Hindi Dalit Sahitya : Hindi Dalit Kahaniya
अन्तिम दशक की दलित कहानियों में नारी शोषण
वैश्वीकरण के आज के दौर में नारी का स्थान पुरुषों के मुकाबले सर्वोपरि है। नारी स्वयं पुरुष वर्ग को हर क्षेत्र में पछाड़ रही है, इसमें कोई संदेह नहीं है। पर सोचने की बात यह है कि आज भी नारी के पैरों में बेड़ियाँ हैं। नारी अपने ही घर में कभी पति के द्वारा कभी ससुर और सास के द्वारा तो कभी जेठ-जिठानी, देवर-देवरानी व नद के द्वारा शोषित होती हैं। देखा जाए तो सर्व प्रथम घर के सदस्यों के द्वारा ही नारी का शोषण होता है। तत्पश्चात् बाहर के लोगों के द्वारा कामुक्ता की भावना एवं भावावेश में आकर अन्य लोगों के द्वारा नारी के मान-सम्मान को ठेस पहुँचाती है। "सुगिया को अपनी कहानी मालूम नहीं। किसने उसे जन्म दिया और किसने पाला, कुछ भी तो नहीं जानती वह। जब से वह होश संभाली है, तभी से इसकी कहानी की शुरूआत है। जब वह आठ या नौ साल की थी तो अपने को ठेकेदार की रखैल ही समझी थी।
ठेकेदार के हवाले इसे किसी ने किया था, याद नहीं।" अतः कहा जा सकता है कि सुगिया के जैसी जिंदगी जीनेवाली महिलाएँ आज भी समाज में है। जिन्हें खुद का परिचय नहीं मालूम। सुगिया को ठेकेदार अपनी हवस का शिकार बना लेता है। ठेकेदार के समान भेड़ियों की कमी आज के समाज में नहीं है। पूर्व काल में ठाकुरों का दलित नारी पर बहुत ही ज्यादा अत्याचार रहा है। गाँव में जो भी बहुएँ ब्याह कर लाते तो, उन बहुओं को ठाकुरों के साथ सुहाग रात मनानी पड़ती, इसी प्रकार के अत्याचार से तंग आकर गाँव के दलित अपनी बेटियों के हाथ जल्दी ही पीले कर देते। दलितों की नारी की बहुत ही अधिक बेइज़्ज़ती पूर्व काल में हुई थी। इसी स्थिति को कहानीकार मोहनदास नैमिशराय ने अपनी कहानी "अपना गाँव" में दर्शाया हैं। ताकि दलितों में चेतना आ सके- "उसकी जात की बहुत कम औरतें ऐसी होंगी जिन्हें ठाकुरों के बुलावे पर हवेली में न जाना पड़ा हो। एक -एक के बदन ने अनचाहे वह सब झेला था। इसलिए गाँव में कम उम्र की बेटियों के हाथ पीले कर उन्हें ससुराल भेज दिया जाता था। जो बाहर से इस गाँव में बहू बनकर आती थीं उनके पहले दो-तीन साल अजीब से धर्म संकट में गुजरते थे। गाँव में पहले से ही कुछ ऐसी ही परंपरा थी। उन्हीं परंपराओं को गाँव के लोग ओढ़ने-बिछाने के लिए मजबूर थे"
संदर्भ ग्रंथ सूची :
1. कावेरी, द्रोणाचार्य एक नहीं-पृ. 2
2. रमणिका गुप्ता, दूसरी दुनिया का यथार्थ, मोहनदास नैमिशराय, अपना गाँव-पृ. 66
- डॉ. संतोष
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