रवीन्द्रनाथ टैगोर व्यक्तित्व और कृतित्व : हिन्दी साहित्य पर प्रभाव

Dr. Mulla Adam Ali
0

Biography of Rabindranath Tagore : Impact on Hindi Literature

Biography of Rabindranath Tagore

रवीन्द्रनाथ टैगोर व्यक्तित्व और कृतित्व : हिन्दी साहित्य पर प्रभाव

अपनी अमर साहित्यिक कृति से विश्व भर के रचनाकारों व समीक्षकों के मानस को झकझोर देने वाले रवीन्द्र नाथ टैगोर का जीवन और साहित्य-सृजन भारत की तत्कालीन परिस्थितियों की देन थी।

राजा राममोहन राय, स्वामी दयानंद, स्वामी रामकृष्ण परम हंस, स्वामी विवेकानंद जैसी सामाजिक व आध्यात्मिक विभूतियों ने देश की आत्मा को जगाने के लिए एड़ी से चोटी तक का जोर लगा दिया। इन प्रयासों से भारतीयों का सोया हुआ स्वाभिमान जागना शुरु हुआ। भारतीय अतीत की शक्ति, संस्कृति की महानता और आध्यात्मिक विरासत की संपन्नता ने भारतीय जन-मानस को गौरव से भर दिया। मनुष्य जाति को संकीर्णता और स्वार्थों के टकरावों से बचाते हुए यह उसे रचनात्मक जीवन पथ पर ले जाने में समर्थ हैं। मानव जीवन की इस रहस्यमयी पृष्ठभूमि में गहराई तक उतरते हुए रवीन्द्रनाथ टैगोर ने गीतांजलि के माध्यम से एक ऐसा सच कह डाला जिसे पढ़कर पूरा विश्व हैरान रह गया।

जीवन विकास क्रम :

रवीन्द्रनाथ टैगोर का जन्म 7 मई 1861 को कलकत्ता के जोडासाकी मुहल्ले में हुआ था। उनके पिता कलकत्ता के संपन्न व्यक्ति थे। उनका नाम था महर्षि देवेन्द्र नाथ टैगोर।

रवीन्द्र नाथ महर्षि देवेन्द्र नाथ टैगोर के सबसे छोटे बेटे थे। पिता के व्यक्तित्व का उन पर भारी प्रभाव पड़ा। पिता के व्यक्तित्व से रवीन्द्र ने तीन विशेषताएँ ग्रहण की। धार्मिक अभिरुचि, सौन्दर्य बोध तथा आर-पार का व्यावहारिक ज्ञान।

रवीन्द्रनाथ टैगोर की माता का नाम शारदादेवी था। वे अत्यधिक धर्म परायण महिला थी उन्होंने 14 बच्चों को जन्म दिया। रविन्द्र आयु में सबसे छोटे थे, अतः वे सबको बहुत प्रिय थे। उनकी माता उन्हें बहुत प्यार करती थीं।

जब पिता व्यापार तथा जागीर के काम से बाहर चले जाते तब रवीन्द्र अकेले पड़ जाते थे। उन्हें पिता की बहुत याद आती थी। पिता की एक-एक बात पर वे विचार किया करते थे। इनका परिणाम यह हुआ कि उनके अन्तर्मन में पिता के गुण स्वतः ही प्रवेश करते गए। वे उन दिनों खिड़की से बाहर के दृश्यों को बहुत ध्यान से देखते, घंटों-घंटों उन दृश्यों में डूबे उनके रहस्यमय अर्थ निकालते रहते थे। घर की खिड़कियों से बगीचे के दृश्य, नहाने वाले तालाब के दृश्य बहुत ही मनोहारी लगते थे।

बाल मन की उड़ान :

रवीन्द्र जब बच्चे थे तब उनके मन में तरंगें उठती रहती थीं। उन्हें जीवन बहुत सुहावना तथा संसार रहस्यों से भरा लगता था। उनके मन में तरह-तरह के रहस्य जानने की इच्छा बलवती रहती थी कि वे कभी चैन से नहीं बैठ पाते थे।

