Linguistic consciousness in Hindi poetry
हिंदी काव्य में भाषायी चेतना
किसी देश की स्वतंत्रता, अखण्डता और सुरक्षा के मूल में वहाँ के कवियों की वाणी का परिचय प्राप्त होता है। किसी जाति की संस्कृति, सभ्यता, इतिहास, भूगोल, राजनीति और सामाजिक मूल्यों की सही पहचान कवियों के स्वर में मुखर होती है। कवि कर्म एक ओर दासता से मुक्ति के लिए विद्रोह, विध्वंस और क्रांति की उपासना है तो दूसरी ओर सृजन, विकास और प्रगति की दिशा को निर्धारित करता है। किसी देश के उत्थान और पतन का महत्वपूर्ण ऐतिहासिक अभिलेख कवियों के स्वर में गूँजा करता है। विश्व साहित्य इसका प्रमाण है। जब-जब कवियों की वाणी में शैथिल्य आ जाता है तब-तब जीवन-रस का मूल आस्वाद परिभाषित कर पाना कठिन हो जाता है। सामाजिक मान्यताएँ जड़वत रह जाती हैं और नैतिक मूल्यों के अस्तित्व को खतरा उत्पन्न हो जाता है।
कवि एक ओर सुषुप्त समाज और जाति को जागृत बनाने के प्रयासों में संलग्न रहता है तो दूसरी ओर जागृत समाज को सही दिशा पर सतत् बढ़ने की प्रेरणा देता है। इस संदर्भ में यदि हम हिंदी काव्य में 'भाषायी चेतना' का अवलोकन करें तो स्थिति स्पष्ट हो जाती है। क्योंकि स्वाधीनता की अर्द्धशती बीत जाने के सुदीर्घ अन्तराल पश्चात भी हम भाषा की दृष्टि से मानसिक स्तर पर आज भी विदेशी भाषा अंग्रेजी की पराधीनता से मुक्त नहीं हो पाए हैं। राष्ट्र-भाषा हिंदी को उचित अधिकार से वंचित रखकर राजनेताओं ने देश और देशवासियों का बहुत अहित किया है। सच यह है कि राजनीतिक स्वाधीनता मिल जाने के पश्चात भी आम आदमी आर्थिक तनाव और भाषायी छलना का शिकार है। डॉ. जीवन शुक्ल की पीड़ा संभवतः यही है-
"भारत की धरती पर / औरों की भाषा।
अर्थनीति औरों की / औरों की आशा।
आता है बार-बार फिर / ऐसी आज़ादी पर क्रोध।"¹
राष्ट्रभाषा देश की संस्कृति, धर्म तथा राजनीति का मुख पत्र है। भाषा के व्यतिरेक मनुष्य गूंगा है। राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र भी मूँगा है। प्रत्येक देश की राष्ट्रभाषा पर वहाँ की जनता को अभिमान है किन्तु भारत में हमें अंग्रेजी पर गर्व है। हिंदी के प्रति लोग भरकुंचन करते हैं। गुलामी की मनोवृत्ति आज भी हममें है। आज प्रशासन और जनता के बीच भाषायी दीवार है। भोली जनता को लूटने का यह एक कुटिल षड्यंत्र है। राष्ट्रभाषा हिंदी की स्थिति आज देश में मजबूत नहीं है। हिंदी अपने देश में दासी है। इसके लिए विश्व भाषा का सपना हास्यास्पद है। शासन के सिंहासन पर आज अंग्रेजी रानी बन बैठी है। हिंदी तो चपरासी है। शासन-तंत्र के सारे अधिकारी अंग्रेजमय हैं। ऐसी स्थिति पर भारत रत्न कवि अटल बिहारी वाजयेपी को दुःख है। सत्ताधारियों और अधिकारियों का अंग्रेजी प्रेम उन्हें व्यथित करता है। वे इस व्यवस्था पर व्यंग्य करते हैं। उनका कहना है कि हिंदी के विश्व सम्मेलन से हिंदी का विकास नहीं होगा। यदि हिंदी का विकास करना है तो पहले अपने देश में इसका विकास करना होगा। अपने ही देश से अंग्रेजी की जड़ को नष्ट करना होगा। उसका दुर्ग तोड़ना होगा। हिंदी के कार्यान्वयन के प्रति अटल जी के उद्गार का एक चित्रण प्रस्तुत है-
"बनने चली विश्व भाषा जो, / अपने घर में दासी
