Children's magazines and children's curiosities
बाल पत्रिकाएँ और बाल जिज्ञासाएँ
गत कुछ दशकों से बच्चों के लिए हिन्दी के साथ- साथ कन्नड़, तेलुगु, तमिल, मलयालम, उड़िया, बंगला, मराठी, गुजराती, पंजाबी आदि अनेक भाषाओं में बाल पत्रिकाएँ प्रकाशित हो रही हैं। लेकिन इन पत्रिकाओं के माध्यम से बाल पत्रकारिता का स्वतंत्र रूप विकसित नहीं हो पाया। बाल पत्रिकाओं और बड़ों के मासिक, साप्ताहिक एवं दैनिकों के बाल पृष्ठों में प्रकाशित सामग्री, मात्र औपचारिकता लगती है। उन्हें देखकर यह कहना मुश्किल है कि इन रचनाओं के प्रकाशन के पीछे क्या दृष्टि है। उनके संपादन में बच्चों के लिए जिस विशिष्ट योग्यता की आवश्यकता होती है, उसकी ओर ध्यान नहीं दिया जाता है। यहाँ तक की सबसे कनिष्ठ उप संपादकों को बाल पृष्ठों का संपादन-कार्य सौंप दिया जाता है जैसे यह काम सबसे सरल और साधारण हो।
इधर जो बाल पत्रिकाएँ प्रकाशित हो रही हैं, उनकी संपादकीय नीति की दो धाराएँ बड़ी स्पष्ट दिखाई देती है। एक वह, जिसमें बच्चों को पौराणिक, धार्मिक, राजा-रानी, परियों आदि की कथाओं को देना मात्र ही आवश्यक माना गया है। दूसरी धारा वह है, जो बच्चों को आधुनिक परिवेश से जोडती है, उन्हें उनकी समस्याओं और जिज्ञासाओं के समाधान देती है और साथ ही उनके ज्ञान का विस्तार करती है। पहली धारा की पत्रिकाएँ न तो मौलिक बाल साहित्य रचना को प्रोत्साहित करती हैं और न ही उनकी समृद्धि में कोई योगदान देती हैं। दरअसल, ये पत्रिकाएँ पुनर्लेखन पर निर्भर करती हैं, भले ही वह राजा-रानी की कहानी हो या परी कथा हो। ये पत्रिकाएँ भारतीयता, परंपरा और धर्म की दुहाई देकर बच्चों को जो साहित्य पढ़ने के लिए देती हैं, वह उन्हें अंधविश्वासी, परंपरावादी और रूढ़िग्रस्त बनाता है। स्पष्ट है कि बाल पत्रिकाओं की ऐसी संपादकीय नीति आज के बच्चों के लिए किसी प्रकार की प्रतिबद्धता को घोषित नहीं करती है। ऐसी नीतियों के वे ही संपादक हैं, जिनमें बाल पत्रकारिता के वास्तविक मूल्यों और महत्त्व का अभाव है।
दूसरी धारा की वे पत्रिकाएँ हैं, जो बच्चों को आधुनिक जीवन और समाज से जोड़कर उन्हें एक सुयोग्य नागरिक बनाने के लिए प्रतिबद्ध हैं। इन पत्रिकाओं की कहानियाँ यथार्थपरक, बच्चों के परिवेश, उनके मनोविज्ञान और उनकी समस्याओं से जुड़ी रहती हैं। इनमें बच्चों की रुचि तथा जिज्ञासाओं के अनुरूप सामग्री प्रकाशित होती है। ज्ञान-विज्ञान, समसामयिक संदर्भ ओर अन्य आधुनिक विषयों को भी इनमें पर्याप्त स्थान मिलता है। इन पत्रिकाओं की संपादकीय नीति बच्चों से सीधे संवाद के आधार पर तैयार की जाती है। ज़ाहिर है कि हमारे यहाँ की बाल पत्रकारिता प्रतिबद्ध एवं अप्रतिबद्ध संपादन नीतियों के बीच फंसी हुई है। इसीलिए अब यह महसूस किया जाने लगा है कि बाल पत्रकारिता को अपनी पूरी विशिष्टताओं के साथ महत्व दिया जाए और ऐसे प्रतिबद्ध पत्रकार तैयार हों जो भावी पीढ़ी को उनकी रुचि और मनोविज्ञान के अनुरूप सामग्री दें तथा उनकी जिज्ञासाओं, भविष्य की कल्पनाओं और समस्याओं के समाधान भी प्रस्तुत करें।
