Poetic analysis of ghazal writer Dushyant Kumar's Ek Kanth Vishpai
गज़लकार दुष्यंत कुमार के विषपायी का काव्यात्मक विश्लेषण
दुष्यंतकुमार त्यागी हिंदी के उन साहित्यकारों में से एक है जिन्होंने साहित्य की कविता, उपन्यास, नाटक, आदि अनेक विधाओं में अपनी सृजनात्मक प्रतिभा का परिचय दिया है। उनका सम्पूर्ण साहित्य मानव जीवन के विविध अनुभवों का लेखा-जोखा है दुष्यंतकुमार स्वयं को विद्वान, पंडित या कोई बहुत बडा साहित्यकार नहीं मानते थे। वह अपने-आप को एक सामान्य व्यक्ति समझते थे। यही कारण है कि उनके साहित्य में निरंतर सामान्य व्यक्ति और उसके जीवन की विडम्बनाओं एवं दुखःदर्द को वाणी मिली है। इस संदर्भ में उन्होंने "जलते हुए वन का वसन्त" में कहा है कि, "मेरे पास कविताओं में मुखौटे नहीं है। अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राएँ नहीं है और अजनबी शब्दों का लिबास नहीं है। मैं एक साधारण आदमी हूँ और इतिहास और सामाजिक स्थितियों के संदर्भ में, साधारण आदमी की पीड़ा, उत्तेजना, दबाव, अभाव और उसके सम्बन्धों को, उलझनों को जीता और व्यक्त करता हूँ।"
दुष्यंत जी की जन्मतिथि 1 सितम्बर सन् 1933 ई. मानी जाती है। कवि दुष्यंत जी के पिता का नाम श्री भगवत तथा माता का नाम श्रीमती रामकिशोरी था। जाति परंपरा में इनका परिवार : 'भूमिधर ब्राह्मण' परिवार के रूप में जाना जाता है। दुष्यंत जी का बाल्यकाल नवादा, राजपुर तथा मुज़फ्फरनगर में व्यतीत हुआ। आकर्षक चेहरा, भूरा रंग, छोटी-छोटी आँखें, मोटे-मोटे गाल तथा लम्बी लटों वाले बालक दुष्यंत जी को खेलने-कूदने में रुचि नहीं थी।
दुष्यंत जी में बाल्यवस्था से ही स्वाभिमान का भाव कूट-कूट कर भरा हुआ था। उनका यह स्वाभिमान निरंतर बढ़ता ही चला गया। अपने स्वाभिमान को गिरते हुए देखना उनकी सहनशीलता के बाहर था।
विवाह सन् 1949 ई में 18 वर्ष की आयु में दुष्यंत जी का विवाह सहारनपुर जिले के 'डंगेढा' नामक गाँव में श्री सूरजभान त्यागी कानूनगो की सुपुत्री राजेश्वरी जी के साथ सम्पन्न हुआ। राजेश्वरी जी विवाहपूर्व 10वीं कक्षा उत्तीर्ण कर चुकी थी। पति के परामर्श से इन्होंने बी.ए. बी.एड. किया तथा कुछ समय उपरान्त हिन्दी एवं मनोविज्ञान विषय चुनकर एम.ए. की उपाधि प्राप्त की। सन् 1962 में राजेश्वरी जी ने बुरहानपुर के एक प्राइवेट कॉलेज में हिन्दी की प्राध्यापिका के रूप में कार्य किया तथा उसके बाद तात्या टोपे नगर भोपाल के आदर्श उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में हिन्दी की व्याख्याता पद पर रहीं।
