Bhagwati Charan Verma Ke Upanyason Mein Gandhi Darshan
भगवतीचरण वर्मा के उपन्यासों में गांधी दर्शन
भगवतीचरण वर्मा एक ऐसे उपन्यासकार है, जिन्होंने न केवल हिन्दी उपन्यास के प्रचलित प्रवाह को एक नया आयाम दिया, बल्कि वस्तु और चरित्र के नए निशान कायम करते हुए भाषा को सृजन की स्वायत्त और स्वाधीन अभिव्यक्ति में रुपान्तरित भी किया। ऐतिहासिक सत्य और सामाजिक यथार्थ उनकी अपनी अनुभूतियों के परिवेश से उपजता है। वर्माजी के उपन्यास कई अर्थों में प्रश्नों के उपन्यास हैं, जलती जिज्ञासाओं और वेदना की संवेदना के उपन्यास हैं। उनके उपन्यासों को पढ़ना मात्र कहानी पढ़ना नहीं है, बल्कि एक चुनौती पढ़ना है। वे अपनी संपूर्ण संवेदना में स्वदेशी हैं, एक ऐसे भारतीय उपन्यासकार हैं, जो निस्संग और निर्भिक हैं और जिन्हें भारतीयता की गति में जीना पसंद है, न कि जड़ता में। अपनी ही चेतना से, अपने ही कथाबोध से, अपनी ही सांस्कृतिक और ऐतिहासिक दृष्टि से वे अपनी पहचान बनाते हैं। वे एक ऐसा स्वतंत्र मार्ग बनाते हैं जिस रास्ते का प्रतिनिधि या तो कोई होता नहीं अथवा होकर भी वर्मा जी जैसा हो पाना संभव नहीं।
एक अन्य कोण से देखा जाए तो वर्माजी के उपन्यास साहित्य पर गांधी दर्शन का व्यापक प्रभाव पड़ा है। कारण यह कि वे स्वयं महात्मा गांधी और पंडित जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय भाग लेते रहे। वे गांधी जी के अहिंसात्मक आन्दोलन तथा उनकी चिंतनधाराओं में रच-पच गए थे। गांधी दर्शन ने वर्माजी के सामने धर्म और नीति संबंधी विचारधारा और अभिव्यंजना का एक नया आदर्श प्रस्तुत किया। इसीलिए उनके उपन्यासों में गांधी दर्शन का तात्विक एवं व्यावहारिक पक्ष बड़े कलात्मक ढंग से चित्रित किया गया है। क्रांतिकारी पात्रों के माध्यम से कथानकों में अहिंसा का बड़ा मार्मिक प्रतिष्ठितापन हुआ है।
इस संदर्भ में यदि उनके बहुचर्चित उपन्यास 'टेढ़े मेढ़े रास्ते' की बात छेड़ दी जाए तो हम पाते हैं कि उसमें सत्याग्रह आन्दोलन (1930) के सैद्धांन्तिक तथा व्यावहारिक दोनों पक्षों का विश्वसनीय उल्लेख मिलता है। उपन्यास का पंडित रामनाथ तिवारी सामंतशाही के समर्थक हैं और पूंजीवादी विचारों के पोषक हैं। वह जमींदार है और किसानों का शोषण अपना अधिकार मानता है। ऐसा ही राजनीतिक एवं सामंतवादी परिवेश प्रेमचंद के उपन्यासों में भी हमें मिलता है। उपन्यास में रामनाथ के तीनों बेटे विपरीत भावना का प्रतिनिधित्व करते हैं। उसका बड़ा पुत्र दयानाथ कांग्रेस में है, मंझला पुत्र रमानाथ कम्युनिस्ट है और तीसरा पुत्र प्रभानाथ क्रांतिकारी दल में कार्य करता है। पारस्परिक विरोध, द्वंद्व एवं संघर्ष तब उत्पन्न होता है, जब ये तीनों भाई अपने पिता को ब्रिटिश हितों का प्रबल प्रचारक और पोषक पाते हैं। यह संघर्ष दो मानसिकताओं का है, दो विचारधाराओं का है और है दो विश्वासों का भी। जब यह संघर्ष उत्कर्ष पर पहुंचता है तो रामनाथ अपने बड़े पुत्र का परित्याग कर देता है, क्योंकि वह कांग्रेस का सक्रिय कार्यकर्ता है।
