Agyeya Ka Upanyas Sahitya
दार्शनिकता के परिप्रेक्ष्य में अज्ञेय का उपन्यास साहित्य
हिंदी जगत में अपनी अमिट छाप छोड़ने वाले 'अज्ञेय' प्रायः प्रयोगवाद के प्रवर्तक और उसके सर्वप्रमुख कवि के रुप में जाने जाते है किंतु वे बहुआयामी व्यक्तित्व के स्वामी थे। साहित्य की सभी प्रमुख विधाओं में लेखन करनेवाले अज्ञेय समकालीन कविता के प्रमुख हस्ताक्षर थे। अज्ञेय लगभग पाँच दशक तक हिंदी साहित्य की तमाम चर्चाओं के केंद्र में रहे हैं इसीलिए अज्ञेय को 'आधुनिक भाव बोध के अग्रदूत' से भी अभिहित किया जाता है क्योंकि वे उस गिने चुने रचनाकारों में से है जिनके लेखन में बीसवीं सदी के सारे मन को उद्वेलित करनेवाले आकुल प्रश्न, उनके निरंतर सक्रिय व्यक्तित्व में गहन आंतरिक सोच से अभिव्यक्त होते हुये देखा है। नवीन भाव बोध के साथ साहित्य जगत् में उत्तरे अज्ञेय के व्यक्तित्व में अलग-अलग विशेषताएँ पाई जाती हैं और सोचने को मजबूर कर देती है कि कम समय में ही अज्ञेय ने इतना विशाल व्यक्तित्व कैसे हासिल किया है।
अज्ञेय का जीवनकाल 1911 से 1987 में समाया हुआ है। अज्ञेय का पूरा नाम 'सचिदानंद हीरानंद वात्सायन' है। उनका जन्म देवरिया जिले के 'कसिया' नामक गाँव में हुआ था। कसिया का संस्कृत नाम 'कुशीनगर' है। भगवान बुद्ध ने इसी स्थान पर निर्वाण प्राप्त किया था। 'शेखर : एक जीवनी' की भूमिका में अज्ञेय ने यद्यपि स्वयं और शेखर में अंतर किया है किंतु बाल्यकालीन काल के संदर्भ में उनका कथन है कि-"शिशु मानस से चित्रण की सच्चाई के लिए मैंने 'शेखर' के आरंभिक खंड़ों में घटनास्थल अपने ही जीवन से चुने हैं।" अतः कोई भी रचनाकार अपने युग तथा परिवेश से जुड़ा हुआ होता है।
युग की माँग के अनुसार समय समय पर ऐसे व्यक्तित्वों का आविर्भाव होता है, जो साहित्य की धारा को नया मोड़ और जोड़ देते हैं। आधुनिक हिंदी साहित्य में ऐसे व्यक्तियों में हम भारतेंदु हरिश्चंद्र, मैथिलीशरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद आदि के नाम ले सकते हैं। सचितानंद हीरानंद वात्सायन 'अज्ञेय' भी ऐसा ही नाम है जो अविरत रूप से सृजनरत रहा है। अनेकविध विधाओं में वे लिखते रहे। अज्ञेय ने सन् 1937 के उपरांत साहित्य को अत्याधिक प्रभावित किया है। तार सप्तक के प्रकाशन से आधुनिक हिंदी कविता में प्रयोगवाद चल पड़ा। अज्ञेय ने यों तो सन 1930 के आस पास ही लिखना आरंभ किया था। पहले वे कवि के रूप में हमारे सामने आए, लेकिन साहित्यकार नहीं जानता कि उन्हें ख्याति किस दिशा से मिलेगी। लेखक के जीवन में कभी ऐसी कृति का सृजन हो जाता है जिससे उनके अतीत और भविष्य का सम्पूर्ण साहित्य आलोकित हो उठता है। अज्ञेय के साहित्यिक जीवन में 'शेखर : एक जीवनी' रचना है जिससे अज्ञेय का जीवन ही नहीं तो सम्पूर्ण हिंदी उपन्यास जगत आलोकित हो उठा।
