Hindi Day Special : The declining empire of Hindi
हिन्दी डे पर विशेष : हिन्दी का घटता साम्राज्य
भारत की स्वतंत्रता के बाद देश के राजनीतिक सिपाहियों ने जहां अपने राष्ट्र को एक ध्वज, एक निशान व एक संविधान देने में सावधानी बरती, इतना ही नहीं तो राष्ट्रीय पशु व पक्षी भी सुनिश्चित कर दिए गए, परन्तु भारत राष्ट्र की अपनी एक भाषा हो, इस पर सभी मौन साध गए। हमने हिन्दी को भारत की राष्ट्रभाषा बनाने के बाजाए इसे केवल संघ की अर्थात केन्द्र सरकार यानि भारत सरकार की भाषा बनाकर इतिश्री समझ लिया। भारत में द्विशासकीय शासन व्यवस्था है अर्थात केन्द्र की सरकार व राज्यों की सरकारें। अब केन्द्र की राजभाषा तो हिन्दी घोषित हो गई परन्तु भारत के 29 राज्यों व 7 केन्द्र शासित प्रदेशों की भाषा आवश्यक नहीं है कि हिन्दी ही हो। अभी तक भारत के केवल 9 राज्यों व दो केन्द्र शासित प्रदेशों ने हिन्दी को अपनी राजभाषा के रूप में अपनाया है तथा केवल तीन राज्यों व तीन केन्द्र शासित प्रदेशों ने हिन्दी को स्वीकार किया है। शेष 17 राज्य सरकारों व दो केन्द्र शासित प्रदेशों में हिन्दी का कोई स्थान नहीं है। यह बात अलग है कि हिन्दी संघ अर्थात भारत सरकार की कितनी व्यवहारिक भाषा है। सच्चाई यह है कि अगर भारत सरकार के सरकारी मंत्रालयों व विभागों की रिपोर्टों से नजर हटाकर व्यवहारिक रूप से देखा जाए तो कुछेक जगहों के अलावा यह औसतन तीस-चालीस प्रतिशत ही उपयोग में लाई जा रही है।
केवल हिन्दी भाषा 9 राज्यों वं दो केन्द्र शासित प्रदेशों में हिन्दी अवश्य राजकाज की भाषा है तथा यहां शिक्षा का माध्यम भी हिन्दी ही है। परन्तु यहां बात हिन्दी भाषी राज्यों की नहीं बल्कि भारत राष्ट्र की हो रही है। हिन्दी केवल संघ की भाषा तक ही सीमित ना रहे बल्कि इसका पूरे देश में प्रचार-प्रसार व विकास हो, संविधान ने इसकी जिम्मेदारी भी संघ अर्थात भारत सरकार पर डाली है। संविधान के अनुच्छेद 351 के अनुसार संघ का यह कर्तव्य होगा कि वह हिंदी भाषा का प्रसार बढ़ाए व उसका विकास करे, जिससे वह भारत की सामासिक संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके और उसकी प्रकृति में हस्तक्षेप किए बिना हिंदुस्तानी में और आठवीं अनुसूची में विनिर्दिष्ट भारत की अन्य - भाषाओं में प्रयुक्त रूप, शैली और पदों को आत्मसात करते हुए और जहां आवश्यक या वांछनीय हो वहां उसके शब्द-भंडार के लिए मुख्यतः संस्कृत से और गौणतः अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करते हुए उसकी समृद्धि सुनिश्चित करें। इस प्रकार संविधान के अनुसार हिन्दी के विकास व प्रचार-प्रसार की जिम्मेदारी संघ अर्थात केन्द्र सरकार की है।
अब संघ ने अनुच्छेद 351 के अनुपालनार्थ अब तक क्या परिणाम हासिल किया, इस लेख में उसका आकलन करने का संक्षिप्त प्रयास किया जा रहा है।
