Hindi Pronunciation and Orthography
हिंदी में अशुद्ध वर्तनी का बढ़ता हुआ प्रयोग
पुस्तकों, पाठ्य पुस्तकों, समाचार 'पत्र- पत्रिकाओं, चित्रों-मानचित्रों, पोस्टरों-विज्ञापन पट्टों, दूरदर्शन चैनलों-चलचित्रों आदि में बढ़ती हुई अशुद्धवर्तनी देखकर कभी-कभी गहरा विचार आता है- पूरे कुएं में भंग घुल गयी है, भला भावी पीढ़ी किस तरह सुरक्षित रहेगी।
हिन्दी वर्तनी को लेकर इतनी अधिक निश्चिन्तता क्यों? हिन्दी भाषा-भाषी क्षेत्रों का जब यह हाल है तो अहिन्दी भाषा-भाषी क्षेत्रों का तो कहना ही क्या? हिन्दी भी इस अशुद्ध वर्तनी सम्बंधी दुर्दशा को देखकर अर्थशास्त्र का एक नियम स्मरण हो आता है, जिसे 'ग्रशम्स ला' (गेशम का नियम) कहते हैं। ग्रेशम के अनुसार बुरी मुद्रा अच्छी मुद्रा को चलन से बाहर कर देती है। वर्तमान में अशुद्धवर्तनी के बढ़ते हुए प्रयोग से लगता है कि ग्रेशम के नियम की तरह ही हिन्दी भाषा के व्यवहार में भी शुद्ध वर्तनी रूपों का स्थान अशुद्ध वर्तनी रूप लेते हुए चले जा रहे हैं तथा शुद्ध वर्तनी रूपों को वे चलन से बाहर करते हुए बढ़ रहे हैं। इसी कारण शुद्ध वर्तनी रूपों से विद्यार्थी तथा पाठक अपरिचित हैं। यहां तक कि इन्हें वे शुद्ध स्वीकारते हुए हिचकिचाते हैं।
इस प्रयोग से पाठ्य पुस्तकें भी अछूती नहीं रही हैं। पाठ्य पुस्तकें तो ज्ञान का स्रोत हैं। एक पाठ्य पुस्तक का उदाहरण भी नमूने के तौर पर आपके समक्ष है, जिसमें 'श्रृंखला' तथा 'चिन्ह' शब्द अशुद्ध वर्तनी प्रयोग हैं। शुद्ध वर्तनी रूप है-श्रृंखला (श्+ऋ=शृ/शृ) तथा ह्+न=ह्न (चिह्न)। इसी तरह श्रृंगार, श्रृंग, चिन्हित, पूर्वान्ह, मध्यान्ह, अपरान्ह, अन्ह आदि अशुद्ध वर्तनी रूप चलन में हैं, जिनका शुद्ध वर्तनी रूप-'शृंगा, श्रृंग, चिह्नित, पूर्वाह्न, मध्याह्न, अपराह्न, अह्न है। साथ ही एक पत्रिका में छपे इस शीर्ष को देखिए- 'इससे सौहार्द्रता बढ़ेगी'। यहां सौहार्द्रता वर्तनी में 'द' के स्थान पर 'द्र' लिखकर 'ता' प्रत्यय लगाना कितना अशुद्ध प्रयोग है। शुद्ध वर्तनी रूप है 'सौहार्द' जिसका आशय है 'सुहद' होने का भाव । इसी तरह 'सौजन्यता', 'सौन्दर्यता', 'कौमार्यता', 'धैर्यता', 'वैमनस्यता', 'माधुर्यता', 'ऐक्यता', 'नैपुण्यता', 'वैधव्यता', 'साम्यता', 'दारिद्रयता', 'सौख्यता' जैसे अशुद्ध वर्तनी प्रयोग आज चलन में हैं। शुद्ध वर्तनी के लिए इन्हें 'ता' प्रत्यय हटाकर लिखना होगा यथा सौजन्य या सुजनता, सौन्दर्य या सुन्दरता या सुन्दरता, कौमार्य या कुमारता, धैर्य या धीरता, वैमनस्यता, माधुर्य, (मधुरता), ऐक्य या एकता, नैपुण्य या निपुणता, वैधव्य, साम्य या समता, दारिद्रय या दरिद्रता, सौख्य आदि। 