Indian Economy - A Victim of the Media
मीडिया की शिकार - भारतीय अर्थव्यवस्था
आज हमारा देश गंभीर आर्थिक, सांस्कृतिक तथा भाषा के संकट से गुजर रहा है। यह संकट अलग नहीं है बल्कि एक ही व्यापक संकट के अलग-अलग अंग है। वह संकट कौन-सा है? वह संकट है-साम्राज्यवाद की उदारीकरण नीति, खुली अर्थव्यवस्था तथा भूमंडलीकरण की जहरीली नीति। साम्राज्यवाद पूँजीवाद का ही एक विकारालतम रुप है। उसे पूँजीवाद का अंतिम चरण भी माना जा सकता है। पिछले दो दशक में यह रुप अपनी पूरी भयावहता के साथ दुनिया के बड़े भाग पर छा गया है। हमारा देश भी पूरी तरह इसकी छाया में आ चुका है। इसके विस्तार में जनसंचार माध्यमों की अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका रही है। पूँजीवादी संस्कृति के वाहक तथा विस्तारक जनमाध्यम होते है। इसी कारण आज रेडियो, टेलीविजन, सिनेमा ये सभी इस अपसंस्कृति के 'नौकरी' में लगे हुए है।
आज इस तेज गति से बदलते हुए परिवेश में हमारे देश की अर्थव्यवस्था मीडिया की शिकार किस तरह से हुई है इसे हम आगे विस्तार से समझने की कोशिश करेंगे।
मीडिया की शिकार : भारतीय अर्थव्यवस्था : भूमंडलीकरण की प्रक्रिया पिछले 25 वर्षों से काफी तेजी से चलती रही है। जैसा कि इसके नाम से ही प्रतिध्वनित होता है कि भूमंडलीकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसका क्षेत्र समस्त भूमंडल है। अर्थात इस प्रक्रिया के तहत स्थानगत प्रतिबंध या सीमाएँ नहीं होंगी। इस प्रकार भूमंडलीकरण एक ऐसी भौगोलिक प्रक्रिया है जो राष्ट्र- राज्य की सीमाओं का अतिक्रमण करती है। भौगोलिक प्रक्रिया के साथ-साथ भूमंडलीकरण मुख्यतः एक आर्थिक प्रक्रिया है। भूमंडलीकरण की प्रमुख विशेषता पूँजी और व्यापार का उदारीकरण है। आर्थिक विकास के संदर्भ में भूमंडलीकरण का अर्थ है किसी देश की अर्थव्यवस्था को अन्य देशों की अर्थव्यवस्था से जोड़कर उसे विश्वव्यापी बनाना। इसके लिए सभी वस्तुओं के आयात की खुली छूट, सीमा छूट, सीमा शुल्क में कमी, विदेशी पूँजी के मुक्तप्रवाह की अनुमति, सेवा क्षेत्र विशेषकर बैंकिंग, बीमा तथा जहाज क्षेत्रों में पूँजीनिवेश आदि उदार अर्थनीतियों को अपनाना आवश्यक है। आर्थिक उदारीकरण भूमंडलीकरण की आधारभूत शर्त है, जिसके बिना देश के अर्थव्यवस्था को विश्वव्यापी आयाम नहीं दिया जा सकता। उदारीकरण का अर्थ है देश के उद्योग, व्यापार, लघु उद्योग, निर्यात की उपेक्षा कर देश में विदेशी उद्योग व व्यापार स्थापित करने एवं आयात को बढावा देने की उदारता बरतना। इस प्रकार भूमंडलीकरण निर्यात की तुलना में आयात तथा स्वदेशी उद्योग-धन्धों की अपेक्षा विदेशी उद्योग धन्धों को प्रोत्साहन देने की आधारभूत नीति को अपनाकर चलता है जो किसी भी राष्ट्र के हित में नहीं है। विश्व के बड़े पूँजीवादी राष्ट्र भूमंडलीकरण को विकासशील देशों के लिए एक साम्राज्यवादी देश विकास का सब्ज़बाग दिखाकर विकासशील देशों का शोषण करना चाहते हैं।
विदेशी और बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा विकास- शील देशों में व्यापार और उद्योग स्थापित करने की छूट लेकर उस देश के उत्पादन और वितरण पर बड़े देशों का नियंत्रण स्थापित करना है। इन कंपनियों के प्रभाव से देशी उद्योग धन्धों के विकास में बाधा उत्पन्न होती है और विदेशी व्यापार दिन-ब-दिन फैलता है। इस प्रकार भूमंडलीकरण स्वदेशी उद्योगों को लूंजपूंज कर विदेशी उद्योगों का विकास करता है। वस्तुतः उदारीकरण तथा भूमंडलीकरण का सर्वाधिक लाभ बहुराष्ट्रीय कंपनियों को होता है। भारत का उदाहरण लें तो ये बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ पहले देश की कंपनियों की साझेदारी में अपना काम आरंभ करती है और फिर अपना वर्चस्व स्थापित होने पर उन कंपनियों को या तो खरीद लेती है या उन्हें अपना काम बंद करने के लिए मजबूर कर देती है। इस तरह इन कंपनियों ने हमारे देश का शोषण किया है।
