Billesur Bakriha : Shri Suryakant Tripathi Nirala
प्रगतिशील चेतना की सफल अभिव्यक्ति : बिल्लेसुर बकरिहा
वर्तमान समय में 'प्रगतिशील' शब्द व्यापक और उदार अर्थ में प्रयुक्त होता है। अपने-अपने युग की परिस्थिति के अनुरूप प्रत्येक साहित्यकार प्रगतिशील होता हैं, क्योंकि जीवन से विमुख रहकर वह सजीव साहित्य का निर्माण कर ही नहीं सकता। 'चेतना' में स्फुल्लिंग होता हैं, जो हैं उसे बदलने की कोशिश होती है। अर्थात् चेतना जीवंतता का लक्षण है।
आधुनिक हिन्दी साहित्य के सर्वाधिक विवादग्रस्त और साहित्य को बहुत दूर तक प्रभावित करने वाले कृति लेखक का नाम हैं- सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' । निराला के चरित्र के संबंध में अरूण कमल ने लिखा हैं - "हमारे समाज ने भी निरंतर लेखकों के आचरण और चरित्र पर अपनी नजर रखी है और कई बार तो चरित्र के आधार पर ही अपनी राय भी बना ली है। निराला-मुक्तिबोध के प्रति आदर का एक कारण उनके चरित्र ही उदात्तता भी रही है जो दुर्लभ होती जा रही है।" उनका संबंध सहज ही उस महान् सांस्कृतिक जागरण से जोड़ दिया जाता हैं जो- राजा राममोहन राय, रामकृष्ण परमहंस, दयानंद सरस्वती और स्वामी विवेकानंद के द्वारा अग्रेषित हैं। "निराला के समूचे साहित्य का वैशिष्ट्य उनकी विश्व-मानवतावादी दृष्टि है। यह दृष्टि उस संभाव्य को, उस मानवीय सरोकार कोतलाशती है, जो मनुष्य को उसकी सामयिक चिंताओं से मुक्ति दिला सके। इसी क्रम में वे जहाँ परंपराओं को तोड़ते हैं, वही परंपराओं से गहरे जुड़ते भी हैं। शंकर, रामानुज, तुलसी और विवेकानंद का जीवन-दर्शन, अरविंद तथा रवींद्र का व्यापक जीवन बोध, भारतेंदु युगीन हिन्दी प्रेम और राष्ट्रीय चेतना उनमें एक साथ मौजूद है।"
निराला जी गद्य-रचनाएं उनके काव्य के अंतरंग रहस्यों को समझने में, विविध आयामों में उनके निरूपण के लिए एकऐसा परिदृश्य निर्माण करती हैं, जिससे सहज ही उनके संबंध में उठाए गए विवादों का अंत हो सकता है। निराला के व्यक्तित्व की तहें भी उनकी गद्य-रचनाओं से ही खुलती हैं- उनका स्वयं का आत्मचरित् उनकी कथा-कृतियों में आया है। उनके रचना- वत्तृ में कविता और गद्य परस्पर ऐसी अन्विति का आभास देते हैं कि दोनों का पक्ष मानों समग्रतः एक बृहत्तर रचना के ही अविभाज्य अंग हैं। रंजना अरगडे के शब्दों में- "निराला लगातार अभिव्यक्ति और शैली की नई राहें खोजते रहे हैं। वे परतंत्रता और स्वतंत्रता दोनों ही स्थितियों में स्वाधीन थे, वे सामाजिक रूढ़ियों से भी मुक्त थे-उनका कथा-साहित्य इसका उदाहरण है।"
निराला के साहित्यिक जीवन की कहानी एक कला प्रयोगों के पुरसकर्ता की कहानी है। कविता में निराला मुक्तछंद के आविष्कारक हैं, नये विषयों की खोज करने वाले हैं, भाषा में नई बुनावट लानेवाले हैं, और गद्य में अपने रेखाचित्रों के माध्यम से यथार्थवादी व प्रगतिशील साहित्य के द्रष्टा हैं। उन्होंने रेखाचित्रों की अनुभूत वास्तविकता चारित्रिक विशेषताओं का उभार और व्यंजना शक्ति सहसा उनकी इलाहाबाद के पथ पर पत्थर तोड़ने वाली स्त्री तथा भिखारी पर लिखी हुई कविताओं का स्मरण करा देते हैं। जैसे 'भिक्षुक' कविता की यह पंक्तियां
