महावीर प्रसाद द्विवेदी : गद्य एक अवलोकन

Dr. Mulla Adam Ali
0

Mahavir Prasad Dwivedi

Mahavir Prasad Dwivedi

महावीर प्रसाद द्विवेदी : गद्य एक अवलोकन

द्विवेदी-युग की पृष्ठभूमि में हिन्दी-गद्य में अराजकता फैली थी, क्योंकि यह हिंदी का जागरण काल था। नए प्रयोग हो रहे थे जिस प्रकार राजनीति में ऐसे अवसरों पर अराजकता छा जाती है, अनेक दल उठ खड़े होते हैं उसी प्रकार साहित्य में भी ऐसा ही हुआ। इसके कई कारण थे। प्रथम, हिन्दी में अंग्रेजी शिक्षितों का आगमन हो रहा था। लोग अंग्रेजी से अपनी समझ से जो कुछ ग्राह्य समझते थे, उसे हिन्दी में लाने का प्रयत्न करते थे। नवीनता लाने का यह प्रयास इस प्रकार अंधानुकरण के रूप में हो रहा था कि स्वयं ऐसा करने वाले ठीक-ठीक नहीं समझ रहे थे कि वे साहित्य का विकास और उसकी अभिवृद्धि किस आधार पर कर रहे हैं। दूसरा कारण यह था कि जनता की औपन्यासिक रुचि विचित्र प्रकार की थी। तिलस्मी और जासूसी पुस्तकों की माँग बढ़ रही थी और इसमें लोग विशेष रुचि दिखला रहे थे। निबन्ध, आलोचना, कविता और गम्भीर विषयों पर विचार करने के लिए न किसी के पास योग्यता थी, और न उत्साह ही दिखाई देता था।

तीसरी बात थी अनुवादों की बाढ़। दो-चार पुस्तकों को पढ़कर लोग अनुवाद करने लग जाते थे। इसका परिणाम यह हुआ कि अनुवाद की भाषा ऊबड़-खाबड़ होने लगी। भाषा का ज्ञान छिछला होने के कारण लोग न मौलिक ग्रन्थों को ही ठीक से समझ सके और न अनुवाद में ही सौंदर्य ला सके। अनुवाद विशेषतः बंगला और अंग्रेजी से होता था। इन बातों से यह स्पष्ट है कि व्यवसाय के लिए या अपना नाम प्रकाशित कराने के लिए लोग पुस्तकों का अनुवाद करते थे और हिन्दी की प्रकृति या सौंदर्य-वृद्धि की ओर प्रयत्नशील नहीं थे। उनके व्याकरण-सम्बन्धी दोष बड़े भद्दे और भयंकर होते थे। 'इच्छा किया' अथवा 'आशा किया' आदि जैसी भूलों पर किसी का ध्यान नहीं जाता था। ऐसा मालूम होता था जैसे हिंदी एक ऐसी भाषा है जिसका न कोई व्याकरण है और न वैज्ञानिक आधार, सभी को इच्छानुसार भाषा लिखने की स्वतंत्रता थी। इस समय बँगला के अतिरिक्त गुजराती, पंजाबी आदि भाषाओं से हिन्दी का सम्पर्क बढ़ रहा था। दूसरी भाषा को जानने वाले यदि हिन्दी में अपनी लेखनी उठाते थे तो उनमें वाक्यदोष अधिक होते थे। शब्दों की अस्थिरता भाषज्ञ-शैली को शिथिल बना रही थी।

निबंधकार के रुप में द्विवेदी जी अधिक लोकप्रिय नहीं हुए, क्योंकि इनके निबन्ध प्रायः अनुदित हैं, और जो मौलिक हैं भी, वे उपदेशपूर्ण होते हुए भी साहित्यिक दृष्टि से अधिक मूल्य नहीं रखते हैं। किन्तु सभी जगह इनकी शैली में वही अपनापन है। हृदय को आकर्षित और मुग्ध कर देने वाली उनकी जो कला है, वह अद्वितीय है। उनके आलोचनात्मक निबंध विशेष महत्वपूर्ण हैं।

