Andhere Mein Aankh : Ashok Bhatiya Ki Laghukathayen
निम्न मध्यमवर्गीय यथार्थ : अंधेरे में आँख
पुस्तक का नाम -अंधेरे में आँख
लेखक- अशोक भाटिया
प्रकाशक-हिंदी साहित्य निकेतन बिजनौर (उत्तरप्रदेश)
प्रकाशन वर्ष - 2020
मूल्य -₹150
- बी. एल. आच्छा
अशोक भाटिया हिन्दी के चर्चित लघुकथाकार हैं। लघुकथा के स्वरूप, इतिहास और प्रयोगशीलता पर उनकी कुछ पुस्तकें इस विधा के शास्त्रीय विमर्श को केन्द्रीय बनाती हैं। कतिपय संकलनों में विदेशी लघुकथाओं को समाहित इस विधा के वैश्विक स्वरूप को दिखाने की कोशिश भी हुई है। 'अँधेरे में आँख' संकलन की लघुकथाएँ अपने समय की सामाजिक दरारों, आर्थिक विषमताओं और विभेदक मानसिकता को मुखर करती हैं। निम्न-मध्यमवर्गीय समाज की पीड़ाओं, रुढि-बद्धताओं और अंधविश्वासों के विरुद्ध प्रतिकार इनका मूल स्वर है। नारी अस्मिता के कई अक्स इन रचनाओं में उभरकर आये हैं, जो विशेषत: निम्नवर्गीय नारी चरित्र की बेबाक अभिव्यक्ति बने हैं। अधिकतर लघुकथाओं में निम्न-मध्यमवर्गीय समाज के आर्थिक-सामाजिक पहलुओं में एक समय - सजग लोकतांत्रिक सोच इस यथार्थ से टकराता है।
सामाजिक स्तरभेद और स्वच्छता -अस्वच्छता के जातीय मनोविज्ञान को व्यंजित करती लघुकथा 'कपों की कहानी' प्रतीकात्मक व्यंजना करती है। 'क्रैक और साबुत ' कप सफाई कामगारों और उच्च समाज के स्तर भेद पर मार करते हैं। उच्चवर्ग में इन भेदक संस्कारों के विरुद्ध प्रायश्चित का भाव बदलाव का सूचक है। 'भूख' में रेल के डिब्बे के यात्री का उदार सोच एक भिखारी को कितना तृप्त कर देता है-" आज तक मुझे इतना किसी ने नहीं दिया है।" 'पहचान', 'समय की जंजीरें' जातिवाद पर प्रहार करते हुए समता के धरातल को रचती हैं। 'तीसरा चित्र 'मार्मिक है। उच्चवर्गीय चरित्रों की रचना में अनेकवर्णी सारे गीले रंग खप जाते हैं, पर निम्नवर्गीय के लिए पेन्सिल रंग ही बचे रहते हैं।
नारी- स्वातंत्र्य और उसके अक्सों को सामने लाती लघुकथाएँ यथार्थ ,तर्क और बदलते समय के मुखर स्वर रचती हैं। 'स्त्री कुछ नहीं करती' लघुकथा की स्त्री भोर से रात्रि तक परिवार के लिए निरंतर क्रियावन्त ही रहती है। पर घरेलू श्रम का कोई आर्थिक-सामाजिक मूल्य कहाँ होता है? घर के लिए समर्पित भावनाओं वे रसायनों से पगी नारी का यह चरित्र प्रभावी है। 'बराबरी' लघुकथा की शालू परंपरा को धता बताकर सामाजिक-पारंपरिक ढाँचों- सांचों को प्रश्नांकित करती है। सास- बहू के रिश्तों की दरारों में राज करती पुरुष सत्ता पर अंगुली उठाती हुई इस बद्ध धारणा पर प्रहार करती है- "नारी ही नारी की दुश्मन है।" 'भीतर का सच 'लघुकथा में तो मर्दशैली पर नारी-शैली का यह वैज्ञानिक तर्क झिंझोड़ देता है-"औरत के पास तो एक्स गुण ही होते हैं। मर्द के पास एक्स और वाई दोनों ?अगर मैं कहूँ कि आपसे एक्स गुण आये ही नहीं तो?" औरत को बांझपन के लिए कोसते समाज पर यह विज्ञानसम्मत तार्किक प्रकार है।
