4 December Hindi Haiku Diwas : Dr. Satya Bhushan Verma Birth Anniversary
हिंदी हाइकु दिवस
- राजेन्द्र वर्मा
हिदी हाइकुकार और हाइकुप्रेमी 4 दिसम्बर को ‘हिदी हाइकु दिवस’ मनाते हैं। यह दिन प्रो. सत्यभूषण वर्मा का जन्मदिन है। आज वे नहीं हैं, पर अपने जीवनकाल (4 दिसम्बर 1932 - 13 जनवरी 2005) में उन्होंने हिंदी में जापानी काव्यविधा, हाइकु को स्थापित करने और उसके प्रचार-प्रसार का महत्त्वपूर्ण कार्य किया। वे जे.एन.यू. दिल्ली में जापानी भाषा के पहले प्रोफेसर थे। वे हिंदी, अंग्रेज़ी, चीनी, जापानी, बांगला, और उड़िया भाषाओं के जानकार थे। उन्हें जापानी कविताओं का सीधे हिंदी में अनुवाद करने का भी श्रेय है। उससे पूर्व जापानी कविताओं का अनुवाद अग्रेज़ी के माध्यम से होता था। उन्होंने ‘भारतीय हाइकु क्लब’ की स्थापना की और फ़रवरी 1978 से अगस्त 1986 तक ‘हाइकु’ नामक पत्र प्रकाशित किया, जिससे हिंदी ही नहीं, अन्य भारतीय भाषाओं में हाइकु सृजित करने का वातावरण बना। हाइकु विधा के उन्नयन हेतु उन्होंने निम्नलिखित दो पुस्तकों की रचना भी की— (1) जापानी कविताएँ, और (2) जापानी हाइकु और आधुनिक हिंदी कविता।
हाइकु का जन्म यों तो 14वीं शताब्दी में हो चुका था, लेकिन 17 वीं शताब्दी में मात्सुओ बाशो (1644-1694) को इस विधा को समृद्ध करने और लोकप्रिय बनाने का श्रेय है। उस समय यह रेंगा शैली में ताँका के रूप में कई कवियों द्वारा कविता रची जाती थी। पहले एक कवि 5-7-5 के स्वर घटकों में कोई काव्य-रचना करता था, फिर दूसरा कवि 7-7 के घटको में उसे आगे बढ़ाता था। तदंतर, फिर 5-7-5 और 7-7 के क्रम में रचना बढ़ती जाती थी जो प्रायः सौ पंक्तियों तक पहुँचती थी। बाशो ने रेंगा पद्धति की काव्य-रचना में से प्रथम 5-7-5 के रूप प्रयुक्त रचना को अलग किया और उसे स्वतंत्र रचना माना। उस समय इसे होक्कु या हाईकाई कहा गया। बाशो के बाद इस विधा को समृद्ध करने और उसे विश्व-व्यापक बनाने में जिन तीन जापानी कवियों का योगदान रहा, वे हैं—
(१) योसा बुसोन (1716-1784),
(२) कोबायाशी इसा (1763-1827) और
(३) मसाओका शिकि (1867-1902)।
बुसोन ने बाशो के काम को आगे बढ़ाते हुए हाइकु कविता को आधुनिकतावाद से जोड़ा। उन्होंने खुद तीन हज़ार से अधिक हाइकु लिखे। हाइकु के प्रचार-प्रसार के लिए दो स्कूल शुरू किए। हाइकु की व्यापकता के लिए उनका आग्रह था कि बोलचाल की भाषा से नए मुहावरे गढ़े जाने चाहिए।
इस्सा ने जीवन की समस्याओं को हाइकुओं में समेटा। इनका जीवन ग़रीबी में बीता और विमाता से कष्टमय जीवन मिला। अपने 35 वर्ष के जीवनकाल में उन्होंने हाइकु के लिलिए वहुत काम किया। उसे यथार्थवादी बनाते हुए आम आदमी से जोड़ा।
