपास के दाम घटाएँ जाएँ । मजदूरों सो तो अपना स्वार्थ ही दिखाई देता है।''⁷
उच्चवर्ग अथवा धार्मिक वर्ग, अपनी धन की गरिमा की मान प्रतिष्ठा के मद में, अहंकारी होकर उच्छृंकल हो रहा है। उसको अपनी श्रेणी के सम्मान का इतना ध्यान रहता है कि छोटी-छोटी बातों पर भी सोचता है कि कहीं इससे सम्मान और प्रतिष्ठा को धक्का तो नहीं लगेगा। इसका उदाहरण 'मनुष्य के रूप' की मनोरमा के वक्तव्य प्रतिबिंबित होता है। मनोरमा शिक्षित होकर निष्क्रिय बैठने की अपेक्षा स्कूल में काम करना चाहती है, पर उसका बैरिस्टर भाई उसे अपनी शान के विरुद्ध समझ कर विरोध करता है। तब मनोरमा उत्तर देती है - "यह आपकी श्रेणी का अहंकार है, पढ़ाकर जीविका कमाना तो लज्जा का काम नही।" बैरिस्टर के निम्नोक्त कथन में उसका अहं द्रष्टव्य है, "श्रेणी है तो उसके प्रभाव भी हैं। इस महिला कालेज से तुम साल में 1800 तनख्वाह पाओगी। लालाजी उसे 5000 वार्षिक सहायता देते हैं। यह परिहास नहीं तो क्या है? तुम अपने पिता के आत्म सम्मान पर चोट करके अपना आत्म सम्मान बनाना चाहती हो।"⁸ इसी प्रकार के प्रसंग 'दादा कामरेड' में लाला ध्यानचन्द, 'देशद्रोही' में राजाराम 'पार्टी कामरेड' में भावरिया और नौसरिया, 'झूठासच' में मि. अगरवाल, प्रसाद, अवस्थी आदि के माध्यम से आते हैं। 'मनुष्य के रूप' का निम्नोक्त उदाहरण दृष्टव्य है - मनोरमा के सुतलीवाला से सिविल विवाह पर यशपाल धनिक वर्ग के ऊपर कितना व्यंग कसते हैं, "पन्द्रह मिनट में और पन्द्रह रुपये में लखपती की लडकी का विवाह हो गया, इससे बडा अपमान सम्मानित हिन्दू के लिए क्या हो सकता था। दहेज कुछ नहीं था केवल मनोरमा के सामान के आठ बक्से थे।"⁹
शोषक वर्ग, निम्नवर्गीय मानवों के हृदय को, हृदय न समझ कर उसके साथ पशुवत व्यवहार करके मर्मान्तर पीडा पहुँचाते हैं, मानो समाज में उनका कोई अस्तित्व नहीं। यशपाल 'कामरेड' भूषण के माध्यम से इस भावना की तुलनात्मक शब्दों में कितनी सुन्दर अभिव्यक्ति करते हैं, "समाज में जो अच्छा है वह सब छीन कर तुम लोगों के भद्र समाज की रचना करनी है। जैसे कश्मीर या कुल्लु के किसी सेबों के बाग के सब वृक्षों से फलों में रूप, रस और गन्ध के तत्व किसी क्रिया से खींच कर दस पाँच गमलों में पौधे सजा लिए गए हो। शेष बाग निस्सार होकर, सड कर जलकर विरुप निशक्त और निष्प्रभ हो जाए। भद्र श्रेणी के सम्पन्न गमलों में सजा हुआ, सहृदयता से महकता हुआ आपका समाज अपने आप में चाहे कितना सन्तुष्ट हो परन्तु समाज के लिए वह असह्य अन्याय है।"¹⁰ इस कथन से स्पष्ट है कि उच्च वर्ग समाज की व्यवस्था में कितना बडा अवरोध है।
यशपाल की निम्न वर्ग की मर्मान्तक वेदना व उनके कष्टों को हृदय में संजोए हुए है क्योंकि अपने फरारी जीवन में इस वर्ग के बीच रह कर भी अनुभव प्राप्त किये हैं। अति प्राचीन काल का इतिहास उठाकर देखें तो प्रतीत होगा कि शोषक और शोषित यह दोनों वर्ग उस समय भी थे। किसी समय दास प्रथा भी रही है, जिसमें मनुष्य की अवस्था बैल और गधे से कम शोचनीय रही थी। उच्चवर्ग के लोग पालकियों पर चढ़कर विहार करते थे और दास या निम्नवर्ग के व्यक्ति घोडों की तरह पालकी अपने कंधों पर ढ़ोते थे। हमारे यहाँ अभिजात्य वर्ग की दुर्दशा नहीं हुई। कभी भी उन्हें दैनिक आवश्यकताओं के लिए सोचना नहीं पडा। कितना भी अकाल पडा हो, दैवी प्रकोप आया हो या महंगाई बढी हो, लेकिन मिल मालिकों, लखपति, पूँजीपति और सेठों की समृद्धि में कहीं कोई कमी आयी हो ऐसा नहीं लगता। दुर्दशा है तो निम्न मेहनत करनेवाले वर्ग की, जो अपना खून- पसीना एक करके उपज और पैदावार बढ़ाता तथा उच्चवर्ग की समृद्धि जुटाता है। यह वर्ग समाज के विराट रथ में घोडों और पहियों का काम करता है। वे पिस रहे थे, पिसंते रहे हैं, शायद पिसते रहेंगे। वही भूखे, नंगे बे घरबार हैं। मैथिली शरण गुप्त ने लिखा था -
"श्वानों को मिलता दूध वस्त्र, भूखे बालक अकुलाते हैं।
