दलित स्त्री संघर्ष के कगार पर

Dr. Mulla Adam Ali
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Dalit women on the verge of struggle

Dalit women on the verge of struggle

दलित स्त्री संघर्ष के कगार पर

हिंदी 'दलित' साहित्य का इतिहास साहित्य की विभिन्न कालगत विशेषताओं के साथ-साथ समाज परिवर्तन सुधार आंदोलन के रूप में प्रस्फुटित होता नजर आता है। बौद्धिक दृष्टि से इस क्षेत्र में अनेक महापुरुषों, संत महात्माओं, समाज सुधारकों, कवियों का एक लंबा इतिहास है।

'दलित' एक सामाजिक अवधारणा है, दलित राजनीतिक अवधारणा है और शोषित आर्थिक अवधारणा है।' दलित' शब्द डॉ. अंबेडकर जी के 'डिप्रेस्ड' का हिंदी अनुवाद है, जिसमें शोषित, उपेक्षित दबे-कुचले और दमन के शिकार व्यक्ति अथवा वर्ग शामिल है। दलित शब्द का शाब्दिक और विस्तृत अर्थदुर्बल, पीडित, असहाय, दुःखी आदि हैं। दलित साहित्य के संदर्भ में हम 'दलित' शब्द के अर्थ को संकुचित कर देते हैं। उसका अर्थ केवल वर्ण- व्यवस्था में छोटी जाति के समझे जाने वाले लोगों से संबंधित है। जो आधुनिक युग में आंदोलन बनाकर परिवर्तन द्वारा समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व, न्याय, दलित अस्मिता, स्वावलंबन के साथ अपने अधिकारों की माँग करते हुए संघर्ष कर रहा है। दलित साहित्य का मुख्य उद्देश्य सामाजिक परिवर्तन करना है।

आज हम मनुष्य जीवन पर एक नजर डालने पर हमारे आँखों के सामने सामान्य मनुष्य के दुःख, दैन्य, निराशा, वेदना की व्यथा कथा दिखती है, सामान्य रूप में वह अस्पृश्य हो या स्पृश्य समाज का हो, इसका मूल कारण पूँजीवादी समाज व्यवस्था है। हिंदी में दलित जीवन से जुड़ी संघर्ष गाथा हमारे लिए आज नई बात नहीं है। इसकी शुरूआत कबीर, रैदास, निराला, प्रेमचंद, राहुल सांस्कृत्यायन जैसे रचनाकारों से होकर आज की स्थिति में पहुँची है। किन्तु उस समय समाज को दलित नाम न कहकर यह वर्ग अन्य नाम से भी जाना जाता था। सन् 1960 के आस-पास मराठी साहित्य में इसी विषय को लेकर जिन रचनाकारों ने अपने विचारों की अभिव्यक्ति दी, उसे दलित आंदोलन के नाम से जाना जाने लगा। इसी का प्रभाव आगे के दशकों में हिंदी में दलित साहित्य के रूप में उभरा।

सबसे पहला 'दलित' साहित्य सम्मेलन 1976 में नागपुर में आयोजित किया गया था। इसीसे दलित साहित्य की शुरूवात हुई। इसी दौरान हिंदी में दलितों द्वारा हिन्दू समाज और साहित्य की परंपरा के प्रति विद्रोह के रूप में छिटपुट लेखन की शुरूआत हुई, जिसके परिणाम स्वरूप साहित्य के क्षेत्र एक अलग प्रकार की पहचान इस दलित साहित्यकारों के द्वारा हुई।

भारतीय समाज में दलित स्त्री की स्थिति सामाजिक नैतिक मानदंडों के रूप में मध्य एवं निचले पायदान पर रही। दलित स्त्री एक ओर पुरुष सत्ता की, तो दूसरी ओर जाति व्यवस्था की शिकार बनी। उस पर लिंगभेद और जातिभेद दोनों की वजह से अत्याचार हुए। इसके प्रति अंबेडकर जी ने कहा है कि - "भारतीय समाज व्यवस्था में स्त्री दलितों से भी दलित है।" भारतीय समाज में वर्ण व्यवस्था इतनी कट्टर है कि उससे समाज में ऊँच-नीच के दिखावे पैदा हुए है। कहा जाता है कि प्राचीन भारतीय समाज चार वर्ण व्यवस्था से बँट गया था। किन्तु असलियत में स्त्री को पाँचवे वर्ग में माना गया है। फिर भी समाज व्यवस्था में उच्च वर्ग की स्त्री और दलित स्त्री के जीवन में बहुत फर्क था। इस संदर्भ में किसी ने कहा है-"सवर्ण समाज की स्त्रियों की जीवन स्थितियाँ दलित समुदाय की स्त्री से समानता नहीं रखती।" दलित समुदाय के स्त्रियों को जाति के नाम पर जो अपमान झेलने पडते हैं, उन अनुभवों से सवर्ण समाज की स्त्रियों अछूती रह जाती है।