"वह आता, दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता । पेट-पीठ दोनों मिल कर हैं एक, चल रहा लकुटिया टेक, मुट्ठी भर दाने को भूख मिटाने को, मुंह फटी पुरानी झोली का फैलाता, दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता।"
निराला का रेखाचित्रकार ही इस कविता में शब्दों से रेखाओं का काम ले रहा है। उनके काव्य में कई स्थल हैं जहां उनका रेखाचित्रकार अपना कौशल दिखाता हैं। गद्य में उनके चार रेखाचित्र हैं-देवी, चतुरी चमार, बिल्लेसुर बकरिहा तथा कुल्लीभाट ।
निराला ने 'विल्लेसुर बकरिहा' में व्यक्ति-चरित्र को उसकी समग्रता में प्रस्तुत किया है। उन्होंने इस रेखाचित्र में स्थूल और महीन रेखाओं को वह आनुपातिक सौष्ठव दिया है कि चरित्र की उभरी हुई और स्पष्ट विशेषताओं में अंतर्निहित प्रामाणिक सूक्ष्मता अपनी विश्वसनीयता से पुकार-पुकार कर कहती हैं, रेखाचित्र की सूक्ष्म व पैनी दृष्टि में दूरदर्शिता और वस्तुनिष्ठता के समावेश से ही विश्वसनीयता का तत्त्व उभर सकता है अथवा नहीं। व्यक्ति 'बिल्लेसुर' का चरित्र संपूर्ण कृति में बिखरा पड़ा हैं, जो रंगीन और आकर्षक तो नहीं किन्तु एक तीखापन लिए होने के कारण दूर से ही पहचाना जाने वाला एवं हृदयग्राही हैं। अपितु इसके चरित्र में 'प्रगतिशीलता' का दर्शन होता है।
'बिल्लेसुर' ने एक अशिक्षित, साधनहीन एवं गंवई- गांव के व्यक्ति के रूप में अपनी जीवन-यात्रा शुरू की है किन्तु अपनी सीमाओं में वे बंदी बने रहीं रहें। उन्होंने हमेशा आगे बढ़ने का प्रयास किया। अपने पर कभी भी उन्होंने रूढ़ियां और गतानुगतिकता को हावी नहीं होने दिया अपितु एक साधारण ग्रामीण जन के व्यक्त्वि में जो भीरूता और अकर्मण्यतः प्रायः मिलती है किन्तु 'बिल्लेसुर' के व्यक्तित्व में उनका सर्वथा अभाव है। जाति से 'ब्राह्मण' होने पर भी 'बकरी' पालने का व्यवसाय अपनाकर उन्होंने अपनी 'प्रगतिशीलता' की सूचना दी है। पहले दिन 'बिल्लेसुर' गांव के रास्ते बकरियों को लेकर निकले। रामदीन मिले कहा- "ब्राह्मण होकर बकरी पालोगे ? रास्ते पर जवाब देना बिल्लेसुर को वैसा आवश्यक नहीं मालूम दिया। सांस रोके चले गये। मन में कहा, जब जरूरत पर ब्राह्मणों को हल की मूठ पकड़नी पड़ी है, जूते ही दुकान खोलनी पडी है। तब बकरी पालना कौन बुरा काम है।"
'बिल्लेसुर' ने अपनी आर्थिक स्थिति को अच्छा बनाने को लिए कई साहसिक प्रयोग किए। इन प्रयोगों को देखकर लोग चौके और उनका उपहास तक किया, पर वे अड़िग भाव से कार्य करते रहें बकरियों के दूध के सदुपयोग के लिए भी इन्हें प्रयोग करने पड़े। खोया बनाने में जब वह मात्रा में बहुत कम निकला तो उनका मन छोटा हुआ और जब हलवाई ने भी बकरी के दूध के खोये को लेने से इंकार कर दिया तो इन्हें अपनी चालाक बुद्धि से ही दूध के उपयोग का विकल्प सोचना पड़ा। और अंततः दूध से मक्खन निकालकर मक्खन में चौथाई भैंस का घी मिला कर उसे छटांक आधा पाव सस्ते भाव में बेचने में वे सफल हो ही गये। ऐसे ही प्रयोग उन्होंने खेती में भी किए हैं। गांव लौटने पर उन्होंने बंटाई उठाये खेतों में से एक खेत स्वयं काश्त के लिए ले लिया था। वर्षा की पहली बौछार ने भूमि को गीली बना दिया था । "किसानी के तंत्र के जानकार बिल्लेसुर पहली वर्षा की मटैली सुगंध से मस्त होते हुए मौलिक किसानी करने की सोचने अपनी इस धुन में बकरियों को