महानगरन में बदल्यो सो बसन्त है : बी.एल. आच्छा

Dr. Mulla Adam Ali
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महानगरन में बदल्यो सो बसन्त है

- बी. एल. आच्छा

     सुना है कि मधुवन में कोयल कूक गयी है, अमुवा की डार पर। यों भी अमराइयां सबको बुलाती हैं राम राम कहते हुए। पर बचपन में अमराई में कुछ कुहकता जीवन अब महानगर में सिमट गया है। महानगर के चौदहवें माले के फ्लैट की छोटी-सी गैलरी से दिग-दिगंत को देखने की कोशिश कर रहा हूं। कैलेण्डर की पंचांग- तिथियाँ बसन्त के आगमन की सूचना दे रही हैं और मैं बसन्त के लक्षण तलाश रहा हूँ। अट्टालिकाओं से पटे मेरे हिस्से के आकाश और जमीन पर कोई हलचल नहीं है।हवाओं में माधुर्य का लिव-इन तक नहीं।

It's spring in metropolitan cities.

   ‌‌ पर भीतर में बचपन का एल्बम फड़फड़ा रहा है - "बनन में बागन में बगर्यो बसंत है"। यों सरकारों ने हरियाली महोत्सवों के आंकड़ों में इतना पौधारोपण किया है, जितना कि भारत का क्षेत्रफल नहीं है। पर हरी रंगत छिटकती कम ही नजर आती है। और पक्षियों के डेरे तो पेड़ों के हाउसिंग बोर्ड में ही होते हैं। दूर तक बिहारी की नायिका का पलाश- वन नजर नहीं आ रहा, जिसकी कोमलकांत सुर्ख लाल ज्वालाओं से वे दीप्त होती थीं।रति-रंग के चहकते प्रकृति-दृश्य रमणीय बन जाते थे। जायसी का पद्मावत तो पूरा वानस्पतिक कान्तार ही बन जाता है।

     आधुनिक काल के कवियों ने सरसराती वासन्ती हवाओं के बिंब दिये हैं-"धीरे धीरे उतर क्षितिज से आ वसंत रजनी।"केदारनाथ अग्रवाल ने तो हवाओं को खिलंदड़ी अंदाज़ दे दिया-"चढ़ी पेड़ महुआ/थपाथप मचाया/गिरी धम्म से फिर /चढ़ी आम ऊपर/ उसे भी झकोरा/किया कान में 'कू'/उतर कर भगी मैं/हर खेत पहुँची/ वहाँ लहर खूब मारी।"अब महानगर में किसी स्त्री के कान में कोई नारी ही 'कू_ कर दे तो सभ्यता हिल जाए। इधर चौदहवें माले की गैलरी में हवाएं कभी तो थपेड़े दे जाती हैं। पर अक्सर मलयानिल तो छोड़िए ,कभी ऐसी बन्द कि उमस में पत्ते तक नहीं हिलते।

    महानगर के इस परिदृश्य में इन अट्टालिकाओं के बीच कुछ गज भर का आसमान भी नगर निगम के स्वीकृत नक्शे वाले प्लॉटों सरीखा है। कुछ कचनार दिख जाते हैं। कुछ अमलतास ,कुछ गुलमोहर। डर ही रहता है, पीपल- बरगद या आम से। कहीं नींवें न हिला दें मल्टी की । और पलाश ...ना बाबा ना ,इस जंगली आड़े-तिरछे के लिए जगह ही कहाँ है, लिपस्टिक रंगों के रहते। अब कोयल कहाँ कूकने आए।इन अट्टालिकाओं के बीच के आकाश से माधवी रजनी उत्तर क्षितिज से कैसे दिखे ? न पूरा सूरज ,न पूरा चांद ही इन मल्टी खिड़कियों से झांक पाता है। और सभ्यता की तिरस्करणियां (परदे) तो हटने का नाम ही नहीं लेतीं।

   ‌‌फ्लैट की गैलेरी में जरा सा उपवन है, दो-चार छोटी लघुकथाओं या दोहों- सा । बेचारे कपोत-कपोती कूजन-क्रीडा की जगह तलाशते हैं। पर उनकी बींटें मल्टी सभ्यता पर फफोले- सी हेय बन जाती हैं। बहुत हुआ तो यथार्थवाद के कैक्टस नयी सभ्यता में जीन्स सरीखे । तितलियां भी आएँ तो उनकी हवाई यात्रा के लिए मधुपान तो चाहिए न?सड़क पर ही आम के पेड़ होते तो नागार्जुन की उम्मीद होती - "तरुण आम की मंजरियाँ /उद्धित जग की ये किन्नरियां/अपने कोमल कच्चे वृंतों की/मनहर संधि-भंगिमा।" ऐसे में महानगर में वे शब्द ही खो गये है-" दीप्त दिशाओं का वातायन /प्रीति सांस-सा मलय समीरण।" अब कैसे गाऊँ-" पीली सरसों ने दिये रंग,वसु वसुधा पुलकित अंग अंग।" अब तो महानगरो में अनंग (कामदेव) भी आ जाएँ ,तो उन्हें भी अच्छे थियेटर में पाहुन की तरह उलझा देंगे। बेचारे कामदेव टेसू के रक्तवर्ण आमंत्रण भी प्रत्याशा में ब्रांडेड डिजाइनरी में ही उलझा रहेगा।