भारत के संसद में 14 सितम्बर 1949 को यह प्रस्ताव पास किया गया कि संघ की राजभाषा हिन्दी होगी। संविधान 26 जनवरी 1950 से लागू हो गया था परन्तु हिन्दी के मामले में यह निर्णय लिया गया कि राजभाषा हिन्दी 15 वर्ष बाद अर्थात 26 जनवरी 1965 से लागू की जाए। हिन्दी के प्रयोग हेतु भारत के राज्यों को 'क' 'ख' व 'ग' क्षेत्रों में बांटा गया। 'क' क्षेत्र में उत्तरप्रदेश, बिहार, हरियाणा, मध्यप्रदेश, राजस्थान, झारखण्ड, छत्तीसगढ, हिमाचल प्रदेश व उत्तराखण्ड राज्य तथा राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली व अण्डमान तथा निकोबार द्वीप समूह संघ शासित राज्यों को रखा गया है। इसी प्रकार महाराष्ट्र, गुजरात व पंजाब राज्य तथा चंडीगढ, दमन, दीव तथा दादरा व नगर हवेली संघ शासित राज्यों को 'ख' क्षेत्र में रखा गया है। अन्य राज्यों तथा केन्द्र शासित प्रदेशों को 'ग' क्षेत्र में रखा गया है। इस प्रकार बारह राज्य व पांच केन्द्र शासित प्रदेशों को 'क' व 'ख' क्षेत्र में रखा गया है। इन राज्यों के साथ तथा राज्यों में रहने वाले व्यक्तियों के साथ पत्र-व्यवहार आदि हिन्दी में भी किए जा सकते हैं।
लेकिन अभी तक 'ग' क्षेत्र वाले सत्रह राज्यों व दो केन्द्र शासित प्रदेशों के साथ आप हिन्दी में पत्र- व्यवहार नहीं कर सकते हैं, इन राज्यों के साथ या तो आप इन राज्यों की राजभाषा में या अंग्रेजी में पत्र-व्यवहार कर सकते है, परन्तु हिन्दी में नहीं। संभवतः भारत विश्व का एकमेव ऐसा राष्ट्र होगा जहां कि आप अपने ही देश के आधे से अधिक राज्यों या लगभग 35 प्रतिशत जनता के साथ अपने संघ की राजभाषा में पत्र व्यवहार तक नहीं कर सकते हैं। राजभाषा नियम 1976 के नियम 3 (3) के अनुसार केन्द्रीय सरकार के कार्यालय से 'ग' क्षेत्र में स्थित राज्यों अर्थात इन सत्रह राज्यों व दो केन्द्रशासित प्रदेशों की सरकारों व व्यक्तियों के साथ पत्रव्यवहार अंग्रेजी में ही किया जाएगा।
प्रश्न यह नहीं है कि आप इन राज्यों के साथ पत्र व्यवहार हिन्दी में क्यों नहीं भेज सकते हैं। प्रश्न यह है कि जब संविधान ने अनुच्छेद 351 के अंतर्गत हिन्दी के विकास व प्रचार-प्रसार की जिम्मेदारी संघ को सौंपी है, तो भारत सरकार ने संविधान लागू होने के 65 साल बाद तक भी अपने 'ग' क्षेत्र में स्थित सत्रह राज्यों में से एक भी राज्य को हिन्दी भाषा को स्वीकार करने हेतु सफलता क्यों नहीं पाई। केवल अधिसूचना द्वारा वर्ष 2007 से अण्डमान व निकोबार द्वीप समूह 'क' क्षेत्र में तथा वर्ष 2011 से दमन, दीयू तथा दादरा और नगर हवेली 'ख' क्षेत्र में अधिसूचित हुए हैं। जबकि 1968 में संसद ने एक संकल्प जारी कर हिन्दी का विकास करना सुनिश्चित किया था। चिंता की बात यह है कि जब स्वतंत्रता के 65 वर्ष बाद भी इनमें से एक भी राज्य हिन्दी को स्वीकार नहीं कर सका है तो हिन्दी आसेतु हिमाचल च सागरे की भाषा कब बन पाएगी। सच्चाई तो यह है कि इस ओर अभी प्रयास ही नहीं हुए हैं तो परिणाम कहां से आएंगे और प्रयास इसलिए नहीं हुए क्योंकि किसी भी सत्ताधीश ने कभी भी इस बात पर चिंता व्यक्त नहीं की।
