Adhunik Upanyas Mein Nari Jivan : Problems of women's life in modern novels
आधुनिक उपन्यासों में नारी जीवन की समस्याएँ
सृष्टि योजना में नारी का स्थान पुरुष की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण है। इसी कारण वह जगत की पूजनीय है। पुरुष प्रधान समाज में नारी अपनी सुरक्षा नहीं पा रही है। पुरुष का सच्चा प्रेम उसे नहीं मिल पा रहा है। पुरुषों की उद्धत काम-वासना का शिकार होकर नारी पतितावस्था को पहुँच रही है। परिस्थितियों के बहाव में नारी अनेक पुरुषों के सम्पर्क में आ रही है। और वह अपने सतीत्व की रक्षा नहीं कर पा रही है। नारी के आत्मसमर्पण का अनुचित लाभ उठाकर पुरुष उसे धोखा दे रहा है। पुरुष के द्वारा अनेक स्थानों में छली गयी नारियों का चित्रण इक्कसवीं सदी के उपन्यासकारों ने अपने उपन्यासों में किया है।
मृदुला सिन्हा ने नारी के स्वभावगत व्यक्तित्व विशेष के आधार पर विविध रूपों एवं सर्वसाधारण व्यक्तिगत आधार पर नारी के विविध वर्गों पर प्रकाश डालते हुए अंकन किया है। मुदृला जी ने नारी को सृष्टि की उपमा दी है। लेखिका ने 'बिठिया है विशेष' में बेटी का विदेश भेजने के बाद एक ही चिट्ठी लिखने की सोंची थी, परन्तु अनेक लिखी। इन चिट्ठियों का एयर इंडिया की बहु चर्चित पत्रिका स्वागत में प्रकाशित हुआ जिसे हवाई जहाज में बैठे असंख्य पाठकों ने इसे सराहा प्रायः वे अपनी बेटियों के लिए पत्र अपने साथ ही ले जाते क्योंकि तब उन्हें लगता कि यह चिट्ठियाँ एक तरह से ऐसी धरोहर है जिन्हें हर माता-पिता और बेटी बढ़ने एवं सराहना चाहेगी। संतानों में लड़के-लड़कियों में फर्क होता है। लड़कियाँ अधिक सुनती और गुणती है। प्रख्यात साहित्यकार महादेवी वर्मा ने कहा था-"पुरुष आवारा हो रहा है तो होने दो। बेटियों को संभाल लो। समाज का भविष्य संभल जाएगा। पीढ़ियाँ संभालेंगी। संभवता इसलिए आए दिन अपनी बेटियों को माँ अधिक सुनाती है।"¹ मैं ने अपनी बेटी को ढेर सारी बातें बताई कथाएँ सुनाएँ। गीत सुनाए, पर लगता है मानो बहुत बातें अनकही रह गई। जब बेटी दूर हो गई तो अनकही चिंता अधिक होने लगी। इसलिए उसे पत्र लिखने लगी। फिर ध्यान आया- "मेरी बेटी की उम्र की तो लाखों बेटियाँ हैं। उनकी भी बेटियाँ होंगी। क्यों न इन पत्रों को प्रकाशित करवाऊँ। वे लाखों भी पढ़े, जिन्हें जिज्ञासा है।"²
नारी सदियों से निर्बल, आत्मबल, मजबूर और अताश होकर सदियों से उस पर आने वाले अन्याय और अत्याचार को चुपचाप सहती आ रही है। यहाँ तक कि भेड बकरी की तरह सौदा किया जाता है। और चुपचार जिस परिस्थितयों में बाँधी हुई है, वहाँ वह अनिवार्य स्थितियों में चुपचाप रहती और सहती है।
'अगनपाखी' उपन्यास में भुवन के ससुराल में भुवन के पिता, सास, जेठ, अजयसिंह और जेठानी (कुसुम) का भरा-पूरा परिवार था। ससुराल जाने के बाद भुवन को पता चलता है कि उसके पति की मानसिक स्थिति अच्छी नहीं थी। भुवन के साथ धोखा हुआ था। भुवन को अपने पति के हर छोटे-मोटे कार्य अपने हाथ से करने पड़ते थे। परम्परानुसार जब भुवन पहली बार मायके आती है तो वह ससुराल न जाने की जिद करती है जिससे नानी सकती करने पर ससुराल न जाने का कारण पूछने पर अपने पति के पागलपन के बारे में भुवन बताती है। उसकी माँ कहती है कि भोलेपन को पागलपन नहीं कहते। तो भुवन कहती है- "भोरे का नाम पागल है। पागल को भोरा कह लो पर मैं तो यह नहीं मान रही।"³ जिसमें माँ चिढ़कर कहती है- "हमने ब्याह में पईसा झोका सो विरथा ? चंदन को लेकर भागना था तो भाग जाती। तेरे जुल्म तो देख लेते।"⁴ माँ, नानी के लिए भुवन फिर से ससुराल चली जाती है।