अज्ञेय प्रमुख रुप से गद्यकार है, या कवि यह कहना कठिन है क्यों कि वे दोनों दिशाओं में समान रूप से सफल है। कुछ लोग प्रतिभाशाली होते हैं, पर शिक्षित नहीं, कुछ शिक्षित होते हैं पर परिश्रमी नहीं, कुछ परिश्रमी होते हैं पर शिल्पी नहीं, कुछ शिल्पी होते हैं पर अनुभवी नहीं, कुछ अनुभवी होते हैं पर अंतर्दृष्टि संपन्न नहीं। जहाँ तक अज्ञेय का संबंध है, उनमें श्रेष्ठतम साहित्यकार के उक्त सभी गुण पाये जाते हैं। यही कारण है कि अज्ञेय की कविता, उपन्यास, कहानी, निबंध, यात्रा, समीक्षा आदि के लेखन में विषय की सूक्ष्मता, विचारों की गंभीरता, शिल्प की नवीनता एवं अभिव्यक्ति की सटीकता है। अज्ञेय के उपन्यासों में शिल्प के साथ दार्शनिकता का गठजोड़ है। अज्ञेय का साहित्य के प्रति अन्वेषी दृष्टिकोण रहा है। अज्ञेय पर युगीन दार्शनिकों का तथा दार्शनिक विचारधारा का प्रभाव रहा है। परिणामतः इनके उपन्यासों में कथात्मक अभिकथन के द्वारा वैचारिकता की सहज अभिव्यक्ति हुई है। मनोविश्लेषणवाद, व्यष्टि-समष्टि, प्रेम वासना, क्षणवाद, अस्तित्ववाद, मृत्युवाद, मूल्यबोध जैसे दार्शनिक विषयों पर गंभीर विचारों की अभिव्यक्ति हुई है।
मनोविश्लेषणवाद का सर्वाधिक प्रचलित सिद्धांत मनोग्रंथियों या कुण्ठाओं का है। उनके अनुसार हमारी दमित वासनाएँ ग्रंथी बनकर अवचेतन मन में जा बैठती है और हमारे स्वभाव, चरित्र एवं आचरण को प्रभावित करती हैं। अचेतन मन में छिपी हुई यह ग्रंथियाँ हमारे मन में प्रकरण, ईर्ष्या, द्वेष, करुणा, क्रोध, निराशा, मलिनता आदि अनेकानेक रूप से उदिप्त किया करती है, जिससे व्यक्ति मानसिक संतुलन खो बैठता है। इसी मनोवैज्ञानिक दर्शन पर अज्ञेय के उपन्यास की आधारशीला है। मनोविज्ञानिक उपन्यासों में प्रेम, वासना और यौन संबंधों को अधिक महत्व प्राप्त हुआ है। फ्रायड ने समस्त मानवीय समस्याओं का और क्रियाओं का मूल सेक्स में पाया है।
'शेखर : एक जीवनी' एक शुद्ध मनोविश्लेषणवादी उपन्यास है जिसमें शेखर का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण प्रस्तुत है। अतः उसके 'अहंम्' को भी सेक्स से संबंधित रखा गया है। वह अपने अहंवाद की अग्नि में सबसे करुणोत्पादक आहुति अपने प्रेम की ही दे सका है। उसका अहंकार उसे किसी के सामने झुकने नहीं देता। वह सबसे पुजित होना चाहता है, पर शेखर को सर्पण की भावना नारी के प्रति तो कतई स्वीकार नहीं है। उसकी दृष्टि में प्रेम- ब्रेम कुछ नहीं है वह तो केवल शरीर है और बुद्धि है। "एक शरीर को पकड़ता है और एक पैसे को बस यही तो प्रेम है।"¹ अज्ञेय प्रेम को कोई विशेष महत्व नहीं देते, वासना को वास्तविक मानते हैं और उसे जीवन का एक कठोर सत्य मानते हैं।