शिकि ने हाइकु के विकास और दुनिया भर में उसके प्रचार हेतु बहुत काम किया। उनका सबसे बड़ा योगदान यह है कि उन्होंने होक्कु को ‘हाइकु’ नाम दिया। उस समय हाइकुओं में कृत्रिमता बहुत थी। उन पर आस्था की गहरी छाया थी। अपनी रचनाओं में गलत रूढियों और आस्थाओं का विरोध किया और बुसोन की स्थापनाओं को आगे बढ़ाया। उन्होंने हाइकु-कविता की आधुनिक विषयों का समावेश कर उसे विश्वव्यापक बनाया। जापान के इन पुराधाओं के एक-एक हाइकु (अज्ञेय द्वारा अनूदित) का आनंद लीजिए—
जलते सूर्य को
सागर में डुबो रही
मोगामी नदी। - बासो
उगता चाँद--
डूबता सूरज बीच झील में
पीली सरसों फूली। - बुसोन
यह संसार--
नरक की छत से देखना
फूलों की बहार। - इस्सा
चाँद एक गोला
अनगिनत तारे
नीला आकाश। - शिकि
हाइकु कविता क्या है और हिंदी में हाइकु कैसे लिखे जाएँ, इन बातों को उन्होंने बहुत सरल ढंग से समझाया।उनके अनुसार, “5-7-5 वर्णक्रम में 17 अक्षरी शिल्प-विधान और ऋतुबोधक शब्द हाइकु के दो प्रमुख और अनिवार्य लक्षण हैं। हाइकु का प्रकृति के साथ अविछिन्न सम्बन्ध है, परन्तु हाइकु प्रकृति-काव्य नहीं है। वह मानवीय संवेदनाओं और दृश्य जगत की सौन्दर्यबोधजनित गहन अनुभूति की सहज अभिव्यक्ति की अतुकांत कविता है।”
हाइकु की गुणवत्ता के बारे में वे बाशो के कथन को दुहराते है, “बाशो ने कहा है, ‘जिसने जीवन में तीन से पाँच हाइकु रच डाले, वह हाइकु कवि है। जिसने दस हाइकुओं की रचना कर डाली, वह महाकवि है।” आशय स्पष्ट है कि हाइकु की रचना कोई साधारण रचना नहीं है कि उसे बाएँ हाथ का खेल समझ लिया जाए।
हाइकु की रचना वास्तव में शब्द-साधना है। डॉ. वर्मा ने हाइकु के मर्म को समझा है। उनका मानना था कि हाइकु में एक भी शब्द व्यर्थ नहीं होना चाहिए। प्रत्येक शब्द अपने क्रम में विशेष अर्थ देते हुए एक समन्वित प्रभाव उत्पन्न करे और हाइकु के अंत तक पहुँचते-पहुँचते एक बिम्ब सजीव हो उठे। अर्थात—
1. कोई शब्द व्यर्थ न प्रयुक्त हो।
2. वह अपने क्रम में विशिष्ट अर्थ दे।
3. सारे शब्द मिलकर एक प्रभाव उत्पन्न करें, और
4. कम-से-कम एक बिम्ब (दृश्य) निर्मित करें।
उपर्युक्त के परिप्रेक्ष्य में, विविध विषयों पर हिंदी के कुछ हाइकु देखिए—
(१) खिले कमल
जलाशय ने खोले
सहस्र नेत्र। - रमाकांत श्रीवास्तव
(२) लाल गुलाल
पूरी देह पे लगा
हँसे पलाश। - डॉ. सुधा गुप्ता
(३) उकडूँ बैठी
शर्मशार पहाड़ी
ढूँढ़ती साड़ी। - उर्मिला कौल
(४) चुभता आह
टूटा कांच-खिलौना
बच्ची की याद। - आदित्य प्रताप सिंह
(५) बढ़ने लगी-
करेला-बेल हुई
प्यारी बिटिया। - डॉ. शैल रस्तोगी
(६) कुतर रहे
देश का संविधान
संसदी चूहे। - डॉ. भगवत शरण अग्रवाल
(७) क्यों री तितली!
तेरी रंगीन फ्राक
किसने सिली? - डॉ. मिथिलेश दीक्षित
(७) पीने लगा है
धरती का भी पानी
प्यासा सूरज। - कमलेश भट्ट कमल
(८) ये कैसा नाता?
वर्ग-फुट में बिकें
धरती माता। - पवनकुमार जैन
(८) कपास फूली—
समाधिस्थ सन्यासी
श्वेत वस्त्रों में। - स्वरचित
- राजेन्द्र वर्मा
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