Hindi Heart touching Story : Hindi Kahani Chachi
चाची (कहानी)
अम्मा यह कौन है? आज से पहले कभी इन्हें देखा नहीं। गठा हुआ शरीर मोटी-मोटी आँखें गेहुँआ रंग की एक महिला दालान में अम्मा के निकट बैठी थी। मैं कौतूहल से उन्हें देख रही थी।
कौन हो सकती है यह ? माँ ने कहा यह तेरी चाची है, मेरी चाची है लेकिन पहले कभी अपने घर नहीं आई। 'अब आई है न मिलने के लिये।'
चाची अम्मा से बातें करती रहती। अम्मा चाची से कह रही थी पन्नालाल की बहू कोई फोटो पन्नालाल का हो तो मुझे दे देना, उनका एक भी फोटो नहीं है घर में।
"जेठानी जी एक फोटो है उनका, मैं फिर आऊँगी तब लाऊँगी।" चाची के जाने के बाद अम्मा ने बताया" यह तेरी चाची बाल विधवा है। तेरे चाचा के मरने के बाद इसने अपने से कोई नाता नहीं रखा। तेरह वर्ष की विधवा हुई थी। तेरे चाचा तीस वर्ष के थे और यह आठ बरस की बालिका थी जब दोनों का विवाह हुआ था। चाचा पैंतीस बरस के होकर दिल की बीमारी से चल बसे यह तेरह बरस की थी तब।
चाचा के देहांत के बाद चाची के मायके वाले उनके माता-पिता और एक भाई, बहन चाची का हिस्सा लेकर अपने घर चाची को ले गये। पिताजी के घर के बगल का घर और तकड़ी से तोल कर सोना, चाँदी सब ले गये। अपनों से सब नाता तोड़ दिया।
चाची की बहन का ब्याह चाची के गहने और उनका घर बेच कर किया गया।
दीदी के ब्याह की तैारियाँ चल रही थी। चाची ब्याह में आना चाहती थी। माँ ने कहा पिताजी से पूछ कर वह बतायेगी उन्हें आना चाहिए या नहीं। माँ ने पिताजी से कहा "पन्नालाल की बहू ब्याह में आना चाहती है।" पिताजी ने कहा- 'आने दो लेकिन हमें कोसना छोड़ कर वह आ सकती है।'
माँ ने चाची को ब्याह में आने की अनुमति दे दी। चाची के पिता का देहांत हो चुका था, माँ थी जो सदैव अफीम, की पीनक में रहती थी और भाई मैली सी टोपी एवं धोती कुरता पहने बिल्कुल ठीक नहीं लगता था। कुछ कमाता नहीं था। उसका ब्याह नहीं हुआ था और चाची, चाची तो एकछोटी सी किराणा की दुकान चलाती थीं। उसी से घर का खर्चा चलता था।
समय ऐसा था रुपये का मूल्य बहुत था। एक रुपया सौ रुपये के बराबर हुआ करता था। चाची दीदी के ब्याह में रहने आ गयी। साथ में दीदी को देने के लिए साड़ी और सामान वैगरह भी लाई थी।
अम्मा ने वह सामान नहीं रखा और साड़ी भी वापस कर दी।
ब्याह का घर था। हम सभी बहनें और भाभियाँ बन संवर कर रहा करतीं। चाची की नजर हमें लालसा भरी आँखों से देखती रहती। सब को ऊपर से नीचे तक गहरी नजरों से देखती।
