MAHILA ATMAKATHA SAHITYA
महिला आत्मकथाकारों के आत्मकथा में नारी जीवन
मनुज रूप है
अवतरयौ तीन वस्तु को जोग।
द्रव्य उपार्जन, हरिभजन अरु
कामिनि संग भोग।
इस पुरुष वर्ग की मानसिकता के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए वर्तमान समय की महिला लेखिकाओं ने शमशीर हाथ में ले ली है और साहित्य लेखन में प्रवेश किया है। जिसमें एक तरफ तो वह अपने पर हो रहे अन्याय को अभिव्यक्ति देती है। वही दूसरी ओर इस पुरुष मानसिकता को बदलने के लिए नारी में चेतना जगाती है। ऐसे ही विचारों के बुलंद सिद्धांत को आधार बनाकर नारी साहित्य जन्म ले रहा है। जो तमाम पुरुषों की साजिश को बेनकाब करता है। महिला लेखिका अब साहित्य की हर विधा के द्वारा अपने-आपको अभिव्यक्त कर रही है। मैथिलीशरण गुप्त के 'यशोधरा' की पंक्ति के बहकावे में नहीं आना चाहती। जिसमें 'अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी, आंचल में है दूध और आँखों में पानी' कहा है। वह एक तरह से अपने अस्तित्व की पहचान पुरुषों को करवाना चाहती है। इसलिए वह साहित्य के सभी विधा में लेखन कर रही है। इसकी ही एक सशक्त झलक साठ के बाद का नारी विमर्श है। जिसने साहित्य को अपने शिकंजे में जकड़ लिया है। जो पुरुषों की कलुषित मानसिकता को अभिव्यक्ति देता था। महिला लेखिकाओं ने अब उपन्यास, कहानी, नाटक, कविता के साथ-साथ आत्मकथा जीवनी, संस्मरण, रेखाचित्र, निबन्ध आदि विभिन्न विधा में लेखन करना आरंभ किया है। जिस तरह वह उपन्यास जैसे विधा में काल्पनिक कथावस्तु के माध्यम से नारी जीवन को प्रस्तुत करती थी। अब वह आत्मकथा जैसे विधा के द्वारा स्वयं के जीवन के माध्यम से नारी पर हो रहे अत्याचार को अभिव्यक्ति दे रही है।
हिंदी गद्येत्तर साहित्य में आत्मकथा साहित्य का स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण है। आत्मकथा साहित्य में साहित्यकार स्वयं अपने जीवन के अतीत को अभिव्यक्ति देता है। उसी विधा में पुरुष आत्मकथाकारों के साथ महिला आत्मकथाकारों ने भी अपने भोगे हुए जीवन को शब्दबद्ध किया है। जिनमें शिवानी- 'सुनहु तात यह अकथ कहानी', पद्मा सचदेव - 'बूँद बावड़ी', मैत्रेयी पुष्पा-'कस्तूरी कुंड़ल बसै' तथा 'गुड़िया भीतर गुड़िया', रमणिका गुप्ता-'हादसे', सुशीला राय-'एक अनपढ़ कहानी', प्रभा खेतान- 'अन्या से अनन्या', मन्नु भंडारी-'एक कहानी यह भी', कौशल्या बैसंत्री- 'दोहरा अभिशाप', कृष्णा अग्निहोत्री-'लगता नहीं है दिल मेरा', चंद्रकिरण सौनरेक्सा की 'पिंजरे की मैना', सुशीला टाकभौरे की 'शिकंजे का दर्द', अमृता प्रीतम की 'रसीदी टिकट' आदि आत्मकथाकारों एवं उनके आत्मकथाओं के नाम गिनाये जा सकते हैं। जिन्होंने अपने आत्मकथा के माध्यम से अपने व्यक्तिगत जीवन को एक बाईस्कोप की भाँति खोलकर रख दिया है साथ ही तत्कालीन परिवेश एवं नारी जीवन के त्रासदी को भी उसमें अभिव्यक्ति देने का कार्य किया है।