आर्थिक उदारीकरण और भारत के बाजार में विदेशी और बहुराष्ट्रीय कंपनियों को प्रवेश दिए जाने के बाद बाजार पर व्यावसायिक कंपनियों के बीच स्पर्धा तेज हो गई। इन कंपनियों ने अपने उत्पादों को बढावा देने के लिए, उसे बेचने के लिए तरह-तरह के तरीके अपनाएँ। इसके लिए उन्होंने जनसंचार माध्यमों का सहारा लिया। इसी के कारण अखबारों, पत्रिकाओं और जनमाध्यमों में विज्ञापन छाने लगे। लोगों ने उपभोग की प्रवृत्ति को बढावा देने के लिए विज्ञापन के साथ-साथ टेलिविजन पर प्रसारित होनेवाले कार्यक्रमों का भी सहारा लिया गया। इस कारण कभी मनोरंजन और अच्छे जीवन संदेश देनेवाले धारावाहिक आज भारतीय संस्कृति और मूल्यों के साथ खिलवाड़ करते हुए उपभोक्तावाद को बढावा दे रहे हैं। ऐसा केवल टेलीविजन के साथ ही नहीं हुआ समाचार पत्र, फिल्मों और कुछ हद तक साहित्य के साथ भी हुआ है। इन सब में आज आम आदमी को धीरे-धीरे बाहर कर दिया गया है। ऐसा लगता है कि आज पूरा संचार माध्यम कुछ मुठ्ठी भर अमीर लोगों की अय्याशी को ही दिखाने में जुटा है। "कहने की जरुरत नहीं कि कारखानों में बने उपभोक्ता सामानों के लिए बनी बाजारव्यवस्था अब दुनिया के पैमाने पर विचार, स्वाद, पसंद और विश्वास की बिक्री के लिए इस्तेमाल की जा रही है। वस्तुतः विकसित पूँजीवाद के वर्तमान मंजिल में सूचना का उत्पादन और वितरण हर मायने में प्रधान अपरिहार्य गति बन गए है। अमेरिका में बने संवाद, विचार, जीने के तौर-तरीके और सूचना तकनीक अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बेचे जा रहे हैं। यह भी उतनाही महत्त्वपूर्ण है कि विश्वस्तर पर उनकी नकल भी हो रही है। आज रुस और अनेक यूरोपीय राष्ट्र अमेरिका के उपनिवेश बनते जा रहे हैं। मार्केट मैकेनिज्म युक्त वहाँ 'मीडिया साम्राज्यवाद' है।"¹
आज अमेरिका सारी दुनिया का मालिक बन बैठा है। सोवियत संघ जो पहले एक दूसरी महाशक्ति थी, टूट चुका है। रुस की अर्थव्यवस्था नष्ट हो चुकी है। इसके विपरीत अमेरिकी अर्थव्यवस्था खूब पनप रही है। सैनिक दृष्टि से भी अमेरिका दुनिया का बादशाह है और व्यापार के हर क्षेत्र में भी है। अर्थ-व्यवस्था का 'वैश्वीकरण' आज अमेरिकी विदेशी नीति का सर्वोपरि लक्ष्य है। सारी दुनिया एक विशाल बाजार बन जाने से उस पर दैत्याकार बहुराष्ट्रीय कंपनियों का प्रभुत्व स्थापित हो जाएगा। यह अधिकांश कंपनियाँ अमेरिकी है। इनकी विशालकाय अर्थसत्ता के सामने छोटे उद्योग-धन्धे बाजार में नहीं टिक सकते। व्यापार और करों सम्बन्धी वैश्विक समझौता गैट, (General Agreement On Trade and Tariffs) और उसके फलस्वरुप स्थापित 'विश्व व्यापार संगठन' (W.T.O.) इस वैश्वीकरण के यानी धनी मुल्कों के हित में दुनिया के बाजारों को खोलने के लक्ष्य की पूर्ति के ही साधन है। "आधुनिक पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में आर्थिक सांगठनिक ढाँचे की बुनियादी इकाई बहुराष्ट्रीय निगम है। पूँजी के इन दैत्याकार समूहों में कुछेक सौ विश्व बाजार में माल और सेवा के उत्पादन और वितरण पर अपना अधिपत्य कायम रखते हैं। इनमें अधिकांश समूह अमेरिका के स्वामित्त्व के अधीन होते हैं।"²
