साहित्य में प्रतिबद्धता का सवाल

Dr. Mulla Adam Ali
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Question of commitment in literature

Question of commitment in literature

साहित्य में प्रतिबद्धता का सवाल

प्रतिबद्धता का क्या अर्थ हो सकता है? शाब्दिक अर्थ तो इसका यही होगा कि किसी व्यक्ति, वस्तू, विचार के प्रति बद्ध। लेकिन मार्क्सवादी आलोचनाशास्त्र में प्रतिबद्धता का अर्थ है सर्वहारा के प्रति समर्पित। चूँकि मार्क्सवाद की वैचारिकी के केन्द्र में सर्वहारा है इसलिए उसके अनुसार कविता को भी सर्वहारा के पक्ष में होना चाहिए।

अब दूसरा प्रश्न यह है कि 'सर्वहारा' क्या है? शाब्दिक अर्थ तो इसका यही होगा कि जो सब कुछ हार गया है या जिसके पास कुछ नहीं है। तो यह समाज का शोषित-वंचित तबका ही हो सकता है। मार्क्सवाद में इसी का नाम सर्वहारा है और अम्बेडकरवाद में यह दलित, पिछड़ा, आदिवासी है तो गांधी दर्शन में निर्धन और असहाय लोग हैं।

अम्बेडकर और गांधी के दर्शन में स्थानीयता का प्रभाव है तो मार्क्सवाद में वैश्विक दृष्टि है। इसलिए सर्वहारा में भारत के दलित, पिछड़े, आदिवासी, गरीब-गुरबा तो समाये ही हैं अफ्रीका, लैटिन अमेरिका, एशिया की गरीब-मजलूम जनता भी इसमें शामिल हैं।

गांधी दर्शन या अम्बेडकरवाद से प्रतिबद्ध कवि जब भारतीय सर्वहारा के सुख-दुःख, संघर्ष और सपनों की बात करता है तो उसके काव्य में कौन-सी कमी रह जाती है जो मार्क्सवादी विचारधारा ही पूर्ण करती है। मेरी समझ से तो कुछ नहीं। स्थानीय स्तर पर ही शोषण-अन्याय से मुक्ति का जो क्रम चलेगा अमीर के द्वारा एक दिन समस्त विश्व शोषण, अन्याय से मुक्त होगा। मार्क्सवाद अंतर्राष्ट्रीय विचारधारा होते हुए भी कोई क्रांति अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर नहीं कर सकती। वह भी परिवर्तन स्थानीय स्तर पर ही लायेगी। जो रचनाकार जहाँ भी गरीबों की बेहतरी और शोषण मुक्त समाज के लिए संघर्ष कर रहे हैं, साहित्यकर्मी होने के नाते हमें उन सबका सम्मान करना चाहिए चाहे वे जिस विचारधारा से जुड़े हों। क्योंकि वे अपने को एक पवित्र काम से जोड़े हैं। जब हमारे वैदिक ऋषि, वाल्मीकि और व्यास सामान्य जन के प्रति प्रतिबद्ध हैं तो प्रतिबद्धता को मार्सीय राजनीतिक आशयों तक सीमित क्यों किया जाए।

हम जानते हैं कि निराला मार्क्सवादी नहीं थे। लेकिनं उनके साहित्य में जनता के प्रति जो गहरा प्रेम दिखायी देता है और वे जिस तरह आने वाले समय में बदलावों को देखते हैं और उनके अनुरूप अपने साहित्य में बदलाव लाते हैं वह तो स्वतः स्फूर्त रहा है। आज मार्क्सवादियों के सबसे प्रिय कवि निराला ही हैं। साहित्य या कविता का काम अनेक स्तरीय है। छायावादी कवियों का योगदान क्या कम है कि उन्होंने हमारी हिन्दी को सजा-संवारकर एक अत्यन्त उन्नत भाषा दी जिससे हमारा सांस्कृतिक बोध और सृजन निरन्तर विकसित होते हुए इतना ऊँचा हो सका। इसके विपरीत भी हम देखते हैं कि मार्क्सवादी होते हुए भी बहुत-से कवि-साहित्यकार कुछ खास नहीं कर सके।