     यों महान‌गर में जमीनी बंगले भी हैं और सजी-धजी क्रॉकरी में वसन्त का आतिथ्य भी।जायकों के मसाले भी। राग- रागिनियों की झंकार के म्युजिक थियेटर भी। स्कूली बच्चे किताबी चित्रों से ही वृक्षों- पक्षियों को पहचानते हैं। बसन्त भी टोल- टैक्स नाके से जैसे- तैसे प्रविष्ट होकर इन ड्राइंग-रूमों में पत्र-पत्रिकाओं में को निहार रहा है।फ्लैटों में सन्नाटा पसरा है। 

     वाट्सएपीय चित्रों में संयोग- वियोग के एहसास भ्रांतिमान बने हुए हैं। कैमरे के चित्र और वीडियोग्राफी ही प्रकृति राग बन गये हैं।फलवन्ती प्रकृति में यायावर-सा बसन्त ड्राइंग रूम के आतिथ्य में ज्यूसवादी हो गया है। और सुगंध के लिए बोतलों से एसेन्सवादी। मालिकों की धन लक्ष्मी की लालसा को द्वार पर आम्र- पल्लवों से पहचानता वसन्त ठिठका- सा बैठा है। अब यह बसन्त नयी मंजरियों से इस ड्राइंगरूम में कैसे खिले !वातानुकूलित में कैसे सीटी बजाते हुए सरसराए। बंद खिड़कियों से वासन्ती लतरों को कैसे भीतर लाए। कैसे रसाल की खुशबू से कुहू-कुहू गवाये। जंगल-जंगल भटकने वाला मनचला- सा बंसत कितना सिमटा- ठिठका-सा है। भौरों की गुंजार से कितना छिटका- सा है। आम्र-मंजरी के आमंत्रण के लिए कितना भटका- सा है। गहूँ की सिकती बालियों में पगा यह वसन्त इस वातानुकूलित एसेंस सभ्यता में कितना अटका है।

   ‌‌ पर महानगरीय बसंत की भंगिमाएँ ही न्यारी। बिल्कुल ब्रांडेड- पैकेजिंग की खूबसूरती से लुभावन। जंगली आम्रमंजरी और पलाश -वन की रंगोज्ज्वल सौंदर्य- लिपि से न्यारी, बाज़ार की सौंदर्य-लिपि। अब इसे अनपहचानी सिंधु या नागरी- लिपि से अलग चमचमाट रोमन लिपि प्यारी है। गाम्यांचल में हरी- पीली सरसों की चित्रलिपि और कशीदेकारी- सी मंजरी-लिपि के आगे मल्टी रंगों की कम्प्यूटर लिपि फैशन के बाजारों में धूम मचा रही है।। किन्नरियों के लाइफ स्टाइल में आँखें गड़ाए बसंत भी वहीं ठिठका है।फैशन के बाजारों में पेंगे मारती आकांक्षाओं में बहते जीवन को निहार रहा है। शायद कामदेव को नोटशीट पहुंचा दे। यही कि फूलों के पंचबाण अब पुराने पड़ गये हैं। सभ्यता के बाजार नये पंचबाणों में सरसा रहे हैं। युग की सरस्वती ही तकनीक और बाजार में नयी लिपि रचा रही है।

     महानगरों का अपना वसन्त है। यह मौसम का नहीं, बाजार के इंद्रधनुषी जाल का है। पेड़ों की जड़ों की तरलता से फला-फूला नहीं, मशीनी साँचों में ढला है। जयशंकर प्रसाद की 'कामायनी' की श्रद्धा यों तो उन्मुक्त है,पर विशेषणों में सौन्दर्य की शीतल आग भी है- "या कि नव इन्द्रनील लघु श्रृंग । फोड़ कर धधक रही हो कान्त / एक लघु ज्वालामुखी अचेत/माधवी रजनी में अश्रांत।" बिंब तो अद्भुत है और नील परिधान में उसका सौन्दर्य भी। पर "छूने में हिचक देखने में, पलकें आंखों पर झुकती हैं,कलरव परिहास भरी गूंजें,अधरों तक सहला सकती हैं।"बस यहीं बाजार सभ्यता में इड़ा का प्रतिबोध जाग्रत हो जाता है। अब महानगर अश्रु से भीगे अंचल में भावों का संधि-पत्र नहीं लिखते । बल्कि भाववाचक संज्ञाएं ही खोती जा रही हैं। सौन्दर्य का संधि पत्र नहीं, अब "बिखरी अলकें ज्यों तर्कजाल "में ही सौंदर्य खनकता है। नील परिधान भी पुराना है और ब्रांडेड भी नहीं। न तो शोरूम से बाहर के शो केस- सा सजा है, न भाषा की बोल्डनेस में।न नये युवाओं के गलीचा- जींस के हवामहल में। महानगरीय बसंत पीली सरसों और गेहूं की बालियों से फिक्स दूरी बनाए रखता है। वह फसलों का सौंदर्य नहीं, मसालों की गमक है। और मॉल संस्कृति के बिना बसन्त न खिलता है,न खिलने देता है।

