Kathakar Sanjeev Ke Upanyas Mein Adivasi Jan Jivan
संजीव के उपन्यासों में चित्रित आदिवासी जनजीवन
इक्कीसवीं सदी के इस वर्तमान दौर में जिन हिन्दी कथाकारों ने हिंदी साहित्य में अपना महत्वपूर्ण स्थान बनाया है। उसमें संजीव जी का नाम श्रेष्ठ कथाकार के रूप में सर्वोपरि है। उन्होंने अपनी प्रतिभा से हिंदी उपन्यास साहित्य को समृद्ध बनाने का काम किया है। उनके उपन्यासों का प्रमुख विषय है आदिवासी समाज का जन जीवन और संस्कृति।
संजीव जी के 'धार' उपन्यास में आदिवासी जीवन संघर्ष और शोषण का चित्रण हुआ है। इस उपन्यास के केंद्र में आदिवासी नारी मैना है। मैना के परिप्रेक्ष्य में आदिवासी जीवन संघर्ष और चेतना का चित्रण हुआ है। संथाल आदिवासी किस प्रकार भूख से बेहाल है इसका चित्रण उपन्यास की नायिका मैना कहती है- "धन्न मनाऊँ रेल कंपनी का कि बछड़ा बकरा कट जाता है हमको भोज खाने को मिल जाता। धन्न मनाऊँ रेलवई पुलिस का हमको सिलतोड़ी कटाता हमरा बहिन बेटी माँ के साथ रंडीबाजी करता कि हमको दू-चार पैसा भेटा जाता, धन्न मनाऊँ सरदार निहालसिंह का कि हमारा चोरी हजम करके टरक से रेलवई कारखाना का कुड़ा हियाँ फेकता कि हम लोहा पीतल बाज बाज के उनको बेचकर पेट चलाता है।" इस तरह भूख से बेहाल होकर उपन्यास की मैना और उसका पति मंगर सरकारी खदानों से कोयले की चोरी करते हैं। चोरी करते समय पुलिस के जवान उसे पकड़कर उन पर अत्याचार करते हैं। इसी प्रकार ठेकेदार भी आदिवासियों को धमकाकर उनका अर्थिक, शारीरिक और लैंगिक शोषण करते हैं।
'पाँव तले की दूब' इस उपन्यास में आदिवासी अपने पेट भरने के लिए बगुले मैनाएँ, सारस और लोमड़ी का शिकार करते हैं। प्रस्तुत उपन्यास में ह 'झारखंड' के आदिवासियों का दर्द भरा चित्रण संजीव जी ने किया है। यहाँ के उद्योगपति नए-नए उद्योग शुरु करने के लिए आदिवासियों की जमीन हड़प लेते हैं। उपन्यास का नायक भ्रष्ट अधिकारियों के शोषण को देखकर कहता है-"यू नो, झारखंड खनिज संपदा का भंडार है। नए-नए उद्योग लगाए जा रहे हैं, दुनिया की पगध्वनि सुनने अगर सरकार इमानदारी से इनका हक दे तो एक ही छलाँग में कई मंजिले अपने आप तय हो जाती हैं-पर अन्याय देखो, आदिवासियों को, जिनकी जमीन पर ये कारखाने लग रहे हैं, उन्हें टोटली डिप्राइव किया जा रहा है-इस संपत्ति में उनकी भागीदारी तो खत्म की जा रही है, उन्हें जमीन से भी बेदखल किया जा रहा हैं, मुआवजा भी अफसरों के पेट में।"
संजीव जी ने 'जंगल जहाँ शुरू होता है' इस उपन्यास में थारो आदिवासियों की दुःख और पीड़ा का यथार्थ चित्रण किया है। इस उपन्यास के प्रमुख पात्र जोगी, श्यामदेव, बिसराम आदि पुलिस, ठेकेदार, डाकू जमीनदार से भयभीत हैं। निर अपराधी युवक भिसराम को पुलिस मारपीट करते हैं और अंत में एनकांउटर भी करते हैं। भिसराम के पत्नी पर पुलिस थाने में ही बलात्कार किया जाता है। इस प्रकार संजीव जी ने पुलिस अफसरों का यथार्थ रूप उजागर किया है। पुलिस द्वारा आदिवासियों पर किए गए शोषण अत्याचार आदि का चित्रण अधिक मात्रा में दृष्टिगोचर होता हैं। इससे स्पष्ट है कि आदिवासियों का आर्थिक शोषण, अज्ञान, अंधश्रद्धा, असुरक्षा, अभावग्रस्त जीवन नारी शोषण आदि का चित्रण संजीव जी ने किया है।