भारत के संविधान के प्रावधानों के अन्तर्गत भाषा राज्य का विषय है। अनुच्छेद 345 के अनुसार राज्य सरकारों के विधान मंडल यह तय करेंगे कि उस राज्य की राजभाषा क्या हो। वह राज्य में प्रयोग होने वाली भाषाओं में से किसी एक या अधिक भाषाओं को या हिन्दी को अपने राज्य के सभी या किन्हीं शासकीय प्रयोजनों के लिए भाषा या भाषाओं के रूप में अंगीकार कर सकेगा, या अनुच्छेद 347 के अंतर्गत उस राज्य के लोगों द्वारा जाने जानेवाली भाषा को मान्यता दे सकती है। यह अच्छी बात भी है। भारत में विभिन्नता में एकता वाली भावना है। यहां हर राज्य की अपनी एक विशिष्ट भाषा है और वह राज्य अपनी भाषा के माध्यम से ही विकास कर सकता है, इसलिए उसे पूरा अधिकार है कि वह अपनी क्षेत्रीय भाषा में राजकाज करे। लेकिन एक राज्य का दूसरे राज्य व केन्द्र सरकार तथा अपने राज्य से बाहर के लोगों के साथ पत्र- व्यवहार करने हेतु एक सम्पर्क भाषा की आवश्यकता होती है। अनुच्छेद 346 के अंतर्गत दो राज्य आपस में परस्पर यह तय कर सकते हैं कि उनके बीच पत्राचार की भाषा कौन सी होगी।
दुर्भाग्यवश भारत के 'ग' क्षेत्र में स्थित इन सत्रह राज्यों व संघ शासित क्षेत्रों की सरकारों ने दूसरे राज्य के आमजनों तथा केन्द्र सरकार के साथ पत्राचार की भाषा अंग्रेजी ही रखी है। संविधान के अनुसार जब तक दो राज्य आपस में यह तय नहीं कर लेते हैं कि उनके साथ पत्राचार की भाषा क्या होगी तब तक पूर्ववत स्थिति बनी रहेगी, अर्थात अंग्रेजी ही होगी। अनुच्छेद 346 के अनुसार दो राज्यों के बीच तथा किसी राज्य और संघ के बीच पत्रादि की भाषा संघ की प्राधिकृत भाषा होगी। चूंकि 'ग' क्षेत्र के साथ राजभाषा नियम 1976 के नियम 3 (3) के अनुसार संघ का पत्रव्यवहार अंग्रेजी में होता है इसलिए, इनकी भाषा अंग्रेजी होगी। हां यदि दो राज्य आपस में करार कर लें कि उनके बीच पत्रव्यवहार की भाषा हिन्दी होगी तो तभी वे हिन्दी का प्रयोग कर सकते हैं। कितनी बड़ी विडंबना है कि स्वतंत्र भारत में भी दो राज्यों को हिन्दी में काम करने हेतु अनुच्छेद 346 ने अंतर्गत करार करना पडता है और दुख इस बात का है कि स्वतंत्रता के 65 साल बाद भी इन सत्रह राज्यों में से किसी भी राज्य ने अभी तक ना तो यह करार की है ना ही इस और कोई पहल हुई है। हालांकि संविधान ने सभी राज्य सरकारों को यह छूट दे रखी है कि वह आपस में सम्पर्क हेतु कोई भी भाषा चुन सकती है, परन्तु अभी तक इनमें से एक भी राज्य ने हिन्दी को द्वितीय, तृतीय या चतुर्थ भाषा के रूप में भी नहीं चुना है। केवल इन राज्यों में हिन्दी दसवीं कक्षा तक पढाई जाती है तथा यहां के लोग अपने स्तर पर हिन्दी को अवश्य अपना रहे हैं। इतना ही नहीं तो 'ग' क्षेत्र में स्थित 44.87 करोड लोगों में से 20.74 करोड अर्थात 46.24 प्रतिशत लोग हिन्दी जानते हैं।
यह कितना बिडंबना वाली बात है कि भारत के 'ग' क्षेत्र में वर्णित इन सत्रह राज्य सरकारों व दो केन्द्रशासित प्रदेशों की 46.24 जनता हिन्दी जानते हुए भी यहां संविधान की व्यवस्थाओं के कारण हिन्दी में पत्राचार नहीं किया जा सकता है, जबकि इन राज्यों में केवल 30-35 प्रतिशत तक लोग अंग्रेजी जानने वाले हैं परन्तु उनके साथ और राज्य सरकार की भाषा अंग्रेजी बनी हुई है।