    आखिर महानगर के बसंत की अपनी संस्कृति है। साज-सज्जा है। प्रदर्शन भंगिमा है। सामाजिकता का अपना अंदाज है। फ्लैट सजा रहे, पर कोई आए ना।टी- टेबल पर सूखे मेवे सजे रहें, पर कोई एकाध पीस से दूसरा उठाए ना।फ्लैट की ओर कोई पड़ोसी झांके ना।उसकी के.वाय. सी. से हमें क्या लेना-देना। हमें तो अपनी प्रायवेसी चाहिए। परिवार के अन्य लोगों से भी।घर में ही मुज्यिक थियेटर है। गेम्स हैं। सफाई के लिए रोबोट है। डिमांड पर पिक्चर के लिए टी.वी.है। समय न कटे तो मॉल के ब्रांड और स्वाद हैं। बसंत तो मॉल में ही खिलता है। नित नयी लाइफ- स्टाइल । डिजाइन स्ट्रेटजी।फास्ट फूड के चटखारे।ग्लोबल इंप्रेशन । गेमिंग जोन। मूवी थियेटर।और बिन भाव-ताव के स्कीमों के बाजार में मनखींचू एलजेब्रा। बच्चों के लिए ट्रेम्पोलिन की कूद झमाझम।और इन शो रूमों से पुरानी श्रद्धाएँ भी बाहर कदम रखती है, तो लिबास में बिखरी अलकें ज्यो तर्कजाल वाली इडाएँ ही नजर आती हैं। और अब पुरुष ड्रेसिंग सेन्स तो उसका भी अतिक्रमण कर रहा है। कहाँ तो हरीतिमा और पलाशवनों के बीच लोक गीतों की लहरिया अनुगूंज और कहाँ सभ्यता की पल-पल बदलती लाइफस्टाइल वाला महानगरीय वसन्त।

       इधर जब मॉल से लौट रहे हैं तो मैडम ने लॉन्गड्राइव का फरमान दे दिया है।पर कभी मॉल संस्कृति का किशोर कुछ मांग कर लेता है, तो राजमार्ग पर कार रुक जाती है। जंगल है, कोयल की कूक हूक मचा रही है। महानगरीय बेटा कोयल के रंग और आवाज का पढ़ी हुई किताबों के चित्रों से मिलान करताहै। कहीं थोड़ी सी दूर सिकती हुई गेहूं की बालियों और ज्वार के पौखड़ों की गंध मॉल संस्कृति के वासन्ती युगल को बेध जाती है। आखिर आग में पकी ज्वार- मकई की रोटी तो नाक को खींच ही लेती है। मॉल की ढाणी में गैस पर सिकी रोटी की स्वाद-सुगंध का गांव की ढाणी से क्या प्रतियोगिता।मगर गजबिया स्वाद चुंबक है। फूड- मॉल की ढाणी और खेत के पास की ढाणी में सिकती रोटी के बीच कोई प्रतियोगिता तो हो ही नहीं सकती।पर देसी धनिए की कुट्टी चटनी पर तो निछावर है। मॉल संस्कृति में पगा चमकीली कार में फर्राटे मारता यह परिवार अब टेसू और महुआ को देखकर गति धीमी कर देता है। वे बचपन में देखे पलाश को एंटीक की तरह निहार रहे हैं। यहां अमवा भी है।आम के बौर भी। सरसों का पीला रंग भी।कोयल की कूक भी।नाक को बेचैन करती सिकते चने और महुआ की गन्ध भी।और मचान से आती लोकगीत की लहर भी।पर महानगर के लिए यह अमराई का दृश्य पिकनिक स्पॉट है, जाना तो मॉल के पास ही है। स्टाइल मारते वसन्त के पास ही।

- बी. एल. आच्छा

फ्लैटनं-701टॉवर-27

नॉर्थ टाउन अपार्टमेंट

स्टीफेंशन रोड (बिन्नी मिल्स)

पेरंबूर, चेन्नई (तमिलनाडु)

पिन-600012

मो-9425083335

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