नारी-पुरुष यह दोनों मानव सृष्टि के निर्मिति के स्तंभ है। एक के बिना दूसरा अधूरा है किंतु आज भी नारी को बराबर का सम्मान नहीं मिल सका है। इतिहास एवं धार्मिक ग्रंथों में नारी महत्व के कई उदाहरण हमें देखने को मिलते हैं। जैसे- "हमारे धर्मशास्त्र के अनुसार केवल पुरुष कोई धार्मिक कार्य पूरा नहीं कर सकता। इस धार्मिक मान्यता के कारण प्रभु रामचंद्र जी को भी सीता माता की अनुपस्थिति में अश्वमेघ यज्ञ की अनुमति नहीं दी गई थी। तब उन्होंने सीता की सोने की मूर्ति बनवाकर धार्मिक कार्य पूर्ण किया।''¹ इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि नारी का महत्व कितना है।
वर्तमान समय में पुरुषों के साथ-साथ नारी भी हर क्षेत्र में कार्य करने के लिए सामने आ रही है। जिनमें रक्षा क्षेत्र, उद्योग, वैद्यकीय, मीडिया, खेल, शिक्षा के साथ- साथ समाज सेवा के क्षेत्र में भी वह सामने आ रही है। रमणिका गुप्ता अपनी इच्छानुसार सामज सेवा का कार्य करती है। वह कहती है कि- "जो दूसरों के लिए कुछ करें वही इन्सान है।"² नारी प्रेम संबंध में संवेदनशील होती है, इसी के कारण वह जिस किसी के साथ सच्चे मन से प्रेम करती है। एक साक्षात्कार में वह कहती है कि "मैं एक बार संबंध बना लेती हूँ उसे अन्त तक निभाती हूँ।... इस जुड़ाव को दुनिया चाहे जितनी असंगतिपूर्ण माने पर मुझे ऐसा कभी नहीं लगता। यदि मैंने किसी से प्रेम किया तो शर्तों पर आधारित प्रेम नहीं था।"³
महिला आत्मकथाकारों ने नारी पर हो रहे अत्याचारों को निःसंकोच ढंग से अपने आत्मकथा में अभिव्यक्ति दी है। पति के द्वारा पत्नी पर किये जानेवाले अत्याचारों के संदर्भ में कृष्णा अग्निहोत्री अपने आत्मकथा 'लगता नहीं है दिल मेरा' में कहती है "और हो गई धुलाई। रुईसी धुनाई, इसके बाद बलात्कार की पुनरावृति।"⁴ दूसरी ओर कौसल्या बैसंत्री ने 'दोहरा अभिशाप' में पति द्वारा प्रताड़ना की बात कही है। कौसल्या के पति देवेन्द्रकुमार पत्नी को गालियाँ देना उससे मारपीट करना अपना अधिकार समझते हैं। उन्हें पत्नी सिर्फ खाना बनाने और शारीरिक भूख मिटाने के लिए चाहिए थी। ऐसे पुरुष मानसिकता की कड़ी समीक्षा एवं संज्ञान महिला आत्मकथाकारों ने लिया है। मैत्रेयी पुष्पा कहती है कि "यदि कोई पति अपनी पत्नी की कोमल भावनाओं को कुचलकर खत्म करता है तो पतिव्रत के नियमों का उल्लंघन हर हाल में करना है।"⁶
आज भले ही आधुनिक शिक्षा के कारण लोग पढ़-लिखकर आगे बढ़ रहे है किन्तु उनकी मानसिकता में अभी भी पूरी तरह परिवर्तन नहीं हुआ है। नारी की ओर एक भूख की दृष्टि से देखते हैं। भले ही वह उसके आयु में बेटी जैसी भी क्यों न हो ऐसे ही बात का जिक्र कृष्णा अग्निहोत्री ने 'लगता नहीं है दिल मेरा' इस आत्मकथा में किया है। लालकुंवर नाम के पुलिस कांस्टेबल पर कृष्णा के घरवाले भरोसा करते हैं बच्चे भी लालू मामा कहकर उसे कहानियां सुनाने का अनुरोध करते हैं किंतु वह छोटी लड़कियों के साथ गंदी हरकतें करता है। कृष्णा अग्निहोत्री कहती है "लालकुंवर की नीयत ठीक नही थी। वह दूध पिलाकर हमें सुला देता और हमारे हाथों में अपने गुप्तांग को पकड़ा देता।"⁷ इस तरह मनुष्य में पल रहे बीभत्स वृति का चित्रण लेखिका ने बड़े ही यथार्थ रुप में किया है।