दुष्यंत जी की प्रारंभिक शिक्षा नवादा, नज़ीबाबाद, मुज़फ्फरनगर, नहटौर तथा चंदौसी में सम्पन्न हुई। छः वर्ष की आयु में उन्होंने 'नवादा प्राथमिक विद्यालय' में प्रवेश लिया। सातवीं कक्षा मुज़फ्फर नगर से उत्तीर्ण करने के बाद "नहटौर" के माध्यमिक विद्यालय में अध्ययन कर सन् 1945 में इन्होंने आठवीं कक्षा उत्तीर्ण की तथा सन् 1948 में 'चंदौसी इण्टर कॉलेज' से द्वितीय श्रेणी में हयर सेकेण्ड्री परीक्षा उत्तीर्ण की।
दुष्यंत जी के व्यक्तित्व में गुणों अवगुणों का बडा अदभुत मिश्रण था। तनावपूर्ण स्थिति में हँसते- हँसते जीना और अपने इर्द-गिर्द काल्पनिक वातावरण निर्माण कर लेना वे भलीभाँति जानते थे। व्यंग्य- विनोद में तो दुष्यंत जी सिद्धहस्त थे। व्यंग्य-विनोद उनके लिए एक भरोसे का हथियार और प्रतिकूलताजन्य असन्तुष्टि को पचाने का एक बढिया 'टेबलेट' था। इनके व्यंग्य बड़े ही शिष्ट और व्यथा भरे होते थे। यह व्यथा सिर्फ उनके व्यक्ति एवं कवि की ही नहीं बल्कि समाज की भी होती थी। ऐसा इसलिए होता था क्योंकि एक तो वे अपने दायित्वों से भलीभाँति अवगत थे, दूसरे हर तरह के वातावरण में घुलमिल जाने का उनका स्वभाव था। परेशानियाँ उनकी होठों की हँसी छीन लेने के लिए असमर्थ थी।
दुष्यंत जी बडे महत्वाकाक्षीं थे। दूसरों को महत्वाकांक्षी और योग्य बनाने में वे जुट जाते और इसके लिए हर तरह की ऊखाड़-पछाड़ करने को तत्पर रहते।
एम.ए. की पढाई पूरी करने के बाद जीवन के अन्त तक नौकरी करते रहे दुष्यंत जी की पत्नी श्रीमती राजेश्वरी जी के शब्दों में- "दुष्यंत जी का पैतृक व्यवसाय तो खेती था। एम.ए. तक अध्ययन करने के बाद उन्होंने नौकरी ढूंढने का प्रयास किया इसके साथ लेखन कार्य भी चलता रहा।"
हिन्दी साहित्य जगत को महत्तम योगदान देने वाले दुष्यंत जी का अल्पायु में 29 दिसम्बर 1975 की रात ढाई बजे निधन हो गया।
काव्य-विषय :
दुष्यंत जी ने अपने काव्य-विषयों को जीवन के धरातल से चुनकर कल्पना के रंगों में रंगकर चमत्कारपूर्ण बनाया है। उनके काव्य में युगीन काव्य परिवेश का अंकन बडी सटीकता के साथ हुआ है। 'एक कण्ठ विषयापी' में उन्होंने कथ्य के द्वारा आधुनिक युगबोध को वाणी प्रदान की है। प्रजातांत्रिक विद्रूपताओं, असमानताओं, अभावों, सामान्य आदमी का दुःख-दर्द, बेचैनी, अनिश्चितता बोध, धुरीहीनता, परम्पराओं का मोह और उसके प्रति विद्रोह, शांति, अहिंसा, प्रेम, दया, चिन्ता आदि विविध धरातलों से विषय चयन किया है जो पाठक के हृदय तारों को झकझोर देता है। संक्षेप कहें तो उनका विषय चयन पौराणिक तथा समसामयिक जीवन रूपी दो धरातलों पर हुआ है।
पौराणिक विषय :