द्विवेदी जी ने जिस शैली को अपनाया था उसके लिए वे किसी के ऋणी नहीं हैं, यह उनकी अपनी मौलिक देन है। यों तो द्विवेदी जी की गद्य- शैली की अनेकरुपता है, पर द्विवेदी जी की रचनाओं की प्रतिनिधि शैली परिचयात्मक है। इसमें सरल ढंग से और सरल भाषा में विचारों की व्याख्यात्मकता लाने का प्रयत्न किया गया है। एक अध्यापक जिस प्रकार अपने छात्रों को कई एक गम्भीर विषय बार- बार दुहराकर समझाता है और उसे अधिकाधिक बोधगम्य बनाने की चेष्टा करता है, उसी प्रकार की चेष्टा द्विवेदी जी ने अपनी शैली द्वारा की है। दार्शनिक और गम्भीर विषयों की समीक्षा द्विवेदी जी ने इसी शैली में की है।

साहित्य में स्थान : द्विवेदी जी ने जिस क्षेत्र में जो काम किया है वह युग-प्रवर्तन में सहायक हुआ है। इसीलिए आज उनके साहित्यिक कार्यों का ऐतिहासिक महत्व रह गया है। मुख्यतः उनके तीन प्रमुख लक्ष्य थे- (1) संस्कृत-साहित्य का पुनरुथान तथा प्राचीन भारत के गौरव की रक्षा, (2) संसार की वर्तमान प्रगति से हिन्दी-साहित्य को परिचित कराना, और (3) पाश्चात्य शैली की सहायता से भाषा को भावव्यंजक बनाना।

उनकी रचनाएँ इन्हीं उद्देश्यों पर आधारित हैं और अपने युग का प्रतिनिधित्व करती हैं। 'सरस्वती' के सम्पादक के पद से उन्होंने इन तीन कार्यों को पूरा करके दिखलाया है एक साथ भाषा के शिल्पी, विचारों के प्रचारक और साहित्य के शिक्षक द्विवेदी जी ही थे। समाज में नैतिक जागरण लाना उनका आदर्श था।

द्विवेदी युग का महत्व इसलिए भी अधिक है कि इसी समय मैथिलीशरण गुप्त जैसे महाकवि, प्रेमचन्द-जैसे उपन्यास-सम्राट, शुक्लजी-जैसे सुधी आलोचक का उदय हुआ था। द्विवेदी जी गद्य और पद्य दोनों का पथ-प्रदर्शन कर रहे थे। उन्होंने ही यह सिद्ध किया था कि खड़ी बोली में कविताएँ सफलतापूर्वक लिखी जा सकती हैं। इस प्रकार पहले से चले आते हुए सारे विरोधों का अन्त उन्होंने ही किया। आलोचना के क्षेत्र में उन्हींकी तूती बोली। कवियों की श्रेणी का विभाजन सर्वप्रथम उन्होंने ही किया। सूर-तुलसी की प्रथम कोटि बनी, देव आदि पृथक् कर दिये गए और भारतेन्दु जी आधुनिक साहित्य के जन्मदाता माने गए। द्विवेदी जी ने कई बातों में भारतेन्दु जी का अनुकरण किया।

इस प्रकार यदि हम द्विवेदी जी की बहुमुखी प्रतिभा पर सरसरी दृष्टि डालने की चेष्टा करें तो हमें यह मानना पड़ेगा कि उनकी रचनाओं का मूल्य-निर्धारण करना अत्यन्त कठिन है। यद्यपि साहित्य के क्षेत्र में आज हम उनके प्रभाव से निकल चुके हैं, किन्तु उनकी ऐतिहासिक सत्ता आज भी अमिट है। सच्ची बात तो यह है कि भारतेन्दु जी ने जिस परम्परा की नींव डाली थी उसे सफलतापूर्वक विकसित करने का भार द्विवेदी जी को छोड़कर उस काल का कोई भी दूसरा साहित्यिक ले भी नहीं सकता था। इस दृष्टि से द्विवेदी जी और भारतेन्दु एक-दूसरे के पूरक थे। द्विवेदी जी ने अपनी इच्छा और बुद्धि के अनुसार निर्धारित नये मार्गों पर चलने के लिए हिन्दी-लेखकों को प्रेरित किया, किन्तु वे साहित्य के क्षेत्र में 'डिक्टेटर' नहीं थे। वे नये लेखकों के जन्मदाता और साहित्य, समाज तथा राष्ट्र के शुभचिन्तक थे। यही द्विवेदी जी की महानता है।

- एम. रामचंद्रम

ये भी पढ़ें; मैत्रेयी पुष्पा की कहानियों में लोकगीतों का चित्रण

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें (0)

#buttons=(Accept !) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Learn More
Accept !
To Top