उन आँखों को मैं भूल नहीं पा रही हूँ। कितने अरमान मन में और उन आँखों में छिपे हुए थे। "बाल विधवा" रही चाची बस कलर के स्थान पर भगवा साड़ी ही पहन सकती थी। बाहर निकलते समय, सफेद चादर ओढ़ लेती थी।
जबकि सधवा औरतें बाहर निकलते समय गोटा लगा हुआ ओढ़नी ओढ़ कर निकलती थी।
सबेरे सब जागने के पहले ही चाची जाग जातीं। किसी पर भी उनकी छाया नहीं पड़नी चाहिए। विधवा जो थी। सबेरे-सबेरे उनका चेहरा देखने पर अपशकुन हो जाता है। ऐसी मान्यता थी।
इसलिए चाची अंधेरे में ही उठ कर अपने सारे काम कर लेती थी।
माँ चाची को पसंद नहीं करती थी। लेकिन थी तो उनकी देवरानी, इसलिए उन्हें ब्याह में रहने की छूट दी थी।
सबकी साड़ियों को हाथ लगा कर देखती और बहत सराहना करती कहती 'बहुत सुंदर लग रही हो।'
कहीं उनके मन में अरमान जाग जाते कि मैं भी ऐसे ही तैयार हो सकती। जब माँ ने दीदी के लिये लाई हुई साड़ी वापस कर दी। तब चाची ने चुपके से सबेरे-सबेरे वह साड़ी अपने ऊपर डाल कर देखी, वह साड़ी उन पर कैसी लगती है वे यह देखना चाहती थी।
मैं बिस्तर में पड़े-पड़े यह सब देख रही थी। सब के हाथों में दोनों भाभी मिलकर मेहंदी मांड रही थी। बड़ी भाभी मोर की मेहंदी का डिजाईन लगाती थी।
चाची सब के हाथ देखती और सोचती यह सब मेरे लिये नहीं है। इस बात के लिये उनका तरसना मुझे कचोट जाता था। ऐसा क्यों है ? यह प्रश्न मेरे मन को झकझोर जाता था।
उन्हें सामने आने की मनाही थी। रिश्ते की दीदी और चाची मामी तीनों ही विधवा थी। जब भी ब्याह की कोई रसम होने लगता तीनों को माँ रसोई घर में भेज देतीं। मेरा मन संवेदना से भर जाता यह कैसी विडंबना है ? विधवा स्त्री सामने नहीं आनी चाहिए। इस में उनका क्या अपराध है ? मेरा बाल मन समझ नहीं पाता था।
चाची हमारे घर महीने में दो चार बार आने लगी थी। लेकिन माँ कभी उन्हें भोजन के लिये नहीं कहतीं। दादा जी के श्राद्ध पर उन्हें और रिश्ते की एक दादी उनका भी कोई नहीं था। पिताजी ही उनकी देखभाल करते थे। वह अलग किराये का कमरा लेकर रहती थी और उनकी देखभाल भी पिताजी ही करते थे।
जब तीनों श्राद्ध पर भोजन के लिये आती माँ हम सबसे कहती, अधिक खीर मत परोसना। और हाँ मालपुए भी अधिक मत परोसना।
तीनों भर-भर कटोरी खीर की पी जायेगी और मालपुए भी दबा कर खा लेगी।
मेरा मन बेचैन हो जाता। दादी ने कोई सुखी जीवन नहीं देखा और चाची ने भी कोई सुख नहीं देखा यदि कुछ अधिक खीर-मालपुए खा भी लेगी तो क्या अंतर पड़ जायेगा।
मैं उन तीनो को परोसना चाहती लेकिन माँ भाभी को परोसने लगाती !