दुष्यंत जी की 'एक कण्ठ विषयापी' नयी कविता की एक उल्लेखनीय उपलब्धि है इस काव्य का विषय 'शिव पुराण' के अन्तर्गत 'सती-दाह' प्रसंग पर आधारित है। प्रजापति दक्ष एक विराट यज्ञ का आयोजन करते हैं। इस यज्ञ में सभी देवताओं को आमंत्रित कर उनके स्थान और भाग दिये जाते हैं किन्तु शंकर को आमंत्रित नहीं किया जाता। इसको लेकर दक्ष और उसकी पत्नी वीरिणी में गंभीर वार्तालाप होता है। वीरिणी अपने पति के विचारों से सहमत नहीं है। सती अनाहूत रूप से यज्ञ में प्रकट होती है। वह सभी देवताओं की तरह अपने पति को आमंत्रण न मिलने का कारण जानना चाहती है। यज्ञ में पहुँचकर वह अपने पति के लिए कोई भाग या स्थान सुरक्षित न पाकर अपने पति और अपने-आप को अपमानित महसूस करती है। इस अपमान के कारण वह उसी यज्ञ में अपनी आहुति दे देती है। यज्ञ विध्वंस हो जाता है।
समसामयिक जीवन से चुने विषय :
दुष्यंत जी ने अपने काव्य के विषयों को समसामयिक जीवन के धरातलों से चुना है 'एक कण्ठ विषयापी' में कथावस्तु भले ही पौराणिक हो किन्तु प्रतीकात्मक रूप में कवि ने युगबोध एवं समसामायिक समस्याओं का चित्रण ही प्रमुख रूप से किया है। साधारण आदमी के दुःख दर्दों का गान इसमें गाया है और साथ ही आकर्मण्यों में कर्म का भाव भी जगाया है। निराशामय जीवन में आस्था का निर्माण किया है। दुःखियों, पीडितों के प्रति सहानुभूति का भाव भी जगाया है। राष्ट्रनियामकों की स्वार्थपरता को उजागर करते हुए उन पर मार्मिक व्यंग्य भी किये हैं।
प्रजातंत्र :
स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व भारतीय जनता ब्रिटिश शासकों के अन्याय-अत्याचारों की पूरी तरह से शिकार बनी हुई थी। ब्रिटिशों की दमन नीति से छुटकारा पाकर खुली साँस लेने को लोग उत्सुक थे। बहुत कष्ट, परिश्रम एवं बलिदानों से जनता की यह उम्मीद भी पूरी हुई और वह दिन आया जिस दिन भारत स्वतंत्र हुआ। हर्षोल्लास मनाये गये। जनता यह आशा लगाये बैठी थी कि अब सबको अपने अधिकार मिलेंगे, देश एवं समाज में शांति और सुव्यवस्था स्थापित होगी। किन्तु यह आनन्द अधिक देर तक न रह सका। प्रजातंत्र को विविध समस्याओं ने बुरी तरह ग्रस लिया। इसी बीच चीनी युद्ध, अकाल, भूखमरी आदि समस्याओं ने तो इस प्रजातंत्र की बुनियाद को ही हिला डाला। जनता भी उत्तरोत्तर बढती राजनीति की शिकार होती गई। पूँजीवादी प्रवृत्ति ने जनता का रक्त चूसना प्रारम्भ किया इस प्रजातंत्र में चारों ओर भ्रष्टाचार ही भ्रष्टाचार फैल गया। नेताओं की स्वार्थपरता के साथ-साथ भ्रष्टाचार भी इस प्रजातंत्र की ज्वलंत समस्या बनी। कवि ने इस समस्या को सर्वसामान्य जनता के प्रतिनिधि 'सर्वहत' के माध्यम से भलीभाँति उद्घाटित किया है। उसकी नज़र में हर कोई भूखा है और यह भूख है झूठे आदशों की, झूठी प्रतिष्ठा की, लिप्सा और अधिकारों की, धन की जिसने भ्रष्टाचार को फैलने में सहायता प्रदान की है।
ऐसे लोग अहिंसक कहाते हैं
माँस नहीं खाते
मुद्रा खाते हैं...
