Aesthetic Consciousness in Chhayavaadi Poetry
छायावादी काव्य में सौंदर्य चेतना
हिंदी काव्य के सुदीर्घ इतिहास में भक्तिकाल के उपरांत काव्य के अंतरंग और बहिरंग की दृष्टि से सर्वाधिक समृद्ध युग के रूप में छायावाद का नाम लिया जाता है। आधुनिक युग के तृतीय चरण कह जानेवाली इस काव्यधारा का जन्म एवं विकास दो महायुद्धों के बीच द्विवेदी युगीन कविता की प्रतिक्रिया स्वरूप माना जाता है।
द्विवेदी युग में 'कला जीवन के लिए' का बोलबाला रहा जिससे उपयोगिता को तो महत्व मिला पर 'कला' की उपेक्षा हो गई। कला पर बंधन और समाज की मूल इकाई 'व्यक्ति' का निरादर छायावाद के सृजन का मूलाधार बना। महादेवी के शब्दों में कहे तो-"उसके (छायावाद के) जन्म से प्रथम कविता के बंधन सीमा तक पहुँच चुके थे और सृष्टि के बाहयाकार पर इतना अधिक लिखा जा चुका था कि मनुष्य का हृदय अपनी अभिव्यक्ति के लिए रो उठा।" छायावाद की आत्माभिव्यक्ति, सौंदर्यभावना प्रकृति चित्रण, विरह वेदना, स्वच्छंदता, काल्पनिकता आदि प्रवृत्तियों पर गौर करे तो इसकी सार्थकता सिद्ध होती है। वैसे भी बंधन जब शिथिल हुए तो भाव एवं कला दोनों क्षेत्रों में सौंदर्य चित्रण में अभिवृद्धि की दृष्टि से प्रयास हुए। प्रसाद, पंत, निराला, महादेवी वर्मा के साथ-साथ माखनलाल चतुर्वेदी, भगवतीचरण वर्मा, रामकुमार वर्मा आदि छायावादी कवियों के काव्य को देखें तो उसमें सौंदर्य भावना ही अधिक सर चढकर बोलती नजर आती है। डॉ. शंभुनाथ सिंह के यह विचार इस संदर्भ में उद्धरणीय है कि-"इस युग के सभी कवियों ने सौंदर्य की एक नई चेतना लेकर काव्य रचना की और इसी व्यापक सौंदर्य चेतना के कारण उन्होंने प्रेम को जीवन दर्शन के रूप में स्वीकार किया। वस्तुतः सौंदर्य ही इस युग के कवियों का धर्म बन गया था।" इ सके परिणाम स्वरूप छायावादी काव्य में सत्य, शिव और सुंदर के सर्वाधिक महत्व सुंदर को ही मिला। चाहे भाव सौंदर्य हो या कल्पना सौंदर्य मानवी सौंदर्य हो या प्रकृति सौंदर्य सभी में छायावादी कवियों ने नवीन दृष्टिकोण को अपनाया।
भाव सौंदर्य की बात करे तो छायावादी काव्य भाव-वैभव की दृष्टि से समृद्धशाली रहा। प्रसाद, पंत, निराला, महादेवी वर्मा आदि कवियों ने विभिन्न भावों का मूर्तिकरण करके उनका सजीव चित्रण किया। पर वेदना और विरह की प्रधानता रही। 'आँसू' में प्रसाद ने- 'मादक थी मोहमयी थी। मन बहलाने की क्रीडा। अब हृदय हिला देती है। वह मधुर प्रेम की पीडा' कहकर अपनी विरह वेदना को जहाँ वाणी दी वहीं 'तुमको पीडा में ढूँढा। तुममें ढूँढूँगी पीड़ा।' 'मैं नीर भरी दुःख की बदली' सरीखी पंक्तियों ने महादेवी की वेदना को दर्शाया। ' विरह है अथवा यह वरदान! कल्पना में कसकती वेदना। अश्रु में जीता सिसकता गान है।' कहकर पंत ने विरह को वरदान के रूप में देखा, तो निराला की भिक्षुक, विधवा, तोडती पत्थर, सरोजस्मृति में वेदना की ही अधिकता रही। 'जीवन ही करूण कथा है। शब्दों में सुंदरता है। अर्थों में भरी व्यथा है।' जैसी रामकुमार वर्मा की पंक्तियों में भी यही भाव दिखाई देता है।