सभी वादों में कमियाँ हैं। अगर मार्क्सवाद राज्य की शक्तियों के अधीन उत्पादन और समान वितरण की बात करता है तो प्राकृतिक संसाधनों के दोहन और पर्यावरण रक्षा पर उसका उतना ध्यान नहीं है जितना गांधीवाद का। अन्याय-शोषण के साथ-साथ आज की कवि-चिन्ताओं में ये भी बड़े कारण हैं। सशस्त्र क्रांति के द्वारा सत्ता पलट भी बहुत आश्वस्तकारी नहीं रह गया है। यह विश्व युद्ध या परमाणु युद्ध का रूप ले सकात है जो समस्त मानवता के लिए घातक होगा। बाजारीकरण और आतंकवाद जैसी नई और बड़ी समस्याओं ने स्थितियों को और जटिल बना दिया है। हमारे यहाँ जातिवाद भी जिसने मार्क्सवाद को चलने नहीं दिया। हमारे यहाँ का मार्क्सवाद वैसे भी द्विज जातियों का मार्क्सवाद है जिससे अम्बेडकरवाद की सतत टक्कर होती रहती है।

मैं यह मानने को तैयार नहीं हूँ कि विचारधारा से कविता समुन्नत होती है। बल्कि कविता ही विचारधारा को समुन्नत और जनप्रिय करती है। वह उसके अन्तर्विरोधों से भी टकराती हैं और उसके पार भी जाती है जहाँ से विचारधारा में एक नये विचार का प्रस्फुटन होता है। विचारधारा को पढ़कर या उसके गुट में शामिल होकर बड़ा साहित्य नहीं रचा जा सकता। बड़े साहित्य को रचने के लिए जीवन में विचारधारा को आत्मसात करना आवश्यक होता है। कविता जैसी स्वतंत्र और स्वायत्त विधा कोई दूसरी नहीं है। इसमें झूठ नहीं बोला जा सकता। इसके द्वारा मिथ्या प्रचार नहीं किया जा सकता। मौका परस्त अक्सर वाद का मुखौटा लगा लेते हैं। वे गरीबों की बात करते हैं। वे कविता में ही सब क्रांति कर देते हैं, लेकिन जीवन में प्रतिगामी बने रहते हैं। होना तो चाहिए कि हम कलम से प्रेम और प्रकृति की कविताएँ रखें और जीवन में क्रांतिकारी बनें। लेकिन यह एक कठिन रास्ता है और इस पर बहुत साहसी और सच्चा कवि ही चल सकता है। प्रतिबद्धता से बड़ी चीज विवेक और समझदारी है।

आज देश में लेखकों के तीन संगठन हैं। तीनों मार्क्सवादी हैं। सब अपने को जन-प्रतिबद्ध कहते हैं फिर भी अपने-अपने अन्तर्विरोध स्वरूप अलग-अलग बंटे हैं और निष्क्रिय हैं। वे लेखकों को उनके हक दिला सकने में असमर्थ हैं। वे राजनीतिक सत्ता के समानान्तर कोई नया सांस्कृतिक आंदोलन भी चला सकने में असमर्थ हैं। साहित्य से दूर जनता को साहित्य के निकट लाने में भी असमर्थ हैं। ऐसे असमर्थ लोग सिर्फ बड़ी-बड़ी बातें कर सकते हैं और वही कर भी रहे हैं।

प्रतिबद्धता जनता के प्रति तो मैं समझता हूँ। लेकिन उसके लिए वाद का होना या मार्क्सवाद का होना जरूरी हो यह मैं नहीं मानता। रचनाकार के हृदय में प्रेम और पीड़ा ही वह आवश्यक चीज है जिससे उसे समझदारी और दृष्टि मिलती है। विचारधारा उसे धार दे सकती है और वह गांधीवाद भी दे सकता है और अम्बेडकर भी। यह दावा कोई करे कि मार्क्सवाद ही साहित्य या कविता के लिए सबसे मुफीद है तो यह एक असंबद्ध बात होगी। हम अपने सामने के सच को कैसे झुठला सकते हैं? मार्क्सवाद भी अपने सौन्दर्य शास्त्र के साथ उसी धरातल पर आता है जो कविता या साहित्य की सनातन और सार्वजनिन मूल्य-भूमि है।

- केशव शरण

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