दयानाथ जमींदार वर्ग का बराबर विरोध करता है और जनता के लिए, उनके अधिकारों के लिए लड़ता है। अवसर आने पर वह अपने पिता का डटकर विरोध करता है। जब रामनाथ अपने पुत्र दयानाथ को कांग्रेस छोड़ देने की बात कहता है, तब वह निर्भीकता से जवाब देता है- 'क्या जमींदार और क्या किसान हम सब गुलाम हैं और ब्रिटिश हम सब गुलामों की संस्था है, जिसका उद्देश्य देश को विदेशियों के शासन से मुक्त करना है ?' दयानाथ की पत्नी राजेश्वरी देवी खादी की साड़ी पहनती है। यहां पर विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि बंग विभाजन पर उस समय अत्यधिक जोर दिया गया। सभी जातियों और वर्गों के लोगों ने इस आन्दोलन में भाग लिया। इससे कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन मिला। तिलक के नेतृत्व में पूना में विदेशी कपड़ों की होली बड़े पैमाने पर जलाई गयी। विदेशी वस्तुओं को बेचने वाली दूकानों पर धरना दिया गया। यहां तक कि दक्षिण भारत तथा बंगाल की स्त्रियों ने विदेशी चूड़ियों और शीशे के बर्तनों का इस्तेमाल छोड़ दिया। छात्रों ने भी विदेशी कागजात के प्रयोग करने से इनकार किया। इस दौरान गांधीजी ने शारीरिक श्रम पर बल दिया और रोटी के लिए मेहनत के साथ-साथ चरखा चलाने को भी कहा। गांधीजी के प्रेरणास्वरूप ही उपन्यास की राजेश्वरी देवी तकली पर सूत कातती है। दयानाथ सत्याग्रह के आन्दोलन में बढ़-चढ़कर भाग लेता है। लेकिन शहर में स्वदेशी भावना फैलाने के अभियोग में गिरफ्तार किया जाता हैं गांधीवादी अहिंसात्मक नीति के अन्य समर्थक हैं उपन्यास के झगडू मिश्र तथा मार्कण्डेय । रामनाथ तिवारी के विरुद्ध झगडू और परमेश्वर संघर्ष करते हैं। झगडू मिश्र किसानों के बढ़ते हुए प्रभाव से रामनाथ को परिचित कराता है। परन्तु रामनाथ रियासत को हर प्रकार से दबाकर रखना चाहता है। इससे गांव के लोग उत्तेजित हो जाते हैं और हिंसा के मार्ग को अपनाने में तुल जाते हैं। किन्तु झगडू मिश्र का लड़का, जो गांधीवादी विचारधारा का समर्थक है, अपने पिता को समझाता है और कहता है, 'यह सब कितना गलत है। आप लोग हिंसा की शरण ले रहे हैं। क्या यह आपको शोभा देता है। आप एकाएक अपने कर्तव्य को भूल गए।' उपन्यास के इस स्थल पर ऐसा प्रतीत होता है, मानो गांधीजी स्वयं उत्तेजित लोगों को अहिंसा की सीख दे रहे हों। होता भी यही है कि पुत्र के समझाने पर झगडू मिश्र गांव के उत्तेजित वर्ग को शांत करने का प्रयत्न करता है और भीड़ के आकस्मिक प्रहार से रामनाथ तिवारी को बचाते हुए अपने प्राणों की आहुति दे देता है। इस पर मार्कण्डेय कहता है - 'अहिंसा की प्रतिक्रिया में हिंसा करते हैं। आवश्यकता है व्यापक रूप से अहिंसा की।' इसी प्रकार दयानाथ तथा उनके साथियों के माध्यम से कांग्रेस की गतिविधियों तथा अहिंसात्मक सिद्धांतों का इस उपन्यास में प्रबल समर्थन हुआ है। वर्माजी भाषा के टुकड़ों में संवेदना की जो आंतरिक ठंडक और आंच एक साथ पैदा करते हैं, ऊर्जा और विकास एक साथ रचते हैं, विडंबना और विराग को जिस प्रकार सूत्रों की वाक्य - डोर में पिरो देते हैं, वैसा सर्जन और विसर्जन एक साथ अन्यत्र कहीं नहीं मिलता। कहना न होगा कि यह उपन्यास पाठक से संवाद भी है, प्रशंसक से प्रश्न भी है और आलोचक से प्रतिप्रश्न भी है।