यौन भाव एक सर्वप्रमुख चित्तवृत्ति है जो अज्ञेय के प्रायः सभी उपन्यासों में पायी जाती है। अहं एवं विद्रोह की अपेक्षा चौन भावना ने ही अज्ञेय के उपन्यासों के चरित्रों को उभारा है। 'नदी के द्वीप' उपन्यास में शेखर : एक जीवनी' की भाँति सेक्स, वासना तथा विवाह संस्कार के गर्त में ही गस्त है। उपन्यासों के पात्र यौन समस्याओं में ही उलझ कर रह गये हैं। वासना चित्रण पर लगाये गए आरोपों का उत्तर भी अज्ञेय 'नदी के द्वीप' में देते हैं जैसे, "जो रस देती है, जीवन को उभारती है, उसे अश्लील नहीं कहना चाहिए।"² क्योंकि वेदों के ऋचाओं में कहा गया था 'वासना सुंदर मानो तो सुंदर, अश्लील मानो तो अश्लील है।' 'अपने-अपने अजनबी' उपन्यास में अज्ञेय ने मनोविश्लेषण के जरिए कथा का गठन किया है पर उपन्यास में यौन भाव की स्थिति अपेक्षाकृत गौण है। अतः अज्ञेय के उपन्यासों में मनोविश्लेषण की प्रवृत्ति प्रमुख रुप से दिखाई देती है।
व्यष्टि और समष्टि के संदर्भ में अज्ञेय ने कविता तथा उपन्यासों में गंभीरता से सोचा है। 'शेखर : एक जीवनी' में अज्ञेय ने अनेकविध आयामों से विचार किया है। यह उपन्यास शेखर की अर्थात एक व्यक्ति की आत्मकथा है। 'शेखर : एक जीवनी' के बाद हिंदी पाठकों के समक्ष अज्ञेय का दूसरा उपन्यास 'नदी के द्वीप' है। इसमें वस्तुगत एकांतिकता से हटकर अज्ञेय व्यापक समष्टि चिंतन की ओर बढ़े है। 'नदी के द्वीप' के नायक भुवन के माध्यम से वे कहते हैं कि, "जीवन की बात में जब कहता हूँ तब अपने जीवन से बड़े एक संयुक्त, व्यापक, समष्टिगत जीवन की बात सोचता हूँ उसी से एक होना चाहता हूँ।"³ पर यह कथन अज्ञेय के वैचारिक चिंतन को अधिक प्रभावित न कर सका। उपन्यास की नायिका रेखा के माध्यम से क्षण की महता को स्वीकार करते हैं और स्वयं को एकाकी पाते हैं, व्यक्ति के रुप में देख पाते है, समष्टि के रुप में नहीं। रेखा, भुवन, गौरा और चंद्रमाधव का अपना एक व्यक्तित्व है, जो उनका विशिष्ट रुप है। इनका चिंतन अपना चिंतन है, किसी वर्ग का समाज का एवं युग का चिंतन नहीं। उपन्यास के आदि से अंत तक प्रत्येक पात्र अपने ही बनाए हुए ताने-बाने में उलझा रहता है। उपन्यास के पात्र एकांगीपन में व्यस्त रहते हैं।
अज्ञेय का अंतिम उपन्यास 'अपने-अपने अजनबी' भी इसी श्रृंखला की अगली कड़ी है। अज्ञेय के उपन्यासों के कथानकों का विकास व्यापकता से परिसीमितता की ओर हैं। "शेखर : एक जीवनी के कथानक का विस्तृत परिवेश नदी के द्वीप में आकर सूक्ष्म और अपने अपने अजनबी में सूक्ष्मत्तर होता गया है।"⁴ शेखर के माध्यम से ही कहीं जो थोडा बहुत समष्टि और युगीन अंकन अज्ञेय कर सके हैं, उससे बहुत कम नदी के द्वीप में और अपने अपने अजनबी में तो समष्टि को सर्वथा तिलांजलि दे बैठे हैं। उनके समग्र उपन्यासों में मृत्यु का भयानक वातावरण चित्रित है। ऐसे में समष्टि की ओर दृष्टिक्षेप डालने का अवकाश लेखक के पास नहीं था। अतः अज्ञेय समष्टिवाद की अपेक्षा घोर व्यक्तिवादी ही बन गए।