आज विश्व पर यूरोपीय और अमेरिकी सपनों का पूर्ण साम्राज्य है। इन सपनों को मालों की दुनियों तेजी से साकार कर रही है। विज्ञापनों के माध्यम से मालों की कृत्रिम आवश्यकता तैयार की जा रही है। जनमाध्यमों के विराटकाय तंत्र ने इन सबको संभव बनाने में मदद की है। नई विश्व व्यवस्था का पूँजीवादी तंत्र आज दुनियाभर के संचार माध्यमों पर अपनी पकड़ के जरिए एक नई भूमंडलीय संस्कृति के निर्माण का प्रयास कर रहा है।
इलेक्ट्रॉनिक जनसंचार माध्यम बहुत ही शक्ति शाली माध्यम है। जो लोकजीवन को बहुत ज्यादा प्रभावित करते हैं। टेलिविजन दृश्य-श्रव्य माध्यम होने के कारण दर्शक इसके साथ जल्द ही एक रुप हो जाते हैं। ऐसे शक्तिशाली माध्यम का अगर सही ढंग से इस्तेमाल किया जाए तो भारत जैसे पिछड़े देश में बहुत कम समय में आर्थिक परिवर्तन हो सकता है और प्रगति तथा विकास का रास्ता तैयार किया जा सकता है। लेकिन अब तो जो परिस्थिति है उसे देख कर ऐसा लगता है कि इस माध्यम का देश से गरीबी, बेरोजगारी, जात-पात, साम्प्रदायिक, धर्मान्धता, अंधविश्वास, अशिक्षा और अज्ञान दूर करने में कम लोगों को निकम्मा और अराजक बनाने के लिए अधिक उपयोग किया जा रहा है। इस संदर्भ में डॉ. कृष्ण कुमार रत्तू का मत विचारणीय है- "दूरदर्शन ने जानबूझकर जागृति एवं विकासोन्मुख कार्यक्रमों के स्थान पर घटिया स्तर के मनोरंजन कार्यक्रम परोसने आरंभ कर दिये हैं। जिससे देश की युवा पीढी गुमराह हो रही है। वैसे भी मालूम पड़ता है कि कार्यक्रम दस प्रतिशत उच्चवर्ग के दर्शकों को ध्यान में रखकर बनाये जा रहे हैं, जिनके पास पैसा और समय होता है। यह अधिकांश कार्यक्रम जनता की आशाओं और आकांक्षाओं को प्रतिबिम्बित करने के स्थान पर हमें केवल उपभोक्तावादी व्यवस्था के मोहजाल में फँसाते हैं। अश्लील, भौंडे और विलासितापूर्ण विज्ञापनों से दर्शकों की रुचि को विकृत किया जा रहा है जिससे लगता है कि पूरा देश संपन्नता के समुद्र में गोते लगा रहा है। जबकि वास्तविकता यह है कि लगभग आधी आबादी 'गरीबी रेखा के नीचे' (Below Poverty Line) जीवन यापन करने के लिए अभिशप्त है।"³ यह सब षडयंत्र देखकर ऐसा लगता है कि देश का आम आदमी चाहे वह किसान हो या मजदूर इस व्यवस्था के हाथों की कठपुतली है, जो इनके इशारे पर नाचने के लिए मजबूर है। जो कि स्वाधीन भारत का एक नागरिक होते हुए भी गुलामी से भरा जीवन जीने के लिए शापित है। जिस तरह का आधुनिकीकरण हमारे यहाँ बढ़ रहा है वह अनुकरण है, एक नकल है। इसमे सृजनात्मकता का अभाव है। इसका सबसे ज्यादा दुष्प्रभाव गाँवों के किसानों और मजदूरों को झेलना पड़ रहा है। अब वे न परम्परागत रह गए है, और न आधुनिक ही बन पाए हैं। आज भारतीय किसानों की समस्या, उनकी आत्महत्या हमारे संपूर्ण औद्योगिक विकास पर प्रश्नचिन्ह लगाती है। मौजूदा दौर में जो सांस्कृतिक संकट दिखाई दे रहा है वह मूलतः आर्थिक संकट की उपज है। "हम भारतीय हैं और भारतीय सामान खरीदें" यह नारा भारतीय पूँजी के विकास का आधार भूत नारा था इस नारे को भुला दिया गया। इसमें भारतीय टेलिविजन की प्रमुख भूमिका है। छोटे पर्दे से विज्ञापनों के जरिए विदेशी मालों का श्रेष्ठत्व, सीधे-सीधे प्रक्षेपित किया जा रहा है। "भारत में माल की दुनिया में बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ पूरी तरह हावी है। वे अंतर्राष्ट्रीय ब्रांड को 'स्थानीय रुप' में पेश करती