सिंहासन पर अंग्रेजी है, / लखकर दुनिया हाँसी,
लखकर दुनिया हाँसी, / हिंदी दाँ बनते चपरासी
अफसर सारे अँगरेजीमय, अवधी हों या मदरासी,
कह कैदी कविराय, / विश्व की चिंता छोड़ों,
पहले घर में / अँगरेजी के गढ़ को तोड़ो।"²
भारत की विशालता में हमें अनेक विविधताओं के दर्शन होते हैं। दिनकर जी ने अपनी पुस्तक 'संस्कृति के चार अध्याय' में भाषायी भिन्नता को राष्ट्रीय एकता के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा माना था। भाषा भिन्नता की इस समस्या को स्वतंत्र भारत में भी भोगा गया। इस भाषा भेद की समस्या को समुचित समाधान देने हेतु प्रयास भी किए गए तथा बुद्धिजीवी, विद्वानों ने भाषागत समन्वय स्थापित करने के प्रयास भी किए। गिरिजा कुमार माथुर ने इस संदर्भ में हिंदी भाषा को समन्वय और सब भाषाओं से तालमेल के उपयुक्त मानते हुए कहा है-
"एक डोर में सबको जो है बांधती।
- वह हिंदी है
हर भाषा को सगी बहन जो मानती
वह हिंदी है
भरी पूरी हो सभी बोलियाँ।
यही कामना हिंदी है
गहरी हो पहचान आपसी
यही साधना हिंदी है
सौत विदेशी रहे न रानी
यही भावना हिंदी है।"³
भारत की राष्ट्रभाषा हिंदी के प्रति सम्मान की भावना रखते हुए, हिंदी को एकता का सूत्र तथा सभी भाषाओं के मध्य समन्वयकारी भाषा मानते हुए वे (गिरिजा कुमार माथुर) अपना मातृभाषा प्रेम इस प्रकार प्रकट करते हैं-
"सागर में मिलती धाराएं
हिंदी सबकी संगम है
शब्द, नाद, लिपि से भी आगे
एक भरोसा अनुपम है
गंगा कावेरी की धारा
साथ मिलती हिंदी है।
पूरब-पश्चिम
कमल-पंखुरी सेतु बनाती
हिंदी है।"⁴
राष्ट्रभाषा का विकास राष्ट्रीय चरित्र निर्माण में सहायक है। राष्ट्रीय प्रगति राष्ट्रभाषा की उन्नति पर अवलंबित है। संस्कृति तथा सभ्यता के विकास में भाषायी विकास की मुख्य भूमिका होती है। भाषा की उन्नति पर ही राष्ट्र की अस्मिता टिकी हुई होती है। कवि अटल बिहारी वाजपेयी पर भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के कथन का प्रभाव है- "निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति के मूल।" इस महामंत्र से कवि अटल जी दीक्षित हुए। राष्ट्र संघ में जाकर उनका हिंदी में भाषण इसकी पुष्टि करता है। इनकी कुंडलियों से यह बात झलकती है-
"गूंजी हिंदी विश्व में,
स्वप्न हुआ साकार,
राष्ट्र संघ के मंच से,
हिंदी का जयकार,
हिंदी का जयकार,
हिंद हिंदी में बोला,
देख स्वभाषा-प्रेम,
विश्व अचरज से डोला,
कह कैदी कविराय
मेम की माया टूटी
भारत माता धन्य,
स्नेह की सरिता फूटी,"⁵
अतः राष्ट्र तथा राष्ट्रभाषा-प्रेम हिंदी काव्य की खूबी है जो सुप्त युवा वर्ग में स्फूर्ति, का महामंत्र फूंकती है, सोयी हुई जनता को जगाती है। खोयी हुई मानवता को जीने का नवीन मार्ग दिखाती है। इस प्रकार हिंदी काव्य में भाषा से प्रेम व भाषायी चेतना को हमने देखा जो हमारे जातीयतत्व में निखार लाती है और विश्व में हमारा परिचय करवाती है।
संदर्भ;
1. झाऊ की ओत में गुलाब - पृ. सं. 123
2. न दैन्य न पलायनम् - पृ. सं. 24
3. मैं वक्त के हूं सामने - गिरजा कुमार माथुर - पृ. सं. 62
4. वहीं - पृ. सं. 63
5. न दैन्य न पलायनम् - अटल बिहारी वाजपेई- पृ. सं. 28
- मीनासिंह
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