'संवैधानिक' शब्द से आप हम सभी परिचित हैं। पाठ्य पुस्तकों-पुस्तकों, पत्र- पत्रिकाओं, दूरदर्शन-समाचारों में पढ़ा-सुना जाता है। तनिक इस शब्द की व्युत्पत्ति पर विचार करें। शब्द बना है-संविधन +इक (प्रत्यय) के योग से जिस तरह संसार+इक से सांसारिक, संस्कृत+इक से सांस्कृतिक मंगल+इक से मांगलिक, समाज+इक से सामाजिक शब्द बनते हैं। इसी तरह संविधान+इक से सांविधानिक शब्द बनेगा। यह 'संवैधानिक' अशुद्ध वर्तनी रूप कहां से प्रयोग में आ गया? यह विचार करने की आवश्यकता है।
बसन्त ऋतु, वासन्ती बयार, बसन्त, बसन्त कुमार, नर्बदा, नबाव वर्तनी शब्दों में रेखांकित 'ब' का प्रयोग अशुद्ध है। शुद्ध वर्तनी रूप हैं- वसन्त ऋतु, वासन्ती बयार। वसन्त, वसन्त कुमार, नर्मदा, नवाब। लेकिन कितने विद्यार्थी/पाठक इन शुद्ध रूपों से परिचित हैं?
पाणिग्रहण, वाक्दात, वर्षगांठ जैसे मांगलिक अवसरों पर दीवारों अथवा प्रमुख द्वार पर 'सुवागतम्' लिखकर अथवा 'सुस्वागतम्' विद्युत पट्ट लगाकर आगन्तुकों का स्वागत किया जाता है। हम अतिथियों का स्वागत भी अशुद्ध वर्तनी से कर रहे हैं। 'स्वागतम्' शब्द की रचना में 'आगतम्' के पूर्व 'सु' उपसर्ग जुड़ा है- सु+आगतम = 'स्वागतम्' । फिर भला 'स्वागतम्' शब्द में एक और उपसर्ग 'सु' जोड़कर (सु+सु+आगतम्) 'सुस्वागतम्' लिखना क्या औचित्य रखता है।
वर्तमान में प्रयुक्त अशुद्ध वर्तनी रूपों के कुछ उदाहरण यहां दिये जा रहे हैं। कोष्ठक में इनके शुद्ध वर्तनी रूप दिये हैं-आध्यात्म (अध्यात्म) आधीन (अधीन) अनाधिकार (अनधिकार) बारात (बरात) सन्यास (संन्यास) सन्यासी (संन्यासी) अनुग्रहित (अनुगृहीत) उपरोक्त (उपर्युक्त) उज्वल (उज्ज्वल) निर्दोषी (निर्दोष) निरपराधी (निरपराध) पूज्यनीय (पूज्य/ पूजनीय) बेफिजूल (फिजूल) अत्याधिक (अत्यधिक) भलमनसाहत (भलमनसत) कैलाश (कैलास) अन्तर्ध्यान (अन्तर्धान) कवित्री (कवयित्री) केन्द्रीयकरण (केंद्रीकरण) चर्मोत्कर्ष (चरमोत्कर्ष) द्वन्द (द्वन्द्व) सादृश्य (सदृश) बृजभाषा (ब्रजभाषा) शताब्दि (शताब्दी) सुलोचनी (सुलोचना) छत्रछाया (छत्रच्छाया) तदोपरान्त (तदुपरान्त) पुरुस्कार (पुरस्कार) निरोग (निरोग) सदोपदेश (सदुपदेश) सतोगुण (सत्गुण) मंत्री मण्डल (मंत्रिमण्डल) आदि।
आज सख़्त आवश्यकता है शुद्ध वर्तनी रूपों को चलन में लाते हुए अशुद्ध वर्तनी रूपों को चलन से बाहर करने की। इससे वर्तमान व भावी पीढ़ी दोनों के प्रति न्याय होगा।
- भेरू सिंह राव 'क्रान्ति'
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