The untold journey of an Indian woman
भारतीय स्त्री की अनकही यात्रा
नारी : नारी मानव का एक महत्वपूर्ण अंग है। समाज के निर्माण में पुरुष की अपेक्षा नारी का योगदान अधिक है। अनादि काल से ही भारतीय जन मानस में नारी का आदरणीय स्थान रहा है।
मनुस्मृति के अनुसार : “जहाँ नारी की पूजा होती वहाँ देवता विहार करते है। जहाँ अपेक्षा होती है, वहाँ सारे धार्मिक अनुष्टान एवं समस्त क्रिया कलाप व्यर्थ हो जाते हैं।" आदिकवि वाल्मीकी एवं महाकवि तुलसीदास ने भी नारी को समाज की एक प्रमुख शक्ति के रूप में अपने महाकाव्यों में निरूपित किया है। लावण्य, माधुर्य, सुशीलता, लज्जा, स्नेह, त्याग, सहनशीलता आदि गुणों की तो वह खान है। नारी पुरुष के हार्दिक भावों एवं मानसिक संस्कारों की निर्मात्री है।
रामायण युगीन : युगों से भारतीय समाज, में पत्नी के रूप में नारी पुरुष की सहधर्मिणी और सहचरी मानी गयी है। उसे घर की विभूति एवं अलंकार कहा गया है।
ऐतरेय ब्राह्मण में पत्नी घर की शोभा मानी गयी है। पत्नी शब्द का व्युत्पत्ति मूलक अर्थ देते हुए पाणिनी लिखते हैं कि जो यज्ञादि धार्मिक कार्यों में साथ रहे। इस तरह भारतीय समाज में पत्नी की महत्ता प्रारंभ से ही रही है।
रामायण काल में : पति को पत्नी का सौभाग्य माना जाता था। पिता-पुत्रादि के होते हुए भी लोक-परलोक दोनों स्थानों पर पति ही स्त्री का आश्रयदाता था। पति के भोजनोपरांत ही पत्नी भोजन पाती थी। श्रेष्ट वीर और धार्मिक पति पर पत्नियाँ गर्व किया करती थी, ऐसे पति को वे सर्वस्व समर्पित कर देती थी।
पतिव्रता पत्नियाँ : इस युग में पतिव्रता स्त्री को विशिष्ट सम्मान दिया जाता था। वह किसी भी स्थिति में पति का बिछड सह नहीं पाती थी। जैसे सीता वनगमन से पूर्व राम से कहती है, यदि आप मुझे त्यागकर वन को चले गये तो मैं इस दुःख के कारण अपने प्राण त्याग दूँगी, पति की सेवा करना पतिव्रता का पुनीत कर्तव्य माना जाता था।
पतिव्रता स्त्री को इस युग में भी आदर की दृष्टी से देखा जाता था। वे पति को सर्वश्रेष्ट समझती थी और अन्य संबंधों को पति के संबंध के समक्ष गौण मानती थी।
असती पत्नियाँ : ऐसी बात नहीं थी कि वाल्मीकि युगीन समाज की सभी स्त्रियाँ पतिव्रता थी। रामायण में ऐसी असती पलियों का उल्लेख मिलता है जो अपने प्रियतम के द्वारा सदा सम्मानित होकर भी संकट के समय उनका साथ छोड़ देती थी और उन पर दोषारोपण भी करती थी।
सहधर्मिणी रूप : वाल्मीकि युगीन पत्नियाँ हर धार्मिक अनुष्टान में पति की सहयोगिनी बनती थी। वे बड़े संयम के साथ अनुष्टानों के नियमों का पालन करती थी। यज्ञादि धार्मिक कार्यों को बिना पत्नी के असफल आना जाता था। यज्ञादि के बाद पत्नी अपने पति के साथ समुद्र आदि पर जाकर स्नान करती थी जिसे अवभृथ स्नान कहा जाता था।
मानस युगीन : तुलसीदास युगीन पत्नी को भी वाल्मीकि युग की पत्नी की तरह महत्वपूर्ण सम्मान प्राप्त था। इस युग की पत्नी भी पति के साथ हर स्थान पर उपस्थित रहती थी। इसी कारण वे सच्चे अर्थों में पति की सहचरी और सहधर्मिणी थी शतरूपा मनू के साथ तप करने के उद्देश्य से बन गयी थी। इस युग की पत्नियाँ पति के दुःख में समभागिनी और सुख या ऐश्वर्य में अधिकाधिक आनंद प्रदान करने वाली होती थी।
वात्सल्यमयी : संतान न होने पर मातायें दुखी होती थी इसी कारण जब दशरत ने अपनी रानियों से पुत्रेष्टि यज्ञ में दीक्षा लेने की आज्ञा दी, तब उनके मुख प्रफुल्लित हो उठे थे जिन स्त्रियों को पति से सुख की प्राप्ति नहीं होती थी, वे अपने पुत्रों द्वारा सुखों की प्राप्ति की कामना करती थी।
