RAMCHANDRA SHUKLA : DRISHTI SRISHTI Book by KRISHNA BIHARI PATHAK
कृष्ण बिहारी पाठक की पुस्तक की समीक्षा : रामचन्द्र शुक्ल की दृष्टि और सृष्टि
पुस्तक का नाम -रामचंद्र शुक्ल : दृष्टि-सृष्टि
लेखक का नाम -कृष्ण बिहारी पाठक
प्रकाशक-मधुशाला प्रकाशन, भरतपुर
वर्ष -2023, मूल्य -₹150/-
व्यक्ति हृदय से विश्वहृदय की आलोचना दृष्टि
बी. एल. आच्छा
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने साहित्य को मानव हृदय की मुक्तावस्था कहा है।इसमें प्रकृति और लोक जीवन के संघर्षो की परिणति लोकमंगल के विधान में हुई है। कृष्ण बिहारी पाठक ने "रामचन्द्र शुक्ल : दृष्टि और सृष्टि" में पुस्तक में उन प्रतिमानों को स्पष्ट किया है. जो शुक्ल जी की सैद्धांतिक और व्यावहारिक आलोचना पद्धति में केन्द्रीय रहे हैं। प्रकृति जैसे सारे संघर्षों में वासंती छटा से सुन्दर नजर आती है, उसी तरह लोक जीवन के संघर्ष मनुष्य को लोकमंगल से पुष्ट करते हैं। बदलाव यही है कि हिन्दी आलोचना रीतिवादी कलावाद से निकलकर मनुष्य और प्रकृति में लोकमंगल को केन्द्रीय बना देती है।
इससे प्रकृति और लोकजीवन में संवेदना की एकात्मकता, मातृभूमि के प्रति पूज्य भाव है। मानव जीवन के विकारों और भावों का सामंजस्य है। पश्चिमी आलोचना पद्धति, वैज्ञानिक दृष्टि और फ्रायड के मनोविज्ञान के अनुशीलन से उन्होंने नयी दृष्टि दी। पर हिन्दी आलोचना पर उसे हावी नहीं होने दिया।
लोकमंगल की दृष्टि उन्हें तुलसी और जायसी से मिली। इससे जातीय गौरव और सांस्कृतिक पहचान मिली । लोकहृदय की पहचान के लिए लोक भाषा में सौन्दर्य और चित्रात्मकता को महत्व दिया। मनुष्य के भावों और मनोविकारों की छाया प्रकृति में दृश्यों में देखी। जनता की पीड़ाओं को सामाजिक-राजनीतिक- सांस्कृतिक-आर्थिक अवस्थाओं में देखा। शुक्ल जी के चिंतामणि के मनोविकार संबंधी निबंध अप्रतिम हैं। प्रेम, करुणा, उत्साह, क्रोध जैसे मनोविकारों को वे काव्यशास्त्रीय चिंतन से अलग नहीं पाते। इसीलिए उनका श्रृंगार भी प्रेम की पीर और कर्म- सौन्दर्य के साथ भाव- सौंदर्य की प्रतिष्ठा करता है।
लेखकने शुक्लजी की समीक्षा पद्धति के केन्द्रीय प्रतिमानों के विवेचन में व्यक्ति- हृदय से विश्वहृदय की एकता को लक्षित दिया है। पुरानी शास्त्रीय रुढ़ियों को झटकाया है। भारतीय और पश्चिमी दृष्टियों के सामंजस्य से हिन्दी आलोचना को नये प्रतिमान दिये हैं। यह पुस्तक इसलिए महत्वपूर्ण है कि इससे विश्वमंगल की मानवीय दृष्टि, प्रकृति के साथ एकात्मकता और भावजगत की उदातत्ता के प्रतिमानों को समझने की का नजरिया स्पष्ट होता है। लोक- रक्षण, लोकरंजन, लोक-भाषा, कर्म- सौंदर्य और भाव- सौंदर्य में प्रकृति और मनुष्य के एकात्म प्रेम को स्पष्टता से विश्लेषित किया है।
बी. एल. आच्छा
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