'धार' उपन्यास की मैंना, 'जंगल जहाँ शुरु होता हैं' का भिसराम, पाँव तले की दूब का काली यह पात्र आरोपित न होकर संपूर्ण भारतीय आदिवासियों का प्रतिनिधित्व करनेवाले जीवंत पात्र है। दिन रात खदानों में कड़ी मेहनत करने के बावजूद भी उन्हें दो समय की रोटी नहीं मिलती। गरीबी, भुखमरी, कच्चा मांस खाना, संबंधों की कटुता, अभाव, नारी देह का खुला व्यापार, बाल विवाह वधूमूल्य, धार्मिक आडंबर व्यसनाधीनता के कारण संथालों के आदिवासी जीवन का यही यथार्थ चित्रण हैं। अज्ञान के कारण जादू-टोणा, बली प्रथा, भूत- प्रेत, तंत्र-मंत्र आदि का चित्रण संजीव के उपन्यासों में दृष्टिगोचर होता है। उनके धार्मिक जीवन में लोकगीत, लोकनृत्य, बधना, कर्मा, सरहूल आदि का चित्रण मिलता है। आदिवासियों के श्रम पर ठेकेदार, माफिया, पूँजीपति, दलाल, कारखानादार, अधिकारी आदि संपन्न होते हैं। उनका जीवन मात्र अभाव ग्रस्त और असुरक्षित है।
संजीव जी के उपन्यास में जंगल में जीवन जीनेवाले कोली, अंध, संथाल कोकरु आदि आदिवासियों की जनजातियों की दयनीय अवस्था का चित्रण हुआ है। उनके पास न रहने के लिए घर हैं, न तन ढ़कने के लिए कपड़ा, न पेट भरने के लिए दो वक्त की रोटी है। यही आदिवासी जीवन की व्यथा का वास्तविक चित्रण हमें देखने को मिलता है।
'सावधान! आग नीचे है' उपन्यास में संथाल आदिवासियों की मानसिकता, देवी देवता खान-पान, पूजा, रीति-रिवाज, परंपरा, पर्व त्यौहार, बलिप्रथा पंचायत आदि विभिन्न संदर्भों का चित्रण मिलता है। उपन्यास में लोकगीत और लोकनृत्य आदि के माध्यम से संथाल आदिवासियों की संस्कृति उभरी है। इसी कारण शर्मा मंगर से कहते हैं "आदिवासी औरतें सर पर एक गमछा रख लेंगी जो पीठ के नीचे तक फैला होगा चाहे वे कोयला ही क्यों न ढो रही हों। जबकि दूसरी देशवाली औरतों में ये चीज आपको नहीं मिलेगी। आदिवासी संस्कृति तो इस मामले में आर्य संस्कृति से बेहत्तर थी, भले ही वे साँवले और आर्य गोरे।" इससे स्पष्ट होता है कि, संजीव की लोक संस्कृति के प्रति गहरी आस्था है। उनके उपन्यासों में लोकसंस्कृति के विभिन्न संदर्भ रूपायित हुए हैं।
'संजीव जी ने किशन गढ़ के अहेरी' उपन्यास में किशन गढ़ के इतिहास और वहाँ की शोषण परंपरा का वास्तविक चित्रण प्रस्तुत किया है। उन्होंने जातिगत, आर्थिक, धार्मिक, व्यवस्थागत अधिकारी वर्ग और नारी शोषण का चित्रण करके किशन गढ़ में चल रहे दमन चक्र को रेखांकित किया है।
संजीव जी के उपन्यासों में आदिवासियों की दीन-हीन एवं दयनीय अवस्था का वास्तविक चित्रण हुआ है। संजीव के उपन्यास जंगलों में अपना जीवन जीनेवाले आर्थिक दृष्टि से वंचितों का दहकता दस्तावेज है। उनके उपन्यासों में आदिवासियों की अंधश्रद्धा, अज्ञान, अत्याचार, गरीबी, भुखमरी आदि का चित्रण दृष्टिगोचर होता है। उनके उपन्यासों में पुलिस द्वारा आदिवासियों पर किए गए आर्थिक शोषण, अत्याचार, शारीरिक शोषण, अन्याय आदि का चित्रण दृष्टिगत होता है।
निष्कर्ष :
निष्कर्ष रूप में कहा जाता है कि, संजीव ने अपने उपन्यासों में आदिवासी समाज और संस्कृति के साथ-साथ उनके जीवन संघर्ष को भी प्रस्तुत किया है। आदिवासी लोगों का जीवन, लोकसंस्कृति, आदि का चित्रण करने में संजीव सफल हुए हैं।
संदर्भ एवं आधार ग्रंथ सूची :
1. हिंदी में आदिवासी जीवन केंद्रित उपन्यासों का समीक्षात्मक अध्ययन - डॉ. बी.के. कलासवा
2. आदिवासी विमर्श - सं. राणू कदम
3. धार - संजीव
4. पाँव तले की दूब संजीव
5. जंगल जहाँ शुरु होता है - संजीव
6. सावधान! आग नीचे है - संजीव
- डॉ. नवनाथ गाड़ेकर
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