हमारी घरेलू हालत यह है कि हमारे 'ग' क्षेत्रवाले अर्थात आधे से अधिक राज्य सरकारें आदि हिन्दी में प्राप्त पत्रों को अस्वीकार कर सकते हैं। वहां हिन्दी भले ही आम लोगों की सम्पर्क भाषा बनती व बढ़ती जा रही है परन्तु इन राज्यों की सरकारें शासन के कार्य में हिन्दी को आज भी अस्वीकार कर रहे हैं।
संविधान के निर्माण के समय संभवतः संविधान निर्माताओं को यह आभास रहा होगा कि धीरे-धीरे सभी राज्य सरकारें अपने सरकारी कामकाज व पत्राचार हेतु हिन्दी को अपना लेंगी, इसीलिए अनुच्छेद 356 के तहत यह विषय राज्य की विधानमण्डलों के ऊपर छोड दिया गया था। परन्तु संविधान लागू होने के 65 साल बाद भी जब 'क' व 'ख' राज्य के बारह राज्यों को छोडकर शेष सत्रह में से एक भी राज्य सरकार ने ना तो अभी तक हिन्दी को अपनाया है और ना ही इन राज्य सरकारों ने इस दिशा में कोई कदम उठाया है या संघ ने अनुच्छेद 351 के तहत कोई उपलब्धि हासिल की है तो स्वाभाविक है कि भारत सरकार को इस दिशा में अनुच्छेद 351 के अनुपालन हेतु पहल करनी होगी।
इस दिशा में यदि संघ चाहे तो संविधान के अनुच्छेद 356 तथा राजभाषा अधिनियम 1963 की धारा 3 (4) के अंतर्गत राजभाषा नियम 1976 में संशोधन कर यह व्यवस्था कर सकती है कि जिन राज्यों की पचास प्रतिशत जनता हिन्दी समझती है वे 'ख' क्षेत्र में वर्णित किए जाएं तथा जिन राज्यों की 10 प्रतिशत से अधिक जनता हिन्दी समझती है उन राज्यों में हिन्दी तीसरी या चौथी भाषा के रूप में प्रयुक्त मानी जाए। यदि संविधान में यह संशोधन कर लिया जाए तो इससे भारत के समस्त 29 राज्यों व 7 केन्द्रशासित प्रदेशों की राज्य सरकारों व वहां की जनता के साथ पत्राचार अंग्रेजी व वहां की राजभाषा के साथ ही हिन्दी में भी की जा सकती है। 'ग' क्षेत्र में वर्णित राज्यों में से आंध्रप्रदेश (तेलंगना सहित), गोवा, जम्मू कश्मीर, उडीसा, सिक्किम व पश्चिम बंगाल की 50 प्रतिशत से अधिक तथा शेष 12 राज्यों में बीस प्रतिशत से 50 प्रतिशत तक की जनता हिन्दी जानती है।
दूसरी ओर हम विश्व हिन्दी सम्मेलन का ढोल बजाकर खुद नाच गा रहे हैं। हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा बनाने हेतु हमें कुल 185 में से 93 राष्ट्रों की सहमति की आवश्यकता है। हमारा विदेश मंत्रालय इस दिशा में सार्थक प्रयास कर भी रहा है। जिस दिन विश्व के 93 राष्ट्र चाहेंगे, उस दिन से हिन्दी, संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा अवश्य बन जाएगी और हमें खुशी भी होगी कि हिन्दी अब यू.एन.ओ. की मान्यता प्राप्त भाषा हो गई है। परन्तु जो हिन्दी विश्वभाषा बन रही है या बनने के कगार पर है उसकी वास्तविक दुर्दशा यह है कि वह हिन्दी अपने ही देश के आधे से अधिक राज्यों के राजकाज में उपयोग में नहीं लाई जा पा रही है। हम हिन्दी को विश्वभाषा बनाने चले हैं, जबकि हिन्दी का अपने ही घर में यह हाल है। अपने ही देश में 29 में से 17 राज्य हिन्दी को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं, जबकि इन राज्यों की 50 प्रतिशत तक जनता हिन्दी को समझ लेती है। उचित होगा कि 'ग' क्षेत्र में जिन राज्यों की 50 प्रतिशत या उससे अधिक जनता हिन्दी जानती हो उसे ख क्षेत्र में वर्णित कर दिया जाना चाहिए। इन राज्यों में से आंध्रप्रदेश, तेलंगाना, गोवा, कर्नाटक, उडीसा, सिक्किम व पश्चिम बंगाल की 50 से 75 प्रतिशत तक जनता हिन्दी समझती है तथा जम्मू कश्मीर में तो लगभग 85 प्रतिशत जनता हिन्दी जानती है। इसी तरह आसाम, केरल व मणिपुर राज्यों की 40-50 प्रतिशत तक जनता हिन्दी को समझती है।