अशोक भाटिया घटनाओं और स्थूल परिदृश्यों के बजाए उनके कन्ट्रास्ट और मानवीय संवेदन का नरेटिव बुनते है। इसीलिए ये रचनाएँ भावान्तर के लिए प्रतिबद्ध लगती हैं। 'मोह' लघुकथा में माँ का पोते- पोतियों के कल्पित भविष्य के लिए कोमल राग हो, या 'आत्मालाप' में वृद्धावस्था के एकाकीपन को तोड़ने की सामाजिक जिजीविषा । 'श्राद्ध 'में कर्मकांड के खर्च की अपेक्षा जीवित व्यक्ति को बचाने की तड़प पीढ़ियों का द्वंद्व बनकर 'जीवित'को प्राथमिकता देता है। 'फैसला' में दांपत्यकी समरसता और एकसाथ रहने की चाह के लिए नौकरी का त्याग। सहकार, स्वांतत्र्य, पारिवारिक जटिलता, विद्रोह, निर्णय की क्षमता, बेलाग मुखरता जैसे कई अक्स निम्नवर्गीय और रुढ़िबद्ध सामाजिकता के बीच से उभरकर आए हैं। लेखक ने इन पात्रों के मनोभावों को भी बखूबी सिरजा है, इसीलिए वे विमर्श बने हैं।
आर्थिक-सामाजिक-धार्मिक या जातीय विवशताओं के तंतुजाल में उलझे कुछ नारी चरित्र निश्चय ही प्रभावी है। 'बेपर्दा' लघुकथा की नजमा बेबाकी से कहती है-"ये फतवे पुराने हो चुके हैं। मेरा क्या दिल नहीं, कोई तमन्ना नहीं, जो तुम...।" और वह खुद ही निर्णय करती है - 'जहन्नुम में तो अब मैं भी नहीं रहना चाहती।" "छुट्टी' लघुकथा में कामवाली बाई कहती हैं-"काम हम तुम्हारे लिए नहीं, खुद को जिन्दा रखने के लिए करते हैं।"
व्यक्ति और समाज के बीच की फाँक को रचती लघुकथा' रंग' प्रभावी है। होली के परिदृश्य में अफसर का अहमीलापन बेरंग और मातहत कर्मचारी रस-रंग में डूबे हुए। पर आर्थिक विवशताओं में छोटे से घर में माँ - बाप और बच्चों के बीच दांपत्य रोमान्स का यौन भाव अनचाही रुलाई के रो-मांस में कसमसाता है। कतिपय लघुकथाएं मालिक- मजदूरों के लाभ और शोषण का गणित, लुटता हुआ बचपन, अंधविश्वासों पर चोट, हक के लिए किसानी संघर्ष, राजनीति की विभेदक मनोवृत्ति जैसे विषयों पर केन्द्रित हैं।
ऐसा भी नहीं है कि हर लघुकथा ऐसे ही सचेत विन्यास और भावनात्मक संवेगों का अंतरंग प्रतिफलित है। कुछ लघुकथाओं में लेखक का वैचारिक माइंड सैट रचाव का अंतरंग बनकर आता है।तब प्रतिबद्धता की प्रतिध्वनि लघुकथाओं का संदेश बनकर आती है। कुछ लघुकथाएँ इस प्रतिबद्धता से लेखकीय प्रवेश का हिस्सा बन जाती है।' विवाद- संवाद', 'यह वह समय था :चार कथाएँ',' रास्ते',' सपना और सच' जैसी लघुकथाएँ इसी प्रतिबद्धता की शिकार है ,जो रचनाओं में वैचारिक माइंडसैट का भावनात्मक हिस्सा बनने में शिल्प कौशल की न्यूनता प्रकट करती हैं। 'हुकूमत' यदि लंबे कालखंड के कारण असर नहीं छोड़ पाती तो 'पेड़' लघुकथा सांकेतिकता में अमूर्तन का शिकार बनी है।पर प्रयोगशीलता और वैचारिक संस्पर्श के तालमेल के अभाव के बावजूद लेखक की मनोभूमि का परिचय देती हैं।
अशोक भाटिया की लघुकथाओं का दायरा बहुत व्यापक और वैविध्यपूर्ण है।आक्रोश और विद्रोह, पारंपरिक जड़ता और टकराहट, वर्गीय विषमताओं का कंट्रास्ट, जातीय व्यवहारों धड़कन इन रचनाओं का स्वर बन जाते है। कहीं कहीं हरियाणवी आँचलिकता भी है, पर उनकी सामाजिकी के क्षेत्रीय परिदृश्य अनुपस्थित हैं। कई लघुकथाओं में लेखकीय प्रवेश कथाओं की सहज गति के बजाए उन्हें लक्ष्यधर्मी बना देता है। बौद्धिक तार्किकता और मनोवृत्तियों का विन्यास पात्रों को जीवन्त बनाता है। कुछ लघुकथाएँ वर्णनात्मकता और अमूर्तता की शिकार हैं। पर संवादीपन, दृश्यपरकता और कथा में नाटकीय यति-गति अधिकतर लघुकथाओं को प्रभावी बनाती हैं। ये लघुकथाएँ सज्जायक तत्वों के बजाय अनुभव की उर्वरता और शिल्प की चालक शक्ति के कारण जीवन्त हैं।
बी. एल. आच्छा
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