लिए जा रहे थे। .. बिल्लेसुर ने निश्चय किया कि छः सात दिन में अपने काम भर की जमीन वे फावडे से गोड़ डालेंगे। गांव के लोग और सब खेती करते हैं, शकरकंद नहीं लगाते। इसमें काफी फायदा होगा। फिर अगहन में उसी खेत में मटर बो देंगे। एक अच्छी रकम हाथ लग जाएगी। हल बैल का साधन अनुकूल था। फावडे से खेते गोडते देखकर गाँव के लोग मजाक करने लगे, लेकिन बिल्लेसुर बोले नहीं, काम में जुटे रहे। लोग पूछते थे, क्या बोने का इरादा है ? बिल्लेसुर कहते थे- भंग। एक दिन लोगों ने देखा, विल्लेसुर शकरकंद लगा रहे हैं। और फसल तैयार होने पर खरीदार आया और 70 रूपये की बिल्लेसुर ने शकरकंद बेची। सारे गांव में तहलका मच गया। लोग सिहाने लगे। अगले साल सबने शकरकंद लगाने की ठानी।
हम 'बिल्लेसुर' की प्रगतिशीलता उनके धार्मिक विश्वास के प्रसंगों में भी देख सकते हैं। पुरी में तीर्थाटन के समय 'बिल्लेसुर' ने आग्रह पूर्वक जमादार सतीदीन से गुरूमंत्र लिया था, लेकिन मंत्रजाप से उन्हें जब कोई विशेष लाभ नहीं दिखाई दिया तो "एक दिन वे अपनी कंठी ओर काला लेकर गये और गुरूआइन के सामने रखकर कहा, मैंने देश जाने की छुट्टी ली है। लौटू या न लौटू कहने को क्यों रहे, यह माला है और यह कंठी लो अब मै। चेला नही रहेंगा, जैसे गुरू वैसे तुम, यह तुम्हारा मंत्र है। कहकर गायत्री मंत्र की आवृत्ति कर गए और सुनाकर चल दिए, फिर पैर भी नहीं छुये।" इसी संदर्भ में एक दूसरा प्रसंग देख सकते है। गांव में बकरियां पालते हुए भेड़िए का भय बना रहता था, इसलिए गांव के मंदिर में जाकर उन्होंने महावीर जी से बकरियों की कल्याण कामना की। परंतु जब 'बिल्लेसुर' का एक पुष्ट बकरा गांव के शरारती लड़कों के द्वारा मारा गया और महावीर जी ने अपने विश्वास की रक्षा नहीं की तो 'बिल्लेसुर' उसी शाम "चबूतरे-चबूतरे मंदिर की उल्टी प्रदक्षिणा करके, पीछे महावीर जी के पास गए। लापरवाही से सामने खड़े हो गए, और आवेग में आकर कहने लगे-देख में गरीब हूँ। तुणे सब लोग गरीबों का सहायक कहते हैं, मैं इसीलिए तेरे पास आता था और कहता था, मेरी बकरियों को और बच्चों को देखते रहना । क्या तूने रखवाली की, बता, लिए थूथन-सा मुंह खड़ा है ? कोइ उत्तर नहीं मिला। बिल्लेसुर ने आंखों से आंखें मिलाए हुए महावीर जी के मुंह पर डंडा दिया कि मिट्टी का मुंह गिली की तरह टूटकर बीघे भर के फासले पर जा गिरा।" इन दोनों उदाहरणों से स्पष्अ हो जाता हैं कि 'बिल्लेसुर' के धर्म संबंधी विश्वास में अंधश्रद्धा का तत्त्व नहीं था। विशुद्ध उपयोगितावादी दृष्टि से उनका धार्मिक विश्वास परिचलित था। जिस क्षण उन्हें अनुभव हुआ कि उनका विश्वास निरूपयोगी है, उसी क्षण उन्होंने उसका त्याग किया।
अंत में इतना ही कहा जा सकता हैं कि हमारे सम्मुख नाटे कद व झुर्रियों से भरे मुख के 'बिल्लेसुर' का चित्र सजीव हो जाता है जिसका अंतर्बाह्य हमारे लिए खुली हुई पुस्तक के समान है। जो भीतर से कठोर, परिश्रमशील, व्यवहारकुशल, - प्रगतिशील, सहिष्णु, धैर्यवान और विवेक से काम लेनेवाला है तथा बाहर से गंभीर प्रकृति का, मित्तभाषी और गूढ हंसी हंसने वाला है। इसी चरित्र को निराला जी ने 'बिल्लेसुर बकरिहा' का विषय बनाया है।
- डॉ. माजिद शेख
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