अपने मन की कोमल दशाओं का वर्णन करते हुए, वे लिखते हैं-"दुनिया की जिन्दगी हमारे मन को कंपा लिया करती थी। जमीन, पानी, हरियाली आसमान यह सब चीजें हमसे बतियाती थीं। हम इनकी अनदेखी नहीं कर सकते थे। जमीन का राज जानने के लिए उनके मन में तरह-तरह की कल्पनाएँ आया करती थीं। हमें लगता था जमीन का ऊपरी हिस्सा तो दीखता है पर नीचे का हिस्सा क्यों नहीं दिखता। हम सोचते थे। एक के बाद एक बांस जोड़े जाएं। उन्हें जमीन के अन्दर डाला जाए तो जरूर वे जमीन के उस सिरे तक पहुँच जाएंगे और हमें जमीन का दूसरा सिरा मिल जाएगा।"

पृथ्वी के समान ही आसमान का रहस्य जानने की भी बड़ी तीव्र इच्छा रवीन्द्र के मन में रहा करती थी। वे जब-जब आसमान को देखते थे तो उनके मन में ये प्रश्न उठते थे। यह आसमान एक ही रंग का क्यों है। इसका रंग नीला क्यों है ? यह कहाँ से कहाँ तक फैला है ? हम इसके किनारों तक क्यों नहीं पहुँच पाते। अपने मन की इस दशा का वर्णन करते हुए वे लिखते हैं-

"बंगाली शास्त्र की पहली किताब के पाठ का जिक्र करते हुए हमारे पंडित जी ने एक बार कहा था कि आसमान में दिखाई पड़ने वाला यह नीला रंग कोई पुता हुआ रंग नहीं है, तब हमें बड़ा अचम्भा हुआ। हम बच्चे तो यही समझा करते थे कि जैसे हमारे घर एक खास रंग में पुते होते हैं, वैसे ही आसमान को नीले रंग से पोता गया है। फिर एक बार पंडित जी ने बताया कि कोई कितनी ही सीढ़ियां लगा ले और उन पर चढ़ता चला जाए परन्तु उसका सिर कभी आसमान से टकराएगा नहीं। तब मैंने मन ही मन सोचा कि वहां तक पूरी सीढ़ियां वे शायद लगा नहीं सकते होंगे।

रवीन्द्र की आत्मकथा ऐसे अनेक प्रसंगों से भरी पड़ी है जिन्हें पढ़ने पर पता लगता है कि उनका मन बहुत उतावला और बहुत संवेदनशील था।

शिक्षकों की कठोरता :

रवीन्द्र नाथ जब पाँच वर्ष के हुए तो उनकी बड़ी बहन सौदामिनी ने उनका दाखिला अरियंटल सेमिनारी नामक पाठशाला में करा दिया। इस पाठशाला में बंगला भाषा पढ़ाई जाती थी। रवीन्द्र को न कोई अध्यापक अच्छा लगा, न पाठशाला। उन्हें बंगला सीखने में तनिक भी रुचि नहीं थी।

उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है- "मौका मिलते ही मैं दूसरी मंजिल पर जाकर खिड़की में बैठ जाता था और अपना वक्त बिताया करता था। मैं यह गिना करता था कि एक साल बीत गया, दो साल बीत गए, तीन साल बीत गए। इस तरह गिनते-गिनते मैं सोचने लगता था-पता नहीं कितने साल अभी और बिताने पड़ेंगे इस नीरस पाठशाला में। यहां से पता नही मुझे कब मुक्ति मिलेगी।"

पिता से पढ़ने की इच्छा :