आज देश में पत्रकारिता प्रशिक्षण के अनेक संस्थान हैं। उनके पाठ्यक्रम में अपराध विज्ञान, विधि, खेल आदि विषयों को पढ़ाया जाता है। लेकिन बच्चों के पृष्ठ के लिए न कोई प्रशिक्षण पाठ्यक्रम है और न ही कोई विशेष संवाददाता या उप संपादक होते हैं। स्पष्ट है कि जब पाठ्यक्रमों में बाल पत्रकारिता का विशिष्ट प्रशिक्षण दिया ही नहीं जाता तो लोग मिलेंगे कहाँ से। यह भी सही है कि केवल योग्य एवं सक्षम संपादक ही बच्चों के लिए उपर्युक्त सामग्री को प्रस्तुत कर सकते हैं। गहराई से देखा जाए तो आज बाल पत्रकारिता की महत्वपूर्ण आवश्यकता है। बच्चों के लिए, विभिन्न आयुवर्गों में बच्चों का भाषा ज्ञान, सामान्य ज्ञान और परिवेश भिन्न होता है। इसके अनुरूप विषय का प्रस्तुतीकरण निर्धारित किया जाता है।
लेकिन हर विषय की अपनी सीमा और क्षमता भी होती है। इसलिए उस विषय को बच्चों के अनुरूप बनाना संपादक का दायित्व है। इसके लिए लेखक से पूर्व चर्चा भी की जा सकती है और रचना को आवश्यकतानुसार संशोधित-परिमार्जित भी किया जा सकता है। किसी भी रचना को बच्चों की दृष्टि से देखना अनिवार्य है। यह इसलिए कि उसी आधार पर उसकी शैली, कथ्य एवं भाषा निर्धारित होते हैं। विदेशों में बच्चों की पत्रिकाओं के संपादक, लेखकों के साथ मिलकर इस प्रकार के अनेक प्रयोग करते हैं और फिर उस पर बच्चों की प्रतिक्रिया प्राप्त करके अपनी क्षमताओं का आकलन करते हैं। वैसे यह माना हुआ सत्य है कि बच्चों की रचनाओं के सर्वश्रेष्ठ निर्णायक बच्चे ही होते हैं। यह बात संपादकीय नीति और कार्य पर भी उतनी ही लागू होती है।
इस प्रकार बाल पत्रकारिता का एक अन्य महत्वपूर्ण पहलू है, आयुवर्ग का निर्धारण। आमतौर पर जब बच्चों के लिए लिखने या पत्रिका के लिए सामग्री चयन की बात आती है तो लोग एकदम छोटे हो जाते हैं। बच्चों का अर्थ केवल आठ वर्ष तक के बच्चे से लिया जाता है और सरल भाषा में लिखी कोई भी कहानी या रचना बच्चों के लिए उपर्युक्त मान ली जाती है। किन्तु बाल पत्रकारिता की पहली आवश्यकता यही है कि संपादक की दृष्टि में अपनी पत्रिका के पाठकों का आयुवर्ग स्पष्ट हो। इसका अर्थ है कि आयुवर्ग के बच्चों की रुचियों, भाषा, ज्ञान स्तर, परिवेश आदि का पूरा ध्यान रखा जाए। जितनी तेजी से बच्चों के ज्ञान स्तर एवं रुचियों में परिवर्तन हो रहा है, उस पर संपादक की निगाह रहना बहुत जरूरी है। आज बाल पत्रकारिता में सबसे उपेक्षित वर्ग है-10 से 16 वर्ष तक के बच्चे और किशोर । इस आयुवर्ग के बच्चों के ज्ञान क्षितिज बहुत विस्तृत हैं, उनकी अनगिनत जिज्ञासाएँ हैं, बढ़ती हुई आकांक्षाएँ हैं और वे अपनी समस्याओं के यथार्थपरक समाधान चाहते हैं। इसे पूरा करना बाल पत्रिकाओं की जिम्मेदारी है।
आज के बच्चों के मानसिक विकास, उनकी जिज्ञासाओं और रुचियों के अनुरूप ऐसी पत्रिकाओं की बहुत आवश्यकता महसूस की जा रही हैं, जो उन्हें राजनीति, विश्व के विभिन्न देशों की समस्याएँ और समसामयिक घटनाओं जैसे गंभीर विषयों पर उनकी रुचि के अनुरूप सामग्री प्रस्तुत करें। कुछ बाल पत्रिकाएँ इस दिशा में प्रयत्नशील हैं, लेकिन वह पर्याप्त नहीं है। पत्रकारिता का प्रशिक्षण देने वाले संस्थान भी बाल पत्रकारिता को अपने पाठ्यक्रम में विशिष्ट अध्ययन का विषय बनाएँ जिससे इस ओर रुचि रखने वाले उचित प्रशिक्षण प्राप्त कर सकें। साथ ही बाल पत्रकारिता को एक विशिष्ट विधा के रूप में स्वीकार करके इसके विकास के लिए ठोस प्रयत्न किए जाने चाहिए।
- डॉ. अमरसिंह वधान
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