क्षणवाद अज्ञेय के उपन्यासों का एक विशेष पक्ष है। जगत् को क्षणिक माननेवाला चिंतन भारतीय मनीषियों के लिए अपरिचित नहीं है। जगत् और जगत् के द्रव्य क्षणिक हैं, उनकी सत्ता अचिर है। वह मत प्रकारांतर से सभी प्रधान भारतीय दर्शन पद्धतियों में मिल जाता है। अज्ञेय के साहित्य में जो क्षणवाद आया है वह पश्चिमी दर्शन से प्रभावित है। पश्चिम में अस्तित्ववाद का बोलबाला चल पड़ा। क्षणवाद उसी का एक अंग है। अस्तित्ववादी विचारधारा में क्षण का विशेष महत्व है। अज्ञेय के 'नदी के द्वीप' उपन्यास में क्षणवाद विशेष उत्कृष्टता के साथ व्यक्त हुआ है। "मैं क्षण से क्षण तक जीती हूँ, इसलिए कुछ भी छाप मुझपर छोड़ नहीं पाता। मैं हर क्षण अपने को पुनः जिला लेती हूँ।" रेखा का यह कथन अज्ञेय की क्षणवादी दृष्टिकोण का परिचय देता है। अज्ञेय जीवन को क्षणवादी मानते हुए वे कहते हैं कि, "मेरे लिए काल का प्रवाह भी प्रवाह नहीं, केवल क्षण और क्षण का योगफल है, मानवता की तरह ही इसका प्रवाह भी मेरे लिए युक्ति सत्य है, वास्तविकता क्षण की ही है। क्षण सनातन है।"⁵
अस्तित्ववाद आधुनिक पश्चिमी साहित्य की प्रमुख प्रवृत्ति है। इस विचारधारा का प्रवर्तन सार्ज और कामु ने किया। सार्च का अज्ञेय पर अत्याधिक प्रभाव रहा है। विश्वास रखना इस विचारधारा की मुख्य धारा है। मानव जीवन का सबसे बड़ा अभिशाप चुनौती मृत्यु है। मृत्यु से पहले जितना जीवन मिलता है, उसे मुक्त रुप से जिया जाना चाहिए। अज्ञेय के उपन्यासों के पात्र व्यक्तिवादी है, उनमें त्याग, समर्पण, भाव की अपेक्षा वे स्वतंत्रता का जीवन जीने के पक्ष में हैं। 'अपने-अपने अजनबी' उपन्यास में अधिक मात्रा में अस्तित्ववाद के दर्शन मिलते हैं।
'मृत्युषाद' सार्ज के विचारधारा का ही एक दार्शनिक अंग है। अस्तित्ववाद में मृत्यु की अनिवार्यता, उसकी विसंगति और उसका त्रास को बहुत महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। 'अपने-अपने अजनबी' उपन्यास में मृत्यु के स्वरुप का ही अंकन नहीं है, वरन् मृत्यु के संबंध में एक विशिष्ट विचारधारा है। अज्ञेय की दृष्टि में जीवन को सार्थकता देने के लिए मृत्यु ही एक मात्र साधन है। मृत्यु के द्वार पर ही ईश्वर के दर्शन होते हैं। अर्थात मृत्यु को जाने बिना जीवन को जानना संभव नहीं है। अज्ञेय का विचार है कि मृत्यु जीवन का महत्वपूर्ण तत्व है।
निष्कर्ष रुप में यही कहा जाएगा कि अज्ञेय का उपन्यास साहित्य दार्शनिक विचारों से भरा पडा है। उनके उपन्यासों में मनोविश्लेषणवाद, अस्तित्ववाद, क्षणवाद, मृत्युवाद तथा व्यष्टि-समष्टि का यथोचित दर्शन होता है। यही कारण है कि अज्ञेय ने हिंदी साहित्य में केवल तीन ही उपन्यास लिखें है किंतु इन तीन उपन्यासों से ही उपन्यास साहित्य को एक नया मोड मिला है इसमें दो राय नहीं है।
संदर्भ संकेत :
1. शेखर : एक जीवनी, अज्ञेय, द्वितीय भाग, पृ.सं. 14
2. नदी के द्वीप, अज्ञेय, पृ.सं. 222
3. नदी के द्वीप, अज्ञेय, आवरण का प्रथम पृष्ठ
4. नदी के द्वीप, अज्ञेय, पृ.सं. 39
5. अपने-अपने अजनबी, अज्ञेय, पृ.सं. 25
- प्रा. प्रकाश भगवान 'शिंदे'
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