यह तो हिन्दी की दुर्दशा का एक पहलू है। अब हम दूसरे पहलू की ओर नजर लगाएंगे तो हमें पता चलेगा कि हिन्दी को तो भारतीय संविधान की अष्टम अनुसूची के अंतर्गत खोखला किया जा रहा है। हिन्दी का यह वट वृक्ष आज भले ही हमें घना व फैलता हुआ नजर आ रहा है, परन्तु अष्टम अनुसूची के कारण यह आने वाले समय में केवल व्यवहार की भाषा रह जाएगी। एक ओर अंग्रेजी का बढ़ता अंतर्राष्ट्रीय प्रभाव तथा अंदर से अष्टम अनुसूची की भाषाओं के कारण हिन्दी ना केवल समाप्त हो जाएगी बल्कि हो सकता है कि एक दिन यह संवैधानिक मान्यता भी खो दे।
हो सकता है कि अभी पाठकों को मेरे ये शब्द अतिशयोक्ति या अकल्पनीय लग रहे हों। परन्तु मैं यह बात पूरे तथ्यों तथा सूचना का अधिकार (आर.टी.आई.) से प्राप्त शासकीय प्रमाण के साथ बता रहा हूं।
आइए मूल विषय पर आने से पहले हम यह अच्छी तरह से जान लें कि अष्टम अनुसूची है क्या। दरअसल भारतीय संविधान ने भाषा से संबंधित वर्णन संविधान के अनुच्छेद 120 व 210 में तथा अनुच्छेद 343 से 351 तक वर्णित किया है। इसमें भाषा संबंधी कुल 11 अनुच्छेद हैं। इनमें अनुच्छेद 344 (1) व 351 अष्टम अनुसूची भाषाओं की मान्यताओं को प्रदर्शित करता है। संविधान लागू होते समय अष्टम अनुसूची में हिन्दी, असमिया, मराठी, गुजराती, संस्कृत, तमिल, तेलगु, कन्नड, बंगाली, उडिया, मलयालम, पंजाबी, उर्दू व कश्मीरी सहित कुल 14 भाषाएं थी। बाद में 1967 में इसमें सिंधी भी सम्मिलित की गई। फिर 1992 में कोंकणी, मणिपुरी व नेपाली मिलकर यह अठारह हो गई तथा अब इसमें 2004 से मैथिली, बोडो, संथाली व डोगरी इन चार - भाषाओं को भी मिला दिया गया है। इस प्रकार अब अष्टम अनुसूची में कुल बाइस भाषाएं हैं।
हिन्दी अभी तक इन्हीं बाइस भाषाओं में से एक थी। हिन्दी को मुख्यतः हिन्दी प्रदेशों की भाषा माना गया है, इसलिए हिन्दी भाषा उत्तर भारत की राजस्थान की मारवाडी, मवेती, जयपुरी, मध्यप्रदेश की मालवी, नीमच, बिहार की भोजपुरी, मिथिला, मगही, उत्तरप्रदेश की अवधि, व्रज व बुंदेलखण्डी तथा हरियाणवी, हिमाचली, मध्य पहाडी (गढवाली व कुमाऊंनी) आदि 24 क्षेत्रीय बोली-भाषाओं से मिलकर बनी है। इसे हम यह भी कह सकते हैं कि हिन्दी भाषा हिन्दी क्षेत्र की इन सभी 24 क्षेत्रीय भाषाओं की प्रतिनिधि भाषा है, अर्थात हिन्दी शब्द का प्रयोग करते ही इसमें इन सभी भाषाओं का आभास होता है। वैसे भी हिन्दी इन क्षेत्रों की लोक- भाषा व साहित्य से ही सम्पन्न हुई है। हम इस सत्य को स्वीकार करते हैं कि रामचरित मानस व सूरसागर जैसे महाकाव्य अवधी व व्रज में लिखे गए हैं। क्षेत्रीय भाषाओं का साहित्य अति प्राचीन व सम्पन्न अवश्य है, परन्तु उसका संरक्षण हिन्दी के ही विशाल वटवृक्ष के तले हो सकता है। लोक भाषाओं का अपना महत्व है और वह बना भी रहना चाहिए। लोक साहित्य रचे व गढ़े जाने चाहिए। परन्तु आज के वैश्विकरण के दौर में हम अपनी जडों को तो लोकभाषाओं से मजबूत कर सकते हैं, पर हम इसका विस्तार तो हिन्दी जैसी समृद्ध भाषा के आंचल में ही कर सकते है।