रवीन्द्र के पिता बहुत विद्वान थे और वे रवीन्द्र को बहुत प्यार करते थे परन्तु आदत और अनुशासन के नियम के अनुसार उनसे एक निश्चित दूरी हमेशा बनाए रखते थे। बंगला की पढ़ाई समाप्त होते ही रवीन्द्र को बंगला पाठशाला से मुक्ति मिल गई। उन्हें ऐसा लगा जैसे जेल से रिहा हो गए हों, परन्तु पिता ने उन्हें मुक्त नहीं रहने दिया। मेडिकल कॉलेज के मेधावी छात्र अघोर बाबू को रवीन्द्र के पिता ने उन्हें अंग्रेज़ी पढ़ाने का दायित्व सौंपा दिया।

नौकरों की तानाशाही :

रवीन्द्र के पिता महर्षि देवेन्द्र नाथ टैगोर एक ओर बच्चों को शिक्षकों से सख्त अनुशासन में रखने का समर्थन करते थे, दूसरी ओर उनके सही लालन- पालन तथा संस्कार-धारण का दायित्व उन्होंने पूरी तरह नौकरों पर छोड़ रखा था। मालिक से सर्वाधिकार पाकर नौकर इतने कठोर हो गए थे कि वे उनके साथ मनमानी किया करते थे। अनुशासन के नाम पर रवीन्द्र नाथ तथा उनके भाइयों को बड़ी पीड़ा सहन करनी पड़ती थी।

बचपन में सही गई इस पीड़ा का अहसास उन्हें उम्र भर रहा। अपनी आत्मकथा के बारे में उन्होंने नौकरों की तानाशाही के बारे में लिखा है-"जिस तरह हिन्दुस्तान के इतिहास में गुलाम घराने की हुकूमत सुखदायक नहीं थी, उसी प्रकार मेरी उम्र के इतिहास में भी नौकरों की हुकूमत का समय चैन से नहीं बीता। यद्यपि हम पर राज करने वाले नौकरों की बार-बार बदली होती रहती थी, परन्तु हमारी सताने वाली सजा में कभी भी फर्क नहीं आता था। संसार का यह कायदा है कि बड़ा आदमी दुख दे और छोटा सहन करे। इस नियम से हम परे नहीं थे। परन्तु इस नियम के विपरीत यह बात सीखने में मुझे बहुत दिन लगे कि दुख सहन करने वाले बड़े और दख देने वाले बड़े और दुख देने वाले छोटे होते हैं।"

सोलह वर्षीय संपादक :

रवीन्द्र नाथ टैगोर में बड़ी तेजी से लेखन- प्रतिभा का विकास होने लगा। 16 वर्ष की आयु तक आते-आते उन्होंने अनेक कविताएँ लिख डालीं। परिवार में अनेक लेखकों का आना-जाना था। रवीन्द्र की कविताएं उन्होंने पढ़ी तो बड़े प्रभावित हुए। घर भर में रवीन्द्र कवि के रूप में चर्चित होने लगे।

1877 में रवीन्द्र के बड़े भाई ज्योतेन्द्र नाथ ने 'भारती' नामक पत्रिका का प्रकाशन आरंभ किया। रवीन्द्र की लेखन व संपादन प्रतिभा को देखते हुए उन्होंने उनका नाम पत्रिका के पहले अंक में सम्पादक मंडल की सूची में प्रकाशित कर दिया। इसी अंक में रवीन्द्र नाथ ने 'मेघनाथ वध' नामक पुस्तक की समीक्षा दी थी। यह रवीन्द्र का पहला गद्य लेख था।

इसी पत्रिका के अगले अंक में रवीन्द्र की 'कवि-कहानी' नामक लम्बी कविता छपी। 16 वर्ष की आयु पार करते-करते रवीन्द्र जमकर कविताएं लिखने लगे। कविता के साथ-साथ गद्य विधा में भी उनकी लेखनी सक्रिय हो गई थी।

साहित्यक रचनाएँ :