रूढ़िग्रस्थ ग्रामीण समाज :- शिवप्रसाद सिंह की कहानी 'कर्मनाशा की हार' में विधवा फुलमतिया को नईडीह का समाज पापिन समझ बैठा था। उसके प्रति केवल घृणा-तिरस्कार ही रह गया था। ग्रामीण समाज दो जातियों के युवक-युवती के बीच प्रेम संबंध का मान्यता नहीं देता। जिस समाज व्यवस्था में विधवा को प्रेम करने का अधिकार नहीं देता, परंपरागत सामंती समाज स्त्री को पुराण और स्मृतियाँ स्त्री को जिंदा जलाएँ जाने को सती की उपाधि देकर महिमा मण्डन करती हैं, विधवा को मान्यता नहीं देती और बाल विवाह का महिमामंडित करती है। हिन्दू धर्म की घोर असमान व्यवस्था फुलमती जैसी बाल विधवाओं को एक आश्रित बनाकर रहने तथा इच्छा आकांक्षा, जीवनेच्छा को तजकर सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक आधिकारों से वंचित निरपेक्ष जीवन जीने की परिपाटी पर चलने की सलाह देता है।

भारतीय जनमानस में प्रारंभिक अवस्था से ही अंधविश्वासों का प्रचलन हो गया था। संजीव के उपन्यास 'धार' में मैना की माँ को डायन समझकर गांव से बाहर निकाल दिया जाता है। जब मैना जेल में मंगरु को साथ लेकर आती है, मामाजी मंगरु को समझाते है कि - हाँ मालूम है मैना, जादू जानत है, आदमी को सुग्गा बना लेता है, माने देह आदमी का रहेगा, मगर दिमाग सुग्गे का क्या समझे ? इस प्रकार के अंधविश्वासों का प्रचलन हमारे समाज में पाया जाता है।

स्त्री वेदना :- स्त्री विशेषतः गाँवो में ज्यादा संख्या में वेदना सहती है। लगातार चौबीसों घंटे काम करने पर भी दो वक्त की रोटी नहीं मिलती। वह परिस्थितियों से संघर्ष करती है किन्तु ऐसे समय उनकी मदद तक कोई नहीं करते। जयप्रकाश कर्दम की कहानी 'साँग' में चम्पा शीला से कहती है- "जब कि हम यह जानते है कि पूरी, जिन्दगी फिर वही पीड़ा, वही दुःख दर्द, अभाव, रोना, झीकना हैं यही हमारे जीवन का सच है। इस प्रकार चम्पा अपने वेदना को प्रकट किया।” ओम प्रकाश वाल्मीकि की 'अम्मा' कहानी में स्त्री का अपमान देखने को मिलता है। अम्मा अक्सर मिसेज चोपड़ा के घर जिस व्यक्ति को देखा करती थी उसे उसी घर का समझ रखा था। एक दिन वह भेद खुल गया- एक दिन अम्मा बर्तन साफ करने के लिए मिसेज चोपडा के घर पहुँची तो वो बाथरूम में थी। वह आदमी बेडरूम में बैठा था। मिसेज चोपडा ने बाथरूम से आवाज देकर कहा- 'विनोद प्लीज एक बाल्टी पानी जमादारनी को दे दो.... मैं सिर धो रही हूँ.... देर लगेगी। बाथरूम से निकलने में। विनोद ने कसकर अम्मा को पकडा, अम्मा को लगा जैसे किसी आदमखोर ने उसे दबोच लिया है। वह ढीला करने के लिए जोर लगा रही थी। बंधन से मुक्त होकर उस पर झाडू का बार किया। इस प्रकार दलित स्त्री के ऊपर अनेक बार उच्च वर्गों के पुरुषों द्वारा अत्याचार होते रहते हैं। किन्तु उच्च वर्ग की महिलाएँ निम्न वर्ग की महिलाओं को साथ न देने के कारण इसके खिलाफ आवाज नहीं उठाती है।'

आज हमारे निम्न वर्ग के समाज पर एक दृष्टि डालने पर निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि स्त्री, समाज, राष्ट्र एक दूसरे के साथ जुडे है। राष्ट्र के विकास के लिए स्त्री का योगदान होना जरूरी है। जहाँ स्त्री का सम्मान होगा वहाँ राष्ट्र की सच्चे अर्थों में विकास होगा। आज स्त्री भी आत्मनिर्भर बनने का लगातार प्रयास कर रही है। वह भी पुरुषों का मुकाबला करने पर तुली है। वह भी मान, सम्मान के साथ जीवन जीना चाहती है।

- डॉ. रूपेश कुमार विठ्ठल राव

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