Essays of Babu Gulab Rai
डॉ. गुलाबराय के निबंधों में अभिव्यक्ति की सच्चाई
सच्ची बात विश्वसनीय होती है। सच्चाई को प्रकट करना ही सत्य की ऊँची शिक्षा है। निबंध कवि-आत्मा के दूरावहीन विस्तार का एक विराट मंच है। साहित्यकार अपने जीवनानुभव की सच्चाई निबंधो में जितनी ईमानदरी से अभिव्यक्त करता है, उतनी सच्चाई साहित्य की दूसरी विधाओं में मिलना मुश्किल है। निबंधकार अभिव्यक्ति के सभी बन्धनों एवं उपचारों से मुक्त होकर एटहोम फील करता है। इसमें लेखक और पाठक के बीच आत्मियता को बनाए रखने के लिए सच्ची बातों की अभिव्यक्ति दिल को छू जाती है। एक दूसरो का प्रत्यक्ष साक्षात्कार करते हुए दोनो एक मौन मानसिक निकटता का अनुभव करते हो। निबंधों में न तो लेखक को पात्रों को मुखौटे पहनने पडते है और यवनिका के पीछे पर्दानशीन होने की विडंम्बना सहन करनी पडती है। बातचीत में कृत्रिम भाषा का प्रयोग नहीं करना पडता। निबंध आत्माभिव्यक्ति का एक अत्यन्त बेतकल्लुफ आत्मीय धरातल है।
डॉ. बाबू गुलाबराय के ललित निबन्धों में अभिव्यक्ति की सच्चाई जिसमें आत्मिय धरातल का महत्वपूर्ण विस्तार मिलता है। गुलाबराय कहते हैं- "मैं इस धरातल को एक ऐसी उर्वर भूमि मानता हूँ जो निबन्धकार के आत्म-तारल्य से खिंचकर एक अपूर्व लालित्य को अंकुराती है।" डॉ. गुलाबराय के निबंध एक बार पढ़ लिये तो पाठक अनायास उनके निकट सरक जाता है ओर एक घनिष्ठता अपनापन उसे लगने लगता है।
गुलाबराय के निबन्धों की प्रमुख विशेषता उनकी अति ईमानदार एवं साहसिक अभिव्यक्ति है। यह निबन्धकार की पाठक के प्रति विश्वास-भावना का सापेक्षित रूप है। पहले तो पाठक पर सहज ही विश्वास जगना कठिन होता है जिसके बिना अपनी एकान्त वैयक्तिकता अथवा राज की बात नहीं कही जा सकती। इस दृष्टि से गुलाबराय के निबन्ध विश्वास और साहस की विशद परिणति माने जा सकते है। इनमें अभिव्यक्ति की निश्छलता का उदात रूप निखरा है। लेखक गुप्त को अगुप्त बनाता है। अपनी ऐकाक्तिक्ता को सार्वजनिक रूप देता है। श्री गुलाबराय का निबन्ध संग्रह "मेरी असफलताएँ" इसका प्रकट उदाहरण है। इस सम्बन्ध में लेखक की आत्म स्वीकृति का एक उदाहरण इस प्रकार है- "मुझे इतना ही खेद है कि बेवकूफी करने में मैं अपने शिकारपुरी मित्र की भाँति फर्स्ट डिवीजन न पा सकूँगा। इस क्षेत्र में भी मैं साधारण से ऊँचा नहीं उठ सका हूँ। मुझे अपने मिडियोकर होने पर गर्व है क्योंकि उसमें मेरे बहुत से साथी है।"