यहां तक तो बात सही है, परन्तु मामला तब अटकने लगा जब संविधान की अष्टम अनुसूची के बहाने हिन्दी की इस आभा की चमक को ढकने का प्रयास किया जाने लगा। वर्ष 2004 में बिहार की मैथिली को भी संविधान की अष्टम अनुसूची में वर्णित कर दिया गया है। अर्थात हिन्दी का जो घडा इन 24 क्षेत्रीय भाषाओं को मिलाकर भरा गया था, उस घडे में मैथिली रूपी पहला छेद कर दिया गया है। वर्तमान में जो 38 भाषाएं अष्टम अनुसूची में वर्णित होने हेतु प्रतीक्षारत हैं, उनमें से 16 भाषाएं हिन्दी की उपरोक्त 24 क्षेत्रीय भाषाओं में से हैं। इन 16 भाषाओं में से पूर्व गृह राज्यमंत्री श्री प्रकाश जायसवाल जी ने राजस्थानी और भोजपुरी को तथा वर्तमान गृहमंत्री श्री राजनाथ सिंह जी ने उत्तराखण्ड की गढ़वाली व कुमाऊंनी को अष्टम अनुसूची में वर्णित करने का आश्वासन दिया है। चलिए घड़े में एक दो छेद हों तो उन्हें तो ढका जा सकता है। परन्तु 16-17 छेदों से तो घड़ा छलनी जैसा हो जाएगा। फिर कहां बचेगी हिन्दी। वैसे भी वर्तमान में हिन्दी भारत के किसी भी गांव की भाषा नहीं है। हिन्दी भाषी राज्यों की अपनी क्षेत्रीय बोली भाषाएं है। परन्तु चूंकि वे क्षेत्रीय बोली-भाषाएं संविधान की अष्टम अनुसूची में नहीं आती हैं, इसलिए हमें हिन्दी को अपनी मातृभाषा का स्थान देना पड़ता है और इसी से हिन्दी सम्पन्न होते हुए आज विश्वभाषा बनने के चौखट पर खड़ी है। परन्तु अनुच्छेद 347 किसी राज्य के जनसंख्या के किसी भाग द्वारा बोली जानेवाली भाषाओं को मान्यता प्रदान करती है। इसी के तरह छत्तीसगढ़ राज्य ने अपने राज्य की राजभाषा छत्तीसगढ़ी कर दी है, उत्तराखण्ड की उत्तराखण्डी या गढ़वाली-कुमाऊँनी को मान्यता दिलाने हेतु प्रयासरत है। इसी प्रकार हिमाचल की हिमाचली, बिहार की भोजपुरी, राजस्थान की राजस्थानी आदि हो जाएंगी। कालांतर में हरियाणा की हरियाणवी, झारखण्ड की झारखण्डी आदि भी हो जाएगी, फिर कहां बचेगी हिन्दी। जो हिन्दी आज बमुश्किल 9 राज्यों र्क। 'पाषा बनी हुई है वह शायद दिल्ली तक ही सीमित रह जाएगी। जबकि हम अपनी मातृभाषाओं को बड़ा रूप देते हुए हिन्दी में वर्णित करते हैं जो कि आज राष्ट्रभाषा, राजभाषा व अब विश्वभाषा बनने वाली है। परन्तु जरा सोचिए जिस दिन अष्टम अनुसूची में मैथिली की तरह हमारी क्षेत्रीय भाषाएं भी वर्णित होने लगेंगी, उस दिन सबसे पहले हमारी मातृभाषा बदलकर हिन्दी के स्थान पर अवधी, भोजपुरी या बुंदेलखंडी हो जाएगी। मैं (लेखक) स्वयं उत्तराखण्ड का निवासी हूं और अभी मेरी मातृभाषा हिन्दी है। परन्तु जिस दिन संविधान मेरी गढवाली भाषा को अष्टम अनुसूची में वर्णित कर देगा, मेरी मातृभाषा भी गढ़वाली हो