छायावादी काव्य में कल्पना का भी अतिशय महत्व रहा। कल्पना की ओर अत्यधिक रूझान के कारण इसकी तीखी आलोचना भी हुई और इन कवियों को पलायनवादी तक कहा गया। प्रसाद के काव्य 'प्रेम- प्रथिक', 'आँसू', 'कामायनी', पंत के 'उच्छवास', 'ग्रंथि', निराला की 'राम की शक्तिपूजा' । रामकुमार वर्मा के 'एकलव्य', 'चित्तौड की चिता' कल्पना सौंदर्य के उत्कृष्ट उदाहरण है। प्रसाद की 'हे कल्पना सुखदान । तुम मनुज जीवन प्राण। तुम विसद व्योम समान। तब अंत नर नहिं जान' और निराला की 'फूलते नहीं है फूल वैसे वसंत में। जैसे तब कल्पना की डालों पर खिलते हैं' 'कवि' शीर्षक कविता की यह पंक्तियाँ कल्पना की प्रशंसा करती दिखाई देती है। 'आधुनिक कवि' पुस्तक मैं अभिव्यक्त पंत जी के यह विचार कि "मैं कल्पना के सत्य को सबसे बडा सत्य मानता हूँ....। मेरा विचार है कि वीणा से लेकर ग्राम्या तक अपनी सभी रचनाओं में मैंने अपनी कल्पना को ही वाणी दी है और उसी का प्रभाव उन पर मुख्य रूप से रहा है। शेष सब विचार, भाव, शैली आदि उसकी पुष्टि के लिए गौण रूप में काम करते रहे हैं।" भी कल्पना की प्रशस्ति के परिचायक ही है।
कल्पना सौंदर्य की तरह मानवीय सौंदर्य का चित्रण भी छायावादी कवियों की प्रमुख विशेषता रही। वस्तुतः पुरुष और नारी दोनों का सौंदर्य चित्रण छायावाद में मिलता है पर अधिक्य और विस्तार नारी सौंदर्य चित्रण में ही दिखाई देता है। कामायनी में 'मनु' के चित्रण में राम की शक्तिपूजा में 'राम' के चित्रण में विस्तार अवश्य मिलता है पर ऐसे स्थल कम ही है। अन्य जगह बाहरी सुंदरता की अपेक्षा आंतरिक सौंदर्य की ओर पुरूष चित्रण में अधिक रूझान रहा है। मगर नारी के अंतर्बाह्य चित्रण में इन कवियों ने अपनी समस्त प्रतिभा को उँडेलकर रख दिया है। पर एक बात यहाँ यह भी दृष्टव्य है कि छायावादी कवि का नारी चित्रण अपेक्षाकृत सूक्ष्म और अश्लील है। इसमें स्थूलता और नग्नता प्रायः न के बराबर है। कामायनी में श्रद्धा के सौंदर्य वर्णन में कवि कहता है- 'नील परिधान बीच सुकुमार। खुल रहा मृदुल अधखुला अंग। खिला हो ज्यों बिजली का फुल। मेघ बन बीच गुलाबी रंग।' रामकुमार वर्मा की 'नूरजहाँ' कविता में 'नूरजहाँ' का चित्रण भी इसी प्रकार से हुआ है। पंत का नारी चित्रण इसी भावना से ओतप्रोत है। 'उच्छवास' कविता का वयःसंधि वर्णन द्रष्टव्य है- 'सरलपन ही था उसका मन। निरालापन था आभूषण। कान से मिले अजान-नयन। सहज था सजा सजीला तन।'
छायावादी कवियों ने प्रकृति का मानवीकरण करके नारी सौंदर्य का चित्रण अधिक मात्रा में किया है। निराला की 'प्रिय यामिनी जागी। अलस पंकज दृग अरूण मुख। तरूण अनुरागी' पंक्तियाँ हो या 'कौन तुम रुपसि कौन ? व्योम से उतर रही चुपचाप। छिपी निज छाया छवि में आप। सुनहला फैला केश कलाप। मधुर मंथर, मृदु, मौन' जैसा पंत का संध्या चित्र, प्रकृति में कवि ने नारी सौंदर्य की कल्पना की है। पुरुष कवियों की तरह महादेवी ने नारी सौंदर्य का सीधा चित्रण तो नहीं किया पर 'धीरे-धीरे उत्तर क्षितिज से आ वसंत रजनी' जैसे गीतों में प्रकृति को माध्यम बनाकर नारी का अन्तर्बाहय चित्र अवश्य खिंचा है। छायावादी कवियों के नारी चित्रण की एक अन्य विशेषता यह भी कही जा सकती है कि नारी के देवि, माँ, सहचरी, जैसे अनेक रूपों का चित्रण इसमें हुआ है। केवल नारी ही नहीं तो समस्त मानव जाति को छायावादी कवियों ने अलग दृष्टिकोण से देखा है। 