Importance of Babu Gulabrai's Manuscripts
बाबू गुलाबराय की पाण्डुलिपियों का महत्व
पाण्डुलिपि का अर्थ है लेख की हाथ से लिखी हुई वह प्रति जो छपने के लिए तैयार की गई हो। प्राचीन काल में हाथ से लिखी ही रचनाएं होती थीं। ईसा से चौथी शताब्दी पूर्व पुरातत्वीय तथा साहित्यिक प्रमाणों के अनुसार, पाण्डुलिपियों का लिखना और पढ़ना प्रचलन में था। जब तक मुद्रण कला का अविष्कार नहीं हुआ था तब तक पुस्तकें हाथ से ही लिखी जाती थीं। कुछ लोग सुन्दर लिपि में पुस्तकें के लिखने का कार्य एक व्यसन और कला के रूप में भी करते थे। इन पाण्डुलिपियों को एकत्र कर महत्वपूर्ण केन्द्रो पर अध्ययन के लिए रखा जाता था। देश तथा विदेश के विद्वान, पाण्डुलिपियों के अध्ययन के लिए इन केन्द्रो में जाते थे। इन संस्थानों में उनकी स्वयं की अपनी पाण्डुलिपियाँ होती थी।
ऐसे महत्वपूर्ण अध्ययन के केन्द्र भारतवर्ष में नालन्दा, विक्रमशिला, ओदान्तपुरी, सोमपुरी, जगदल, मिथिला, बल्लभी, कनहरी आदि स्थानों पर संचित है। ये भारतवर्ष के बौद्ध लोगो ने पाण्डुलिपियों के लिखने व संकलन पर बहुत बल दिया था। जैन तथा हिन्दुओं ने भी अध्ययन के क्षेत्र में भाग लिया था। छोटी-छोटी रियासतों के राजा-महाराजाओं ने अपनी लिखाई पाण्डुलिपियों के लिए पुस्तकालय स्थापित किये। अब यह पुरानी पाण्डुलिपियां, पाण्डुलिपि संग्रहालय, राष्ट्रीय संग्रहालय, क्षेत्रीय संग्रहालयों में देखने के लिए मिल जाती है। दिल्ली में तीन मूर्ति भवन में नेहरू स्मारक संग्रहालय एवं पुस्तकालय, दिल्ली में ही नेशनल म्यूजियम में प्राचीन पाण्डुलियां देखी जा सकती है। कलकत्ता में नेशनल लाईब्रेरी में भी अनेक पाण्डुलियां हैं।
पाण्डुलिपि को देखकर हमें अनेक जानकारियां मिल जाती हैं। पाण्डुलिपि का कागज तथा उस पर लिखे अक्षर किस स्याही से लिखे गये परीक्षा करने पर उस काल का ज्ञान प्राप्त हो जाता है जिस काल में यह पाण्डुलिपि लिखी गई थी। पाण्डुलिपि देखकर लेखक की लिखावट कैसी थी किस प्रकार के कागज का वह प्रयोग करते थे। वे कलम से लिखते थे, पेन से लिखते थे या अन्य किसी चीज से लिखते थे आदि बातों का पता लग जाता है।
जब कागज का प्रचार नहीं हुआ था तब लोग ताड़-पत्र और भोज पत्र पर लिखा करते थे। आजकल भी भोजपत्र पर लिखे लेख मिल जाती हैं। लम्बे ताड़पत्रों पर अक्षर सूई से अंकित किये जाते थे। पत्रों के बीच छेद कर उनमें डोरा डाल दिया जाता था और पत्रों के तितर-बितर हो जाने से सुरक्षित रखने के लिए उस डोरी को लपेट कर गांठ लगा दी जाती थी। ग्रन्थि से ग्रन्थ (पुस्तक) शब्द बना है। प्राचीन लोगों ने इतनी कठिनाइयों के होते हुए भी इतनी किताबें लिख डाली यह बात उनके लिए बड़ी प्रशंसा के योग्य है।
हमारे देश की विभिन्न प्रान्तों की अपनी-अपनी भाषाओं और प्राचीन भाषाओं की पाण्डुलिपियां संग्रहालयों में देखने को मिल सकती हैं। मुगलकाल में लिखी गई उर्दू, फारसी में लिखी पुस्तकों की पाण्डुलियां भी संग्रहालयों में मिल जायेगीं।