जाएगी। फिर जिस हिन्दी को आज 48.59 प्रतिशत लोग अपनी मातृभाषा मानते हैं, उस हिन्दी को मातृभाषा के रूप में मानने वाले बमुश्किल 2-4 प्रतिशत ही लोग बचेंगे। इतना ही नहीं बल्कि क्षेत्रीय साहित्यिक प्रवृत्ति एवं राजनीतिक मजबूरियों के कारण हमारी ये क्षेत्रीय बोलियां ही प्राथमिक शिक्षा से लेकर राजकाज की भाषा बनने लगेगी। छत्तीसगढी इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। उत्तराखण्ड में उत्तराखण्डी, हरियाणा में हरियाणवी व राजस्थान में राजस्थानी राजभाषा ही नहीं होगी बल्कि वहां के लोगों की मातृभाषाएं भी बन जाएंगी, फिर हिन्दी कहां बचेगी जो हिन्दी किसी राज्य की राजभाषा तक नहीं बचेगी उसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कौन संभालेगा।
अवधी अकादमी के अध्यक्ष श्री लल्लन व्यास की अध्यक्षता में एक अधिवेशन में यह प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित किया गया था कि ऐसी प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन न दिया जाए जिनका उद्देश्य हिंदी की किसी लोकभाषा का पृथक अस्तित्व या उसे पृथक मान्यता दिलाना है। राजस्थान के तत्कालीन राज्यपाल डॉ. संम्पूर्णानन्द ने भी दिल्ली के एक सार्वजनिक कार्यक्रम में व्यक्त दिया था कि कुछ बोलियों या लोकभाषाओं के हित संवर्धन की दृष्टि से आंदोलन चल रहे हैं। उसका उद्देश्य राष्ट्रभाषा हिंदी से अलग अपना अस्तित्व और मान्यता स्थापित करना है और यह प्रवृत्ति अगर रोकी न गई तो राष्ट्रभाषा पर सबसे बड़ा आघात होगा। यदि हिंदी की बोलियां, व्रज, अवधी, बुंदेलखण्डी, राजस्थानी, मैथिली, भोजपुरी व गढ़वाली पृथक भाषाएं बन जाती है तो फिर हिंदी का अस्तित्व और क्या शेष रह जाता है। इसी प्रकार की भावना हिंदी के वरिष्ठ साहित्यकार पं. श्रीनारायण चतुर्वेदी ने भी व्यक्त की थी।
वस्तुतः राजभाषा और राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी भाषा की एकरूपता की दृष्टि से खड़ी बोली के रूप को ही मानक रूप में स्वीकार किया गया, किन्तु निश्चय ही केवल खड़ी बोली रूप ही हिंदी नहीं है। हिंदी का समग्र 'रूप उसकी सभी लोकभाषा या बोलियों को मिलाकर बनता है, जिसमें कोई छोटी या बड़ी नहीं, सभी समान हैं और राष्ट्रभाषा के रूप का अन्योन्याश्रित अंग है।
यदि इस संबंध में सीताकांत महापात्र समिति की रिपोर्ट को भी स्वीकार कर लिया जाए, स्थिति तब भी जटिल ही रहेगी। सीताकांत महापात्र की रिपोर्ट के अनुसार हर राज्य से एक भाषा अष्टम अनुसूची में होनी चाहिए। लेकिन हिन्दी भाषी राज्यों में जो भी क्षेत्रीय बोलियां है वे सभी समृद्ध हैं तो आप उनमें से किसी एक का कैसे चयन कर सकते हैं। उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश में अवधी, व्रज व बुंदेलखण्डी तो बिहार में मैथिली व भोजपुरी तथा उत्तराखण्ड गढ़वाली व कुमाऊँनी सभी समान रूप से समृद्ध हैं। इसलिए इनमें से किसी एक को अष्टम अनुसूची हेतु चुनना अव्यवहारिक भी है व वह भाषा हिन्दी के लिए घातक भी है। यह बात और भी गौरतलब है कि अष्टम अनुसूची में जो 38 भाषाएं सम्मिलित होने वाली हैं, उनमें से एक विदेशी भाषा अंग्रेजी भी है। जिस दिन अंग्रेजी भाषा भी अष्टम अनुसूची में वर्णित हो जाएगी, उस दिन संविधान के अनुच्छेद 344 (1) व 351 के अनुसार भारत सरकार का यह भी दायित्व बन जाएगा कि वह अंग्रेजी का भी विकास करे। जो अंग्रेजी आज इतनी हावी है वह संवैधानिक मान्यता प्राप्त करते ही कितनी प्रभावशाली हो जाएगी, यह हम सभी अच्छी तरह से जानते हैं।