चाची का मन धीरे-धीरे हम सब भाई-बहनों में रमने लगा था। उन्हें हम सब अपने लगते थे। जब भी आती एक लालसा भरे मन से आती। माँ से कहती जेठानी जी मैं मरूँ तो मेरी अर्थी इसी घर से उठे। माँ कोई उत्तर नहीं देती।
सावन के महीने में दालान में अम्मा झूला बंधवा देती। रेशम की डोरी और चाँदी की पाटी लगा कर हम बहनें भाभी जब झूला झूलती। तीज का दिन था हम झूला झूल रही थी। ऊपर तक पेंगे लेकर सावन के गीत गा रही थी।
चाची सीढ़ी से चढ़ती हुई नजर आई उन्हें देख कर अम्मा का माथा ठनक गया। आज त्यौहार के दिन यह विधवा किस लिये आई है। चाची का चेहरा उतरा हुआ था, वह बीमार दिखाई दे रही थी। चाची चुपचाप आ कर दालान में बैठ गयी और हमें झूला झूलते हुए देखने लगी।
जब गीत समाप्त हो गया तो हम दोनों बहनें झूले से उतर गयी! चाची ने अम्मा से कहा मेरा स्वास्थ्य ठीक नहीं है। अभी उस्मानिया अस्पताल जाकर आई हूँ। मेरे पेट में दर्द है वहाँ डॉक्टर ने कहा है कि मेरे पेट में कैंसर है। कैंसर अस्पताल जाना होगा और चाची रोना चाहती थी, लेकिन चाची जानती थी त्यौहार के दिन अपशकुन होगा वह चुप रही।
अम्मा ने कहा ठीक हो जाओगी कब जा रही हो कैंसर अस्पताल ? कल जा रही हूँ।
रक्षाबंधन पर दोनों भाभी चाची से राखी बंधवाती चाची को पैर पड़कर रुपये देती। चाची का चेहरा खुशी से खिल उठता । ढेरों आशीर्वाद देती दोनों भाभियों को। मेरे ब्याह में भी चाची रहने आई थी। मुझे उनके प्रति लगाव सा हो गया था।
चाची कैंसर अस्पताल में भर्ती हो गयी। मैं भाभी अम्मा सब उनसे मिलने गये।
चाची ने मेरा हाथ बहुत लाड़ से पकड़ कर चूम लिया। अम्मा का हाथ पकड़ कर कहा जेठानी जी मैं अब ठीक नहीं होऊंगी। मुझे मरने के बाद अपने घर ले जाना। मेरा अंतिम संस्कार अपने बेटे से करवाना जिसे मैंने गोद में लेने से इंकार कर दिया था।
माँ ने कुछ नहीं कहा। जब चाचा का देहांत हुआ उनके बारहवें पर, मेरे दादाजी ने मेरे तीसरे भाई को जो बहुत छोटा था चाची की गोद में बैठाया था। लेकिन चाची ने लेने से इंकार कर दिया। मेरे धन के लिये यह बेटा दे रहे हो ? मैं इसे लेना नहीं चाहती।
तब से माँ ने उनसे कुछ कहना ही छोड़ दिया था। रक्षाबंधन के दिन चाची कैंसर अस्पताल में थी और भाभियों का सबेरे से इंतजार कर रही थी। नर्स से उन्होंने राखी, नारियल, लड्डू मंगवा रखे थे।
बार-बार उन राखियों को हाथ में लेकर सहलाती और सोचती रही कि दोनों बहुएँ मुझसे राखी बंधवाने आयेंगीं। लेकिन उस दिन दोनों भाभियों का सारा दिन ननदों के यहाँ अपने भाईयों को राखी बाँधते, बंधवाते निकल गया। रात घिर रही थी। भाभियों ने सोचा अब बहुत देर हो गयी, चाची से राखी बंधवाने कल बसेरे चले जायेंगे, चाची इंतजार कर रही थी हाथ में राखी थी। आँखों में लालसा थी उन्हें राखी बाँधूगी, अगले वर्ष तो मैं रहूँगी नहीं।
उनकी तबियत बिगड़ने लगी। नर्स एवं डॉक्टर ने उन्हें संभाला अस्पताल से फोन आया चाची का अंतिम समय आ गया है। भाभियाँ, माँ, पिताजी, भैया सब अस्पताल पहुँचे तब तक चाची जा चुकीं थीं।
भाभियाँ पश्चाताप से रो पड़ी। क्यों नहीं हम जल्दी पहुँच पायें। नर्स ने बताया "दिन भर वह हाथ में राखी लिये आप सब का इंजार करती रही। आप को राखी बांधेगी यह कहती रही।" भाभियों ने देखा मरते समय भी राखी उनके हाथ में थी।
चाची सदा के लिये चली गयी। पिताजी उनके शव को अपने घर नहीं लाये। उनके मायके से ही उनकी अर्थी उठी। भैया ने उनका सब कुछ किया।
मैं चाची का शव देख कर रो उठी। अभी भी चाची की यादें कसक उठती है। इस तरह एक "बाल विधवा" की जीवन यात्रा समाप्त हुई।
- शान्ती अग्रवाल
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