'सुंदर है विहग। सुमन सुंदर। मानव! तुम सबसे सुंदरतम' जैसी पंक्तियों से इसकी प्रतीति आती है।
छायावादी कवियों का प्रकृति चित्रण भी उल्लेखनीय है। इन कवियों ने प्रकृति के नाना रूपों की झाँकी अपनी कविताओं में प्रस्तुत की है। प्रकृति के कोमल रूप का ही नहीं कठोर और भयावह रूपों का भी चित्रण इसमें हुआ है पर कोमलता पर ही अधिक भर रहा है। आलंबन, उद्दीपन, उपदेशात्मक, रहस्यात्मक, मानवीकरण आदि कई रूपों में छायावादी कवियों में प्रकृति को चित्रित किया है। 'सुख दुःख के मधुर मिलन से। यह जीवन हो परिपूरन फिर घन में ओझल हो शशि । फिर शशि में 'ओझल' हो घन' जैसी पंत की पंक्तियाँ प्रकृति को माध्यम बनाकर जीवन संदेश देती है तो रामकुमार वर्मा 'इस सोते संसार बीच। जगकर सजकर रजनी बाले। कहाँ बेचने ले जाती हो। ये गहरे तारोंवाले। यदि प्रभात तक कोई आकर । तुमसे हाय! न मोल करे। तो फुलों पर ओस रूप में। बिचरा देना सब गजरे' से प्रकृति से एकात्म होने की कामना करते हैं। कामायनी में रात्रि को संबोधित करते हुए प्रसाद द्वारा किए प्रकृति के इस मानवीकरण में कि- 'पगली हां संभाल ले कैसे छूटा पडा तेरा अंचल। देख बिखरती है मणिराजी अरी उठा बेसुध चंचल' भी सौंदर्य से परिपूर्ण है। निराला की 'जूही की कली', 'संध्या सुंदरी', 'बादल' जैसी कविताएँ इसी भावना से ओतप्रोत है। 'धीरे-धीरे उत्तर क्षितिज से आ वसंत रजनी' तथा 'रुपसि तेरा धन केरा पाश' जैसे महादेवी के गीत प्रकृति की सुंदरता के साथ-साथ मानवी मनोभावों को भी अभिव्यक्ति देते हैं। पंत तो प्रकृति को छोडकर नारी सौंदर्य की ओर उन्मुख ही नहीं होना चाहते, यथा-'छोड द्रुमों की मृदु छाया। तोड प्रकृति से भी माया। बाले तेरे बाल जाल में। कैसे उलझा दूँ लोचन। भूल अभी से इस जग को।'
अस्तु, सौंदर्य चेतना और छायावाद का निकटतम संबंध रहा। भाव कल्पना नारी, प्रकृति सौंदर्य के कई अनछुए क्षितिज को इसकी लेखनी के संस्पर्श ने दैदिप्यमान बना दिया। सौंदर्य विधान के नए द्वार खुलवाए। प्रकृति और मानव की अभिन्नता को दर्शाया। यद्यपि, व्यष्टि और समष्टि के द्वंद्व में अवतरित यह काव्यधारा व्यक्तिवाद के अतिस्वरूप ओझल भले हो गई पर अपनी देन से यह समृद्धि में भक्तिकाव्य की समकक्षता प्राप्तकर हिंदी साहित्येतिहास में महिमान्वित जरूर हुई है।
संदर्भ ग्रंथ :
1. छायावादी काव्य में सौंदर्य दर्शन-सुरेशचंद्र त्यागी
2. छायावाद युग - डॉ. शंभुनाथ सिंह
3. हिंदी साहित्य : युग और प्रवृत्तियाँ - शिवकुमार शर्मा
4. नई रचना और रचनाकार डॉ. दयानंद शर्मा
5. हिंदी के आधुनिक प्रतिनिधि कवि सुरेश अग्रवाल
- डॉ. प्रमोद पड़वाल
ये भी पढ़ें; Chayawad Ke Sau Varsh: छायावाद के सौ वर्ष