Marxist Thought in Pragativadi Kavita : Various Aspects
प्रगतिवादी कविता में मार्क्सवादी चिंतन : विविध आयाम
प्रत्येक युग की अपनी दृष्टि और सृष्टि होती है। परिस्थितियों और परिवेश से प्रभावित होकर रचनाकार की दृष्टि खुलती है और आवश्याकतानुसार फैलती है। अचानक न तो कोई धारा समाप्त होती है, और न कोई प्रारंभ ही हो पाती है। किसी भी युग की समाप्ति और नए युग के आरंभ की भूमिका वस्तुतः निश्चित अवधि के पूर्व ही पड़ चुकी होती है जो शनैः शनैः व्यापक होते हुए एक निश्चित समय में उचित अवसर पाकर पुराने के अंत और नए आगमन की घोषणा कर देती है। छायावाद व्यष्टिगत सत्य की समष्टिगत परीक्षा में अनुत्तीर्ण रहा था। अतः काव्य क्षेत्र में किसी प्रतिक्रिया का आगमन अनिवार्य ही था और उसी के परिणाम स्वरुप एक नवीन काव्यधारा, एक नवीन काव्य प्रवृत्ति ने जन्म लिया जिसे प्रगतिवादी कविता कहा जाने लगा।
इस प्रकार प्रगतिवादी काव्य की संज्ञा उस काव्य को दी गई जो छायावाद के उपरांत सन् 1936 के आसपास शोषण के विरुद्ध नई चेतना लेकर रचा गया। हिंदी की प्रगतिवादी कविता मार्क्सवाद से प्रभावित है। सच पूछा जाय तो मार्क्सवाद का ही साहित्यिक रुप प्रगतिवाद है। साम्यवादी विचारधारा का पोषण करनेवाली रचनाओं को प्रगतिवादी रचनाएँ कहा जाता है। प्रगतिवादी विचारधारा का मूलाधार मार्क्सवाद या साम्यवाद है। मार्क्सवाद का लक्ष्य समाज में साम्यवादी व्यवस्था स्थापित करना है। इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए वह विद्रोह हिंसा एवं क्रांति का समर्थन करता है। मार्क्सवाद में शोषितों एवं शासकों के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए प्रेरित एवं उत्तेजित किया गया है। प्रगतिवाद के नामकरण के संदर्भ में डॉ. शिवकुमार शर्मा कहते हैं- "जो विचारधारा राजनीतिक क्षेत्र में समाजवाद और दर्शन में द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद है, वही साहित्यिक क्षेत्र में प्रगतिवाद के नाम से अभिहित की जाती है। दूसरे शब्दों में मार्क्सवादी या साम्यवादी दृष्टिकोण के अनुसार निर्मित काव्यधारा प्रगतिवाद है।"¹ प्रगतिवादी कविता में मार्क्स के विचारों को लेकर डॉ. माधव सोनटक्के - कहते हैं- "प्रगतिवाद की मूल प्रवृत्ति विद्रोह रही है। पूँजीवादी भ्रष्ट और विषम व्यवस्था के प्रति यही विद्रोही स्वर मार्क्सवादी विचारधारा में विश्वास करता है। प्रगतिवादी काव्य आंदोलन के दौर में एक और ऐसी कविताएँ भी लिखी गई, जिसमें मार्क्सवादी विचारधारा के आलोक में प्रचलित व्यवस्था का विश्लेषण कर उसके विनाश और नई व्यवस्था के निर्माण में अदम्य विश्वास प्रकट हो तो दूसरी ओर मार्क्सवादी विचारों का काव्य रुपांतरण भी किया गया, जिसमें समकालीन यथार्थ से आँख मूँदकर मार्क्स का मात्र गुणगान हो।"³
प्रगतिवादी कविता सामाजिक यथार्थ का चित्रण करना अपना हेतु मानती है। पुरानी शक्तियाँ शोषक वर्ग का प्रतीक है, जबकि नवीन शक्तियाँ शोषित गरीबों, किसानों, मजदूरों की समस्या का चित्रण अपनी कविता में करती है। परंपरा से चलते आ रहे शोषण का विरोध करना प्रगतिवादी कविता का मूल तत्व है। प्रगतिवादी कवि उस साहित्य को व्यर्थ मानता है, जो समाज का सत्य नकारकर कल्पना के महल पर खड़ा किया गया है। प्रगतिवादी कविता में सौंदर्य को लेकर डॉ. नगेन्द्र कहते हैं-"प्रगतिवाद ने सौंदर्य को नये दृष्टिकोण से देखा है। वह वर्तमान जन-जीवन में सौंदर्य खोजता है। सौंदर्य का संबंध हमारे हार्दिक आवेगों और मानसिक चेतना दोनों से होता है। इन दोनों का संबंध सामाजिक संबंधों से होता है। नये समाज में पलनेवाला अथवा उसके साथ चलने का प्रयास करनेवाला कवि नये उठते हुए समाज में सौंदर्य देखेगा। वह संघर्षों से भागकर किसी अतीत या कल्पना लोक के निष्क्रिय सौंदर्य में मुँह नहीं छिपायेगा।"³ प्रगतिवादी साहित्य का उद्देश्य है, सामाजिक यथार्थ का इस रुप में चित्रण करना जिससे समाज की कुरुप, शोषक, सड़ी-गली विसंगतियाँ उजागर हो सके। साहित्य का उद्देश्य प्रचार नहीं है क्योंकि प्रचार साहित्य को हल्का बना देता है। काव्य का शिल्प उसके वक्तव्य विषय के अनुरुप होता है। उसके प्रतीक, बिंब, उपमान, मुहावरे, चित्र, अलंकार सभी जन जीवन से लिये जाते हैं।