नारी का जीवन आज भी दुःख से भरा हुआ है। कहीं न कहीं से नारी पर होनेवाले अन्याय की खबरें आती है। समाचार पत्र के पन्ने हो या न्यूज चैनलों की खबरें, इसमें कहीं न कहीं पर नारी शोषण, बलात्कार, खून जैसे हादसे होते हैं। इसके पीछे पुरुष की काम लिप्सा जैसे कारण अधिक होते हैं। इसलिए आजकल नारी असुरक्षितता का माहौल दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है। "अकेली रहनेवाली महिला पर प्रत्येक पुरुष अपना अधिकार जमाना चाहता है। किसी की दृष्टि उसके रूपये, जायदाद पर तो किसी की नजर उसके शरीर पर होती है।"⁸
वर्तमान समय में देखा जाए तो नारी इन तमाम अत्याचारों का विरोध कर रही। किताबों के माध्यम से, विभिन्न चैनलों के माध्यम से या कभी रास्तों पर आ कर वह आवाज उठा रही है। "वह यह सिद्ध करती है कि नारी मुक्ति का अर्थ केवल शारीरिक मुक्ति नहीं मानसिक मुक्ति भी है। जब तक नारी मानसिक दासता से मुक्त नहीं होगी तब तक नारी मुक्ति शब्द निरर्थक है।"⁹
नारी अब पुरुषों के साथ-साथ हर कार्य में सहकार्य की तरह खड़ी हो रही है। जिसमें छोटे बड़े कामों में अपने आपको सिद्ध कर रही है। इसलिए वह एक तरफ पुरुषों के कंधों से कंधा मिलाकर आवकाशयान का सफर कर रही है। दूसरी ओर छोटे से छोटे काम भी करते हुए अपने परिवार का बोझ सँभाल रही है। कौशल्या बैसंत्री अपनी 'दोहरा अभिशाप' इस आत्मकथा में अपने माँ के साथ परिवार की आर्थिक स्थिति को सुधारने के लिए कार्यशील है। यथा "माँ भी चूड़ियाँ, कुंकुम, शिकाकाई बेचने लगी। वह सिर्फ रविवार को ही गड्डी गोदाम अपनी बस्ती पासवाली पॉश कॉलोनी में यह सामान बेचने जाती थी।''¹⁰
इस प्रकार महिला आत्मकथाओं को देखा जाएँ तो यह कहा जा सकता है कि महिलाओं ने अपने उपन्यासों एवं कहानियों के माध्यम से काल्पनिक कथाओं के आधार पर नारी जीवन को अभिव्यक्ति तो दी है, उसी तरह अपने आत्मकथाओं के माध्यम से अपने व्यक्तिगत जीवन या इसी समाज में घटित घटना के माध्यम से नारी के यातनामय जीवन को भी प्रस्तुत किया है। जो वर्तमान में समय के यथार्थ को बड़े ही सशक्त रुप में अभिव्यक्ति देता है।
संदर्भ ग्रंथ सूची :
1. महिला आत्मकथा लेखन में नारी डॉ. रघुनाथ गणपति दसाई, पृ. 63
2. हादसे - रमणिका गुप्ता, पृ. 27
3. वागर्थ - मार्च 2008
4. लगता नहीं है दिल मेरा कृष्णा अग्निहोत्री, पृ. 104
5. महिला आत्मकथा लेखन में नारी डॉ. रघुनाथ गणपति देसाई, पृ. 95
6. आत्मकथाओं में स्त्री विमर्श - डॉ. कांचन बाहेती, स्त्री-लेखन : सृजन के विविध आयाम संपा. प्रा. मुलये, पृ. 269
7. लगता नहीं है दिल मेरा कृष्णा अग्निहोत्री, पृ. 61
8. वही पृ. 31
9. महिला उपन्यासकारों के उपन्यासों में नारीवादी दृष्टि - डॉ. अमर ज्योति, पृ. 108
10. दोहरा अभिशाप - कौशल्या बैसंत्री, पृ. 63
- अनंत वडघणे
ये भी पढ़ें: स्त्री आत्मकथाओं में स्त्री विमर्श : Aatmkatha Aur Stri