डॉ. गुलाबराय के ललित निबन्ध अनुभूति की प्राण चेतना से स्पंदित है। लेखक अपने दैनदिन जीवन में जो भोगता ओर जीता है उसे ही वह अपने निबन्धों में प्रस्तुत करता है। अतः उसके निबन्धों में उसका आत्मानुभूत अत्यन्त जीवन्त रूप में उपस्थित होता है। इस सम्बन्ध में लेखक का एक आत्म वक्तव्य इस प्रकार है-"मैं सरसठ शरद देख चुका हूँ। मेरे बाल सफेद हो गए है किन्तु धूप में नहीं वरन शारदीय शुभ्रता देखते देखते । वैसे तो मैने जीवनोपवन की "सघन कुंज छाया सुखद, और शीतल मन्द समीर" में ही विचरण किया है, फिर भी मैं जीवन की धूप से अपरिचित नही हूँ, और जितना समय धूप में बिताया है उसका मुझे गर्व है। मेरे पैर में बिवाई फट चुकी है और मैं पराई पीर भी जानता में भूला हूँ और ठोकरे भी खायी है किन्तु गिरकर उठा अवश्य हूँ। सुबह का भूला शाम को वापस घर आ गया हूँ।"
इस वक्तव्य से स्पष्ट कह सकते है गुलाबराय जी ने अपनी तीखी एवं मीठी अनुभूतियाँ ही उसका प्रतिपाद्य है। उनका दुःख व्यक्तिगत भी है ओर सार्वजनिक भी। उन्होंने जीवन के उतार- चढाव सर्दी गर्मी सब सहे है। यथार्थ के भीषण उबड़-खाबड़ पर ठोकरे भी खायी है और वह गिरा भी है। उनके अनुभूति प्रदान चरणों में बिवाई भी है। जीवन और जगत का ऐसा वास्वविक उपभोग ही गुलाबराय जी के ललित निबन्धी का मूल शब्द कोश है। उनके निबन्धो का एक और आकर्षक पक्ष उनके हृदय का उन्मुक्त उल्लास है जो इन निबन्धों की वैशिष्ठता को गहराता है। उल्लास की वास्तविक परिणति शैलीगत प्रसादात्मकता में होती है जो गुलाबराय के निबन्धों में हास्य व्यंग्य का संचार करती है। इनका हास्य ठहकाजन्य नही है। इनके निबन्धों में भी हास्य का शिष्ट एवं शालीन रूप मिलते है जो एक ओर तो मूल विषय की निःसर्ग गम्भीरता को नष्ट नही होने देता ओर पाठक का मनोरंजन भी करता है। इसका उदाहरण इस प्रकार है :- "जिन्होंने विचारात्मक साहित्य दिया है वे उससे भाराक्रांत से प्रतीत होते है। वे न स्वयं हँसे है और न उन्होंने दूसरों को हँसाने का प्रयत्न किया है। मैं दम घुटने वाले गहरे पानी में नही पैठा हूँ और न भूल भूलैयों में पड़ा हूँ। इसीलिए परेशान नहीं हुआ हूँ। जो सहज में बन आया वही लिखा और दूसरों को भी अपने साथ हँसाने का प्रयत्न किया।"
डॉ. गुलाबराय के ललित निबन्धों में न तो हास्य का मसखरापन मिलेगा और न ही भोंडापन । वस्तुतः वह तो नाभि से उठा हुआ एक ऐसा उल्लास है जो कंठ में फूलकर अधरों पर आकर बिखर जाता है। डॉ. गुलाबराय के निबन्धों का एक महत्वपूर्ण पक्ष उनकी सृजन-प्रक्रिया से सम्बन्धित है। आपके इन निबन्धो का प्रणयन अंतः प्रक्रिया की रचनात्मक प्रेरणावश करता है। इसे 'स्वान्तः सुखाय' माना जा सकता है। आपके ललित निबन्धों में आपका व्यक्तित्व का आग्रह-रहित सहज रूप मुखरित हुआ है। जो साहित्यकार स्थाई और ईमानदारी से लेखक का अपने अनुभवों से स्वान्त सुखाय और बहुजन हिताय की भावना रखते है वे आज भी अमर है।
- एस. दत्ता 'गुरु'
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