जबकि संविधान के अनुच्छेद 351 के अनुसार संघ को यह जिम्मेदारी दी गई है कि वह हिन्दी प्रकृति में हस्तक्षेप किए बिना हिन्दुस्तानी के और आठवीं अनुसूची में विनिर्दिष्ट भारत की अन्य भाषाओं से हिन्दी को समृद्ध करें। जबकि संविधान के इस अनुच्छेद के विपरीत भारत सरकार हिन्दी की प्रकृति में न केवल हस्तक्षेप कर रही है बल्कि आठवीं अनुसूची के अंतर्गत हिन्दी को कमजोर कर रही है। यह अष्टम अनुसूची हिन्दी के विकास में कैंसर की तरह है। अभी हम इसके प्रथम स्तर (फर्स्ट स्टेज) में ही हैं, इसलिए इसका उपचार हो सकता है, नहीं तो स्थिति बहुत भयावह हो सकती है।
हम 10-12 सितम्बर तक मध्य प्रदेश के भोपाल में दसवां हिन्दी सम्मेलन मना रहे हैं। खूब प्रस्ताव पास होंगे, खूब तालियां बजेंगी, परन्तु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जब दूरदर्शिता के अभाव में हम विश्व की श्रेष्ठतम प्राचीन भाषाओं संस्कृत व लैटिन को नहीं बचा पाए तो हिन्दी तो अभी विकासशील भाषा ही है।
इसलिए हमें हिन्दी के व्यापक हितों को देखते हुए सबसे पहले तो भारत के 'ग' क्षेत्र में स्थित सत्रह राज्यों व दो केन्द्र शासित प्रदेशों में हिन्दी को लागू करने हेतु प्रयास करने होंगे। हम यह नहीं कहते कि इन राज्यों में सारा कामकाज हिन्दी में हो। ये अपना काम महाराष्ट्र, गुजरात व पंजाब राज्य की तरह अपनी भाषाओं या अंग्रेजी में करें, परन्तु इन सरकारों के साथ व आम जनता के साथ पत्रादि की भाषा हिन्दी से करने की अनुमति होनी चाहिए।
इस हेतु सर्वप्रथम ग क्षेत्र के जिन दस राज्यों की 40 प्रतिशत से अधिक जनता हिन्दी को समझती है, उसे 'ख' क्षेत्र में वर्णित करने हेतु प्रयास किए जाएं तथा उसके पश्चात शेष सात राज्यों हेतु विचार किया जाए।
दूसरी बात कि हिन्दी उत्तर भारत के जिन क्षेत्रीय भाषाओं से मिलकर (24) प्रमुख क्षेत्रीय भाषाएं) बनी है, उनमें से किसी भी क्षेत्रीय भाषा तथा अंग्रेजी को अष्टम अनुसूची में वर्णित नहीं किया जाए। सभी क्षेत्रीय भाषाओं का प्रतिनिधित्व हिन्दी कर रही है। इन क्षेत्रीय भाषाओं के विकास हेतु अलग से क्षेत्रीय भाषा अकादमियां खोली जाएं तथा मैथिली को फिर से अष्टम अनुसूची से हटाकर हिन्दी के अंतर्गत ही रखा जाए।
तीसरी बात कि हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा बनाने के साथ ही अनुच्छेद 351 के अनुसार हिन्दी का अंतराष्ट्रीय स्तर पर ठीक उसी तरह से व्यापक प्रचार- प्रसार किया जाए, जैसा कि हम योग दिवस या अन्य विश्व दिवसों का आयोजन करते हैं।
- डॉ. राजेश्वर उनियाल
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