विमाता : विमाता को पुत्र अपनी माता के समान ही आदर दिया करते थे राम इसीलिए विमाता कैकेयी से कहते हैं कि मैं केवल आपके कहने से भी अपने भाई भरत के लिए इस राज्य को, सीता को, प्यारे प्राणों को तथा सारी संपत्ति को प्रसन्नतापूर्वक स्वयं ही दे सकता हूँ। पुत्रों के मन में विमाता के प्रति किसी प्रकार के द्वेष और इर्ष्या की भावना नहीं होती थी।
शिक्षा दीक्षा :
रामायण युग : इस युग की नारियाँ सुशिक्षित थी। नारियों को गृहस्थ धर्म की शिक्षा तो उनके पितृगृह में ही माताएँ दे देती थी। विवाह के पश्चात सास भी वधु को पति सेवा का उपदेश देती थी। इस युग की नारियों को धार्मिक शिक्षा भी दी जाती थी। इसी कारण अनसूया के लिए "धर्मज्ञा" विशेषण का प्रयोग किया गया है।
मानस युगीन : तुलसीदास नारी को वैसे शिक्षा से दूर नहीं रखा जाता था किन्तु शिक्षा केवल उच्च वर्ग की ही नारियों तक सीमित थी। सामान्य नारी को शिक्षा की सुविधा नहीं थी।
आधुनिक नारी : शिक्षा के प्रसार, प्रचार और नारी जागरण के फलस्वरूप आज की नारी में सामाजिक जागरूकता बढने लगी है। परिणामतः वह परिवार के सीमित एवं संकुचित दायरे से निकलकर समाज, सृष्टि एवं मानव जीवन का ज्ञान प्राप्त करके अपने व्यक्तित्व का विकास करने लगी है। वह अपने अधिकारों के प्रति जागरूक होकर पुरुष के समान स्तर एवं समान अधिकार की मांग करने लगी है। आज वह पुरुष की सहचारिणी या दासी नहीं बल्कि उसकी सहयोगिनी और मित्र है, फलस्वरूप आज वह सामाजिक पराधीनता, पुरुष अधीनस्थता, प्रचलित आदर्शों, विश्वासों, मान्यताओं, तथा रुढियों के बन्धनों से मुक्त हो रही है। अपने व्यक्तित्व की सार्थकता के लिए संघर्षता दिखाई देती है। वह समाज में अपना अस्तित्व और महत्व स्वयं निश्चित कर रही है।
आधुनिक युग में नारी अर्थात् बहु, बेटी तथा पत्नी भी परिवार का सबल आधारस्तंभ बन रही है। वह अर्थार्जन करके परिवार के आर्थिक अभावों को दूर कर रही है। अर्थप्राप्ति के लिए वह नए-नए तरीकों एवं विविध व्यवसायों को अपना रही है।
निष्कर्ष : आधुनिक शिक्षित नारी अर्थार्जन करके परिवार के लिए सबल बन रही है। वह परिवार तथा दफ्तर के दोहरे कार्यभार को कुशलता से निभा रही है। वाल्मीकि और तुलसी युगीन काल के नारी अधिक से अधिक गृहकार्यों पर पति की सेवा में लीन होते थे मगर आधुनिक नारी अपने अधिकारों के प्रति सजग, आत्मनिर्भर नारी पारिवारीक शोषण को अपना दुर्भाग्य मानकर चुप नहीं बैठती, बल्कि वह अन्याय का विरोध कर रही है, उसमें मानसिक दृढ़ता एवं आत्मविश्वास झलक रहा है। वर्तमान युग से उसे परंपरागत धारणाओं तथा आधुनिक परिवर्तन की चुनौतियों को विवेक की कसौटी पर रहना होगा और नयी चुनौतियों को स्वीकार करके समाज तथा राष्ट्र की निरंतरता के लिए आधारस्तंभ बनना है। नारी परिवार की नीव होती है। नारी अपनी गरिमा विवेक एवं समर्पण से परिवार तथा समाज को सशक्त बना सकते हैं।
संदर्भ ग्रंथ :
1. वाल्मीकि तथा तुलसीदास के नारी पात्र- पृ. 48 डॉ. सन्तोष मोटवानी
2. महिला उपन्यासकार पारिवारिक जीवन बदलते संदर्भ - पृ : 176 डॉ. कल्पना किरण पटोके
3. वाल्मीकि तथा तुलसीदास के नारी पात्र -पृ : 39
4. हिन्दू सभ्यता : राधाकुमुद मुखर्जी पृ : 144
- लक्कर्सु सुजाता
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