है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों की भारत में रणनीति एक है। एक प्रवृत्ति है 'ग्लोबल इमेज' के प्रचार की, दूसरी प्रवृत्ति है "ग्लोबल रणनीति और स्थानीय इमेज" अनुभव से देखा गया है कि दूसरी प्रवृतिवाली कंपनियाँ बाजार में विजेता रही है। उदा. पेप्सी, हिंदुस्तान लीवर आदि। वे इसका खयाल करती है कि स्थानीय स्तर पर किस चीज का महत्त्व है। उसकी वे उपेक्षा नहीं करती वे स्थानीय इच्छा और आकांक्षा को ग्लोबल इमेज के साथ बेचने में सफल हो जाती है। साथ ही अपने विचार और जीवन शैली को भी लोगों के दिलो-दिमाग में उतारने में सफल हो जाती है।"⁴
कुल-मिलाकर कहा जा सकता है कि हमारी भारतीय अर्थव्यवस्था आर्थिक उदारीकरण और भूमंडलीकरण से बहुत ज्यादा प्रभावित हुई है। विश्व के बडे पूँजीवादी राष्ट्रों की साजिश के तहत 'मीडिया' के हाथों शिकार हुई है। जिस कारण हमारे जो पारंपारिक छोटे-छोटे उद्योग धन्धे थे वह पूर्ण रुप से बंद हो चुके हैं। साथ ही देशी और विदेशी कंपनियों ने अपने माल को बेचने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाकर, जनसंचार माध्यमों की सहायता से इस देश के आम आदमी और निम्नमध्यवर्ग को उसकी क्षमता न होते हुए भी 'कर्ज' कि दलदल में उसे फँसाया है। उसे 'कर्ज' निकालकर किश्तों में क्यों ना हो वस्तुएँ खरीदने पर मजबूर किया है, बढती महँगाई और कर्ज के बोझ ने समय से पहले ही उसकी कमर झुका दी है। उम्र से पहले ही उसे बूढा होने पर मजबूर किया है। उदाहरण के तौर पर हम देखते हैं कि यदि कोई मध्यवर्गीय व्यक्ति अगर अपना नया घर किश्तों में खरीदता है तो उसकी बची हुई जिंदगी उस घर की कर्ज की किश्तों को चुकाने में ही गुजर जाती है। यह कितनी दयनीय स्थिति है।
देशी-विदेशी कंपनियों ने अपने फायदे के लिए यहाँ लोगों में कृत्रिम आवश्यकताएँ पैदा की और उन्हें अपना माल खरीदने पर मजबूर किया। इस सबका परिणाम आज हमारे सामने है। आज लोगों को अपने जीवन में कई आर्थिक कठिनाईयों का सामना करना पड़ रहा है। आज किसी मध्यमवर्गीय परिवार को बाहर से देखने पर तो ऐसा लगता है कितना सुखी और संपन्न परिवार है, लेकिन असल में वह दीमक के खाई उस लकडी की तरह अंदर से खोखला होता है, जो बाहर से दिखाई नहीं देता। ठीक उसी तरह की अवस्था आज हमारे भारतीय अर्थव्यवस्था की हुई है। आये दिन समाचार पत्रों, रेडियो, टेलिविजन पर बताया जाता है कि 'शेयर बाजार' का निर्देशांक आज फलां-फलां आँकडे की उँचाईयों को छू रहा है, दिन-ब-दिन यह बढ़ता ही जा रहा है। लेकिन ध्यान देने की बात यह है कि आज आम आदमी इतना ही नहीं तो पढ़े-लिखे मध्यमवर्गीय आदमी को यह भी पता नहीं की शेयर बाजार क्या है ? यह कौन- सा नया बाजार है। इसमें क्या खरीदा और बेचा जाता है? उसका चढ़ना और उतरना समझना तो बहुत बाद की बात है।
जब तक हमारे देश के आम आदमी के आर्थिक हालात नहीं सुधर जाती तब तक हमारे देश की अर्थव्यवस्था बहुत ही शक्तिशाली है ऐसा कहना खयाली पुलाव पकाने के समान है। जिसका वास्तविकता से कोई संबंध नहीं है। कोई अर्थ नहीं है।
संदर्भ सूची :
1. मीडिया माफिया - डॉ. अर्जुन तिवारी, पृष्ठ 77
2. संचार माध्यम और सांस्कृतिक वर्चस्व - हरबर्ट आई शिलर, अनुवादक - राम कविंद्र सिंह, पृष्ठ 15
3. दृश्य श्रव्य एवं जनसंचार माध्यम डॉ. कृष्णकुमार रत्तू, पृष्ठ 106
4. जन माध्यम और मास कल्चर चतुर्वेदी, पृष्ठ 174 - जगदीश्वर
- प्रो. रामदास नारायण तोंडे
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