माँ की हड्डी से चिपक ठिठुर, जाडे की रात बिताते हैं।"
सबसे बडी विडम्बना कृषक वर्ग की है जो सब कुछ उत्पन्न करके भी दीन-हीन और पराश्रित है। यशपाल ने भी कहा है "समाज की शिकारी श्रेणी के हाथ में वह बिना पंख का पक्षी है।"¹¹ अभिजात वर्ग के द्वारा आज की तरह या आज से कहीं अधिक निम्न वर्ग का शोषण हो रहा था। दास प्रथा होने के कारण मनुष्य पशुओं की तरह क्रय विक्रय होता था और उनके साथ पाशविक व्यवहार किया जाता था, जिसको सुन और पढ़कर भारतीय संस्कृति के लिए सिर शर्म से झुक जाता है। क्या यही भारतीय संस्कृति थी ? स्त्रियों की दुर्दशा, पुरुषों के द्वारा शोषण आदि सामाजिक समस्याओं को यशपाल ने अपने साहित्य का मूलाधार बनाया है।
शोषक वर्ग किस तरह अपने अहंकार और झूठे सम्मान को बनाये रखने के लिए प्रयास करते हैं, इसका चित्रण 'दिव्या' में विष्णु शर्मा के माध्यम से कराया है। फलस्वरूप किस प्रकार इन दोनों वर्गों में संघर्ष होता है, इसका चित्रण भी लेखक ने सफलता पूर्वक किया है। जब दिव्या पृथुसेन का सत्कार अर्घ्य से करती है तो विष्णु शर्मा के इस कथन में अहंकार की बू देखिए "दास सारथी पुत्र का तुमने अर्घ्य से सत्कार किया? तुम अपने पितृव्य प्रबुद्ध शर्मा की भांति समदर्शी तथागत की शिष्या होने योग्य हो।"¹²
प्रबुद्ध शर्मा को यशपाल नयी पीढ़ी के प्रतीक के रूप में लगते हैं, जो इन वर्ग-संघर्षो को मिटा देना चाहते हैं। इस पीढ़ी के अनुसार मनुष्य का जाती और कुल के आधार पर नहीं, योग्यता के अनुसार मूल्य आंका जाना चाहिए। प्रबुद्ध शर्मा कहते हैं, "यदि शूद्र दास भी द्विज के समान अधिकार पा सकता है तो द्विजत्व क्या है? क्या ब्राह्मण के मन्त्र और क्षत्रिय के शस्त्र की शक्ति शूद्र की सेवा के लिए है।"¹³
इस प्रकार यह वर्ण अपने उच्चकुल के अभिमान में कितना शोषण करता था। आखिर यह वर्ण व्यवस्था क्यों हो ? वर्ण व्यवस्था का निर्माण तो समाज के संगठन और समृद्धि के लिए, विभिन्न व्यवसायों को बाँट कर, कुशल संचालन के लिए हुआ था, न कि शोषण के लिए, यशपाल के उपन्यासों की कथावस्तु का सम्बन्ध शोषित जनता से है, इसीलिए आपके सामाजिक उपन्यासों में दरिद्रता के अभिशाप से उत्पीडित जनता का करुण चीत्कार और हाहाकार सुनाई देता है।
यशपाल के पात्र इसी विचार धारा का प्रतिनिधित्व करते हैं। धन के अभिशाप से अभिशप्त समाज से वह लडने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील और संघर्षरत हैं। अभाव, उत्पीडन, दमन और सीमाएँ अपनी श्रृंखलाओं में उन्हें नहीं बाँध पाती। इसका सबसे बडा कारण यह कि यशपाल अपने देश एवं समाज की विकासोन्मुख शक्तिओं तथा तीव्रगति से परिवर्तनशील परिस्थितियों को पहुँचाने में सफल सिद्ध हुए हैं। वे समाज के विशिष्ट दोष या दुर्गुण को लेकर ही उसका रहस्योद्घाटन नहीं करते। उनकी दृष्टि समाज के दोषों को पहचानने में समर्थ है। दासता, सामाजिक विषमताएँ आर्थिक बन्धन असंगतियाँ तथा असमानताएँ उनका ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर लेती हैं। अभावों और विषमताओं से पीडित मानव समाज के ये जाने-पहचाने व्यक्ति उनके पात्र बन गये हैं। उनके पात्र हमारे दैनिक जीवन में आने वाले व्यक्तियों से भिन्न नहीं हैं। यशपाल का विश्वास अभीष्ट मानव द्वारा मानव के शोषण की समाप्ति में है।
- डी. विद्याधर
संदर्भ;
1. दादा कामरेड - दो शब्द - पृ. 5
2. देशद्रोही - पृ. 5
3. रामदरश मिश्र - हिन्दी उपन्यास : एक अंतर्यात्रा - पृ. 17
4. प्रतीक (जनवरी 1951) पृ. 21 यशपाल
5. यशपाल, सशस्त्र क्रांति की कहानी, भाग 3 - पृ. 269
6. दादा कामरेड - पृ. 123
7. यशपाल - देशद्रोही - पृ. 72
8. यशपाल - मनुष्य के रूप - पृ. 162
9. यशपाल - मनुष्य के रूप - पृ. 169
10. यशपाल - मनुष्य के रूप - पृ. 76
11. यशपाल - मनुष्य के रूप - पृ. 41
12. यशपाल - दिव्या - पृ. 24
13. यशपाल - दिव्या - पृ. 26
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