भुवन दिन-रात अपने पति की सेवा में लगी रहती थी। उसे कहीं जाने की आजादी न होने के कारण वह मंदिर जाकर कुछ देर रही सहीं घर रूपी जेल से आजादी पा लेती थी। किन्तु घरवालों को भुवन का मंदिर जाना पसंद नहीं था। कुछ दिनों बाद विजय को आगरा के एक मासिक अस्पताल में दाखिल कराया जाता है। विजयसिंह अस्पताल जाने के बाद सास-बहु को बिना कारण ही जली-कटी सुनानी लगती है। चंदर का बार- बार ससुराल आना ससुराल वालों को पसंद नहीं आता कुँवर अजयसिंह दामिनी नामक लड़की का रिश्ता चंदर के लिए लाते हैं। किन्तु बाद में पता चलता है दामिनी मंदिर के पुजारी राजेश से प्यार करती थी। किन्तु अलग जाति के होने के कारण वे अपने प्यार समाज के सामने व्यक्त करने में डरते थे।
मैत्रेय पुष्पा जी की यर्थाथवादी जीवन-दृष्टि उनकी रचनाओं में संघर्ष में पाई जाती है। कुछ दिनों बाद पुजरी चंदर को बताता है कि कुँवर विजयसिंह नहीं रहे और भुवन सती होना चाहती है। चंदर को आश्चर्य होता है कि भुवन कभी जिन्दगी से हार मानने वाली नहीं थी, जब वो पति की मौत पर नहीं रोई तो फिर कैसे सती हो सकती है।
सती होने से पहले सास और जेठानी अच्छी से अच्छी साड़ियाँ भुवन के सामने रखकर उसे समझाती है कि सती होना मामूली खेल नहीं है। फिर सास सोचती है कि सती की इच्छा को ललकारना भी मामूली बात नहीं है, इसलिए सास उसकी अंतिम इच्छा मालूम करती है, जेठानी उसक हाथों में कंगन पहनाती है, पाँवों में नए बिछुए, चूडियाँ आदि सात सिंगार करने के बाद जब उसे अपनी इच्छा कहने का वक्त आता है, तब वह देवी की पूजा की इच्छा व्यक्त करती है।
भुवन अपनी जेठानी के संग देवी की पूजा के लिए मंदिर जाती है, और मंदिर के गर्भग्रह के बाहर ही खड़ी रहती है, क्योंकि पुजारी की इजाजत के बिना कोई भी अन्दर नहीं जा सकता था, भुवन मंदिर के अंदर जाकर देवी दुर्गा के चरणों में सिर रखकर जोर-जोर से रोने लगती है, पुजारी भुवन को मंदिर के गुप्तद्वार जिसका मंदिर के पुजारी के अतिरिक्त किसी को पता नहीं था उस द्वार से बाहर भेज देता है। जहाँ पूर्व निर्धारित योजनानुसार चंदर उसे मिलता है और वे दामीनी द्वारा दिए डॉ. सीता किशोर खरे और डॉ. कामिनी के पते की ओर चल पड़ते हैं।
दूसरी तरफ भुवन का इस तरह लुप्त हो जाना लोग देवी की लीला समझते हैं। स्त्री के अस्तित्व की तलाश तब तक पूरी नहीं होती जब तक वह वर्गों में बँटकर निजी स्वार्थों और सुविधाओं में विभाजित होकर जीती रहेगी।
पश्चिमी रंग में रंगों युगीन कुछ नारियाँ अस्थि मज्जा से बनी हुई एक दैहिक इकाई भी है, जिन्हें अपनी क्षुधा-तृप्ति के लिए समाज तथा उसके नैतिक अवधारणा की परवाह नहीं है।
संदर्भ सूची :
1. ठीकरे की मँगनी नासिरा शर्मा, पृ. 112
2. ठीकरे की मँगनी नासिरा शर्मा, पृ. 167
3. अतीत होती सदी और स्त्री का भविष्य समरेन्द्र सिंह, पृ. 253
4. एक जमीन अपनी चित्रा मुदगल, पृ. 87
- डॉ. वि. गोविन्द
ये भी पढ़ें; भारतीय संस्कृति में पश्चिमी सभ्यता का हस्तक्षेप