हिंदी साहित्य के सुप्रसिद्ध साहित्यकार बाबू गुलाब राय जी ने सन् 1912-1913 के लगभग लिखना शुरू कर दिया था। पहले वे अंग्रेजी में लिखते थे पर बाद में स्वदेशी आन्दोलन से प्रभावित होकर उन्होंने हिन्दी में लिखना शुरू कर दिया था। सन् 1913 में दर्शन शास्त्र में एम.ए. करने के बाद वे छतरपुर राज्य (मध्य भारत) में महाराजा के निजी सचिव नियुक्त हो गये थे। वे वहां 18 वर्ष रहे और आगरा 1932 में अवकाश ग्रहण कर आ गये थे। आगरा में सेंट जान्स कालेज में उन्होंने हिन्दी का अध्यापन शुरू किया व 'साहित्य संदेश' मासिक पत्रिका का सम्पादन। उन्होंने बाल साहित्य से लेकर एम.ए. के विद्यार्थियों के लिए अनेक पुस्तकें लिखी। उन्होंने दर्शन शास्त्र, समीक्षा, निबन्ध आदि विविध विषयों पर लगभग 40 पुस्तके लिखीं। एक अनुमान के अनुसार पुस्तकों, पत्रिकाओं के लिए उन्होंने लगभग 10,000 पृष्ठ लिखे होंगे। उन्होंने जितना लिखा उस सब की पाण्डुलिपियां तो मुझे उनके स्वर्गवास के बाद प्राप्त नहीं हुई। हाँ कुछ फाईलों में उनके द्वारा लिखे लेखों के कुछ अंश अवश्य मिले। ऐसा नहीं है किसी भी एक पुस्तक के सभी लेखों की पाण्डुलिपि उन फाईलों में थी। फुटकर लेख मिले हैं। उनकी संख्या लगभग 1000 पृष्ठ होगी। बाबूजी ने कभी कापी के पन्नों पर लिखा, कभी बादामी कागज पर लिखा, कभी लाईनदार फुलस्केप, ए-4 साईज के कागज पर लिख, कभी पुराने लिफाफे के ऊपर लिखा। उन्होंने कभी पेन्सिल से लिखा, दवात कलम से लिखा और कभी फाऊन्टेन पेन से लिखा। जब जो मिल गया लिखा। कागजों को नत्थी करने के लिए कभी आलपिन, कभी सूई डोरा से बाधे, कभी टैग से बांधा। अपने ही लिखे लेख में जहाँ कहीं आवश्यक हुआ कांट-छाट करते थे। कांट छांट के लिए कागज की हांसिया पर लिखा कभी उस कागज के साथ एक और कागज चिपकर कर उस पर लिखा। बाबूजी के लिखे को उस जमाने में जब कम्प्यूटर से टाईप नही होता था। कम्पोजीटर लोग सीसा के अक्षरों को फर्म में लगाकर छापे के लिए तैयार करते थे तो वे लोग परेशान हो जाते थे। बाबूजी को प्रेस स्वयं जाकर कम्पोजिटर लोगों को समझाना पड़ता था अपने लेख को कांट छांट करने के कारण।
यह सब मैंने स्वयं देखा था और पाण्डुलिपियों से देखा जा सकता है कि वे कैसे लिखते थे। उनकी हस्तलिपि (हेन्डराईटिंग) पाण्डुलियों में देखने को मिल जायेगी। कभी-कभी तो हस्तलिपि बहुत साफ अच्छी भी देखने को मिली है, परन्तु अधिकतर उनका हस्तलिपि समझ में कम आती है। फिर भी जिन लोगो ने उनकी पाण्डुलियां पढ़ी हैं, देखी है वे समझ भी लेते है। बाबूजी विद्यार्थियों के लिए जो लिखते थे वह ऐसा लिखते थे जो पाठक को अच्छी तरह समझ में आ जाये।
बाबू जी के स्वर्गवास के बाद 50 वर्ष तक उनके लेखों की पाण्डुलियां हमने अपने घर बहुत अच्छी तरह सुरक्षित रखीं। अब हमने यह पाण्डुलियों नेहरू स्मारक संग्रहालय एवं पुस्तकालय तीन मूर्ति भवन, नई दिल्ली को भेंट कर दी है साथ में हमने बाबूजी के पास आये पत्र और उनके द्वारा लिखे लगभग 195 पत्र भी भेंट कर दिये हैं। कुछ पाण्डुलियां तथा पत्र हमने भोपाल में दुष्यन्त कुमार स्मारक पाण्डुलिपि संग्रहालय को भी भेंट किये है। यहाँ बाबूजी के कपडे भी भेंट किये है ताकि यहाँ सुरक्षित रहे।
- विनोद शंकर गुप्त
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