काव्य संग्रह कुल 25, प्रमुख रचनाएँ 1) सांध्य संगीत, 2) प्रभात संगीत, 3) कल्पना, 4) गीतांजलि आदि। नाटक : कुल 14, प्रमुख नाटक 1) प्राकृतिक प्रतिशोध, 2) राजा ओ रानी, 3) चित्रांगधा, 4) मालिनी आदि। उपन्यास : कुल 11, प्रमुख 1) बऊ ठकुरानीर हाट, 2) गोरा, 3) चार अध्याय आदि। कहानी संग्रह : कुल 6, प्रमुख 1) पायल नम्बार, 2) तीन संगी। निबंध संग्रह : कुल 7, प्रमुख निबंध 1) भारत वर्ष, 2) साहित्य आदि।

गीतांजलि और नोबेल पुरस्कार :

रवीन्द्र की सबसे अधिक लोकप्रिय रचना गीतांजलि है। गीतांजलि के अंग्रेज़ी अनुवाद ने रवीन्द्र को विश्व के श्रेष्ठ कवियों एवं रचनाकारों की श्रेणी में स्थापित कर दिया। इस काव्य ग्रंथ को लिखने में गुरुदेव ने कई वर्ष लगाए। रवीन्द्र ने जब गीतांजलि की रचना आरंभ की तब वे चालीस की आयु पूरी कर चुके थे।

महाप्रयाण :

1933 से 1940 तक का समय उन्होंने साहित्य रचना, शिक्षण कार्य के प्रचार-प्रसार व समाज सेवा में बिताया। शांतिनिकेतन में रहकर साहित्य साधना और आध्यात्मिक साधना करते रहे। जनवरी के अंतिम दिनों में उन्हें खबर मिली-सुभाष चंद्र बोस गायब हो गए हैं, गुरुदेव का मन दुखी हो गया। अब शरीर बिल्कुल जवाब दे गया था। आयु 80 पार कर चुकी थी। अब वे प्रायः शांत बैठे ध्यान करते रहते थे। ध्यान करते-करते एक दिन उनकी तबियत बिगड़ गई। और ...1941 को कविवर की हृदय वीणा के तार निष्प्राण हो गए और उन्होंने संसार से विदा ली। उनकी मृत्यु का समाचार पूरे देश में फैल गया।

हिन्दी साहित्यकारों पर प्रभाव :

प्रकृति प्रेमी, अपनी अमर साहित्य कृतियों से विश्व भर के रचनाकारों व समीक्षकों के मानस को झकझोर देनेवालों रवीन्द्रनाथ टैगोर का प्रभाव कई हिन्दी रचनाकारों पर पड़ा क्यों कि मानव के बाह्य तथा अंतर्गत विषयों को लेकर लिखने वाले टैगोर को कई रचनाकार अपना आदर्श मानकर रचनाएँ किये। हिन्दी के प्रमुख कहानीकार मुंशी प्रेमचन्द पर टैगोर का प्रभाव गहरा था। प्रेमचन्द के पहली कहानियों में टैगोर जैसी अंतर्गत तथा बाह्य परिस्थितियों का चित्रण मिलता है। मानव जीवन में आनेवाले उतार चढ़ाव और संघर्ष को लेकर आदर्श रचनाएँ लिखी गई। टैगोर पहले कवि थे कविता करना उसका प्रमुख विधा था बाद में ही रचनाएँ किये इसलिए सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जैसे प्रमुख कवि टैगोर को आदर्श मानकर कविताएँ लिखे। आधुनिक काल के कई कवि और लेखक आज भी हिन्दी में रचनाएँ टैगोर के आदर्शों पर अपनी रचनाएँ करते हैं।

- डॉ. यम. डी. अलिख़ान 

ये भी पढ़ें; राष्ट्रीय युवा दिवस पर विशेष 2024 : युगपुरुष स्वामी विवेकानंद

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें (0)

#buttons=(Accept !) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Learn More
Accept !
To Top