इसी क्रम से वर्माजी के 'भूले विसरे चित्र' उपन्यास में जीवन की चेतना का प्रखर एवं विविध चित्र मिलता है। शोषण के प्रति उनमें तीव्र आक्रोश है। उन्होंने नारी-पुरुष संघर्ष को नए दृष्टिकोण से देखने का प्रयास किया है। चूंकि स्वतंत्रता वर्माजी का प्रिय विषय रहा, अतः उपन्यासों में उनकी देश-प्रेम भावना का विकसित होना स्वाभाविक है। 'भूले बिसरे चित्र' उपन्यास में गांधी युग तथा कांग्रेस की गतिविधियों का स्पष्ट चित्रण मिलता है। इस सुचर्चित उपन्यास के ज्ञान प्रकाश, नवल और सत्यव्रत पात्रों के माध्यम से तत्कालीन वातावरण का यथार्थ चित्रण हुआ है। ज्ञान प्रकाश बैरिस्टर बनने के लिए इंग्लैंड गया था और वहां से लौटकर इलाहाबाद में वकालत प्रारंभ करता है। विदेश में रहते समय अपने देश के गुलाम जीवन का जो अनुभव उसे हुआ है, उसे वह गंगा प्रसाद के समक्ष व्यक्त करता है- 'हम लोग गुलाम हैं, हम लोग असभ्य हैं, हम लोग अछूत हैं।'
लेकिन भारत आ जाने के बाद ज्ञान प्रकाश कांग्रेस में शामिल हो जाता है। ज्ञान प्रकाश उस समय के देश भक्त बैरिस्टरों और वकीलों का प्रतिनिधित्व करता है, जो कांग्रेस के संगठन और कार्यों को आगे बढ़ा रहे थे। इस उपन्यास में बहिष्कार
आन्दोलन का बड़ा व्यापक चित्र उपस्थित किया गया है। बहिष्कार आन्दोलन के अवसर पर कानपुर में विदेशी वस्त्रों की होली जलाई गई। जब अंग्रेज सरकार ने इस आन्दोलन को दबाने का प्रयास किया तो कई स्त्रियों ने विलायती कपड़ों की दूकानों पर धरना दिया। वे डरी नहीं, सहमी नहीं। गंगा प्रसाद जो जौनपुर का सिटी मजिस्ट्रेट है, का पुत्र नवलकिशोर आई.सी.एस. बनना छोड़ कांग्रेस का स्वयं सेवक बन जाता है। वह छात्रों के बीच राष्ट्रीयता और गांधी विचारधारा का प्रचार करता है। उपन्यासकार ने नवल किशोर को मानव चेतना के जीवंत प्रतीक के रूप में चित्रित किया है। यह युवक अपने चाचा ज्ञान प्रकाश से प्रभावित होकर, गांधीजी के सिद्धांतों का प्रबल समर्थक बनकर असहयोग आन्दोलन में कूद पड़ता है। यहां तक कि वह ज्ञान प्रकाश के साथ नमक कानून के सिलसिले में जेल भी चला जाता है। उपन्यास में असहयोग आन्दोलन के कारण हिन्दू मुस्लिम एकता को जो बल मिलता है, उसका भी सुन्दर चित्रण हुआ है। वर्माजी ने जौनपुर को केन्द्र बनाकर खिलाफल आन्दोलन का मार्के का चित्र उपस्थित करके कथा को एक खूबसूरत मोड़ दिया है। साम्प्रदायिक दंगे, साइमन कमीशन, सर्बदल सम्मेलन, नमक सत्याग्रह आदि की यथार्थ झांकियों से गांधी दर्शन को बखूबी रेखांकित किया है। उपन्यास का एक अन्य पात्र गेंदालाल अछूतोद्धार के लिए कटिबद्ध एवं प्रतिबद्ध है। उपन्यास में अन्य कई स्थलों पर भी कई पात्रों के माध्यम से गांधी दर्शन खुलता चला जाता है। निस्संदेह, यह उपन्यास मानव जीवन और सामाजिक जीवन परिस्थितियों का विशद एवं विश्लेषणात्मक दस्तावेज हैं। एक विशाल ऐतिहासिक एवं सामाजिक परिप्रेक्ष्य में घटनाओं और मनुष्य की चितवृत्तियों को मनोवैज्ञानिक ढंग से उजागर करने में वर्माजी सफल हुए हैं। समूचे उपन्यास में गांधीवादी विचारधारा हिलोरें लेती दिखाई देती है। इन उपन्यासों का सामाजिक एवं सांस्कृतिक महत्व बहुत अधिक है। जनता में स्वतंत्रता की भावना और कर्म चेतना जगाने में वर्माजी ने कई ऐतिहासिक पात्रों की समयानुकूल पुनःसृष्टि की है। उन्होंने गहरे में महसूस भी किया कि देश की एकता के लिए भावात्मक, वैचारिक एवं सांस्कृतिक एकता अनिवार्य है। इस संदर्भ में सांस्कृतिक नवजागरण, सामाजिक प्रगति और अखंड भारत निर्माण की दिशा में वर्माजी का औपन्यासिक योगदान सदैव गौरव और प्रेरणा का विषय रहेगा।
- अमरसिंह वधान
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