समाज व्यवस्था :
स्वतंत्रता के बाद राष्ट्र ने स्वस्थ समाज की कल्पना की थी जिसमें समानता हो, भाईचारा एवं पारस्परिक सहयोग एवं शान्ति हो। लेकिन यह कल्पना केवल कोरी कल्पना ही बनकर रह गई। कवि ने समाज व्यवस्था के इन विविध पहलूओं पर भी दृष्टिपात किया है। आज भी समाज विभिन्न वर्गों में बँटा हुआ है। ऊँच-नीच, पूँजीपति, अमीर-गरीब, सामान्य और विशिष्ट का भेदभाव आज भी समाज में विद्यमान है और उत्तरोत्तर बढता ही जा रहा है। ऐसे भेदभाव की स्थिति में जनतंत्र का विकास कहाँ तक संभव हो पाएगा जनतंत्र के विकास के लिए यह तो बाधक ही है।
आदमी का दर्द एवं पीड़ा :
कवि ने 'सर्वहत', 'शंकर' एवं 'ब्रह्मा' आदि के माध्यम से आम आदमी की पीड़ा फैली हो, भ्रष्टाचार, अन्याय-अत्याचार बढ रहे हों तथा जिस समाज व्यवस्था को चारों ओर से अनेकविध समस्याओं ने घेरा हो, उसमें एक आम आदमी की स्थिति क्या होगी इसकी कल्पना न करें तो अच्छा है।
युद्ध और अशान्ति एवं विद्रोह का चित्रण :
'एक कण्ठ विषयापी' सर्वथा प्रतीकात्मक कृति है। इसमें कथा तो पौराणिक है किन्तु यह अपने आपमें एक प्रतीकार्थ का भी वहन करती है। कवि ने प्रतीकार्थ के रूप में युगबोध का चित्रण किया है। आज पूरा विश्व तीसरे विश्वयुद्ध की आशंका से ग्रस्त है और ऐसे में प्रजातांत्रिक असफ़लताएँ अंततः देश और समाज को उसी ओर ले जा रही हैं।
मानवीय भावनाओं का चित्रण :
दुष्यंत जी ने इस रचना में मानवीय भावनाओं का चित्रण भी बड़ी कुशलता से किया है जिसमें आशा, निराशा, दुख-सुख, उत्साह आदि अनेकविध भावनाओं का प्रकटीकरण हुआ है। भावनाओं का चित्रण इतना स्वाभाविक एवं सहज है कि पात्र जिस भावना को प्रकट कर रहा है वही भावना पाठक के मन में भी रचना को पढ़ते समय उभरती है।
इस रचना के तृतीय अंक के प्रारम्भ में ही शंकर अपनी पत्नी के अपार शोक में मग्न अपने कंधे पर सती का शव रखकर दुःख में निमग्न खडे हुए हैं और स्वागत कर रहे हैं-
“आह, शोक ने मुझे
अचीन्ही स्थितियों से जोड़ दिया,
महाशून्य के अन्तराल में निपट अकेला छोड़ दिया।"
शान्ति और अहिंसा का प्रदर्शन :
इस रचना में कवि ने शान्ति एवं अहिंसा के विचारों को भी अभिव्यक्ति प्रदान की है। इस कृति में 'ब्रह्मा' आदर्श राष्ट्रध्याक्ष के प्रतीक है। उनके विचार हमेशा शान्ति और अहिंसा को ही स्पष्ट करते हैं। इसके साथ ही इन्द्र और ब्रह्मा दो परस्पर विरोधी व्यक्तित्व हैं। इन्द्र विरोधी नेता के प्रतीक है जो प्रतिशोध की भावनावश शंकर से युद्ध करने के लिए उद्दत हैं, किन्तु ब्रह्मा उसके विचारों से असहमत हैं। इन्द्र युद्ध चाहता है और ब्रह्मा युद्ध को आत्मरक्षा का उपाय नहीं बल्कि सामूहिक आत्मघात मानते हैं।
ब्रह्मा युद्ध को सर्वनाश का कारण मानते हैं, शान्ति स्थापना का आधार नहीं। ब्रह्मा युद्ध की अनुमति न देकर सत्य को पहचानने के लिए कहते हैं-
"इसका है ये अर्थ, दृष्टि के बिना अकारण युद्ध न ठानें, युद्ध अधिक से अधिक एक कारण है। उसको सत्य न माने, प्राणों की आहुति, युद्ध के लिए नहीं, सत्य के लिए होती है।"
इस प्रकार युद्ध को अन्त तक अनुमति न देकर सत्य के पक्ष में रह कर शान्ति और अहिंसा का मार्ग प्रशस्त करते हैं।
संदर्भ सूची :
1. दुष्यंतकुमार : व्यक्तित्व एवं कृतित्व, डॉ. गिरीश जे त्रिवेदी
2. साये में धूप, दुष्यंतकुमार
3. साये में धूप, दुष्यंतकुमार
4. साये में धूप, दुष्यंतकुमार
- फरहा फातिमा
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