प्रगतिवादी कविता जिस चेतना से प्रेरित होकर सामने आयी उसमें समाज का स्थान सर्वोपरि था। प्रगतिवादी कवियों की सामाजिक दृष्टि भी अत्यंत स्पष्ट रही है। प्रगतिवादियों ने अपनी नवीन चिंतन और प्रगतिशील दृष्टि के अलोक में समाज के बाहय् और आंतरिक दोनों पक्षों को सूक्ष्मता से देखा समझा है। यही कारण है कि ये कवि समाज के नवनिर्माण के लिए प्रयत्नशील रहे हैं। इनकी सामाजिक दृष्टि यह रही है कि समाज से कुरीतियों का निष्कासन किया जाय, अंधविश्वासों को तिलांजली दी जाय, और धार्मिक व सामाजिक रुढ़ियों का बहिष्कार करते हुए समानता की भावना को महत्व दिया जाय। प्रगतिवादियों की सामाजिक दृष्टि में जहाँ एक ओर पीड़ितों, दलितों और शोषितों के प्रति सहानुभूति का भाव दिखाया गया है। वही पूर्व से अत्यधिक महत्व देकर उनके प्रति कल्याण की कामना भी व्यक्त की गई है। सामाजिक विषमताओं को दूर करके एक ऐसे समाज की आधारशीला रखने की प्रेरणा और भावना सभी प्रगतिवादियों में मिलती है। जिसमें मनुष्य वर्ग-भेद से ऊपर उठ सके। मनुष्यता से जीवनयापन कर सके। यही सामाजिक चिंतन उत्तरोत्तर विविध आयामों से विकसित हो गया और व्यक्ति को आंतरिक और बाह्य विकास के लिए प्रेरित करता रहा।
प्रगतिवादी कवियों ने साम्यवादी व्यवस्था की प्रतिष्ठा करने के लिए सामंतवादी परंपरा का नाश आवश्यक समझा है। केवल परंपराओं का नाश ही पर्याप्त नहीं बल्कि शोषक वर्ग की सर्वथा ध्वंस वांछनीय है। अतः प्रगतिवादी कवि क्रांति के उन प्रलयंकारी स्वरों का आव्हान करता है, जिनसे जीर्ण-शीर्ण रुढ़ियाँ एवं परंपरायें हमेशा के लिए समाप्त हो जायेगी। प्रगतिवादी कवि समझौते या हृदयपरिवर्तन की नीति पर विश्वास नहीं रखता। वह फोड़े को मरहम के उपयोग से अंदर नहीं दबाना चाहता, बल्कि उसे उसके जड़ से उन्मूलन अभीष्ट है। बालकृष्ण शर्मा नवीन अपने शब्दों में कहते हैं-
"कवि कुछ ऐसी तान सुनाओं
जिससे उथल-पुथल मच जायें।"
इसी क्रांति की भावना को हरिवंशराय बच्चन अपने शब्दों में व्यक्त करते हैं-
"उठ समय से मोरचा ले
धूल धूसर वस्त्र मानव,
देह पर फबते नहीं हैं,
देह के ही रक्त से तू देह के कपडे रंगा ले।"
प्रगतिवादी कवियों ने शोषितों का करुण गान किया है। वे कहते है कि शोषण मानव जाति के लिए एक घोर अभिशाप है, और इसका निवारण साम्यवादी व्यवस्था का लक्ष्य है। शोषण की चक्की में पिसने वाले शोषित वर्ग-मजदूरों, किसानों एवं पीड़ितों की दशा का प्रगतिवादी कवि ने सहानुभूतिपूर्ण कारुणिक चित्रण किया है। प्रायः सारे प्रगतिवादी काव्य में यही करुण कहानी है, जिसमें सांसरिक सुखों से वंचित शोषित वर्ग के जीवन के करुण अध्याय जुड़े है। निराला बंगाल के अकाल का दुखद चित्र उपस्थित करते हुए लिखते हैं-
"बाप बेटा बेचता है, भूख से बेहाल होकर।
धर्म धीरज प्राण खोकर, हो रही अनरीति बर्बर।
राष्ट्र सारा देखता है।"
प्रगतिवादी कवि सामाजिक विषमता को दूर करने पर विशेष बल देता है। निराला पूँजीवादियों को समाज का शोषण बताते हुए अपनी कविता कुकुरमुत्ता में प्रतीकों के माध्यम से कहते हैं-
"अबे सुन बे गुलाब
भूल मत जो पाई खुशबू रंगो आब
खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट
डाल पर इतरा रहा कैपेटलिस्ट।"
प्रगतिवादी कवियों ने किसान, मजदूर एवं अन्य मध्यमवर्गीय लोगों की सामाजिक स्थिति के प्रति अपनी सहानुभूति व्यक्त की है। कैसी विडंबना है कि जो श्रमिक कारखानों में सारी वस्तुओं का निर्माण करता है। वह सुख के सभी उपकरणों का सृष्टठा है परंतु स्वयं उससे वंचित है, वह अन्नदाता है, परंतु भूखा है। यह है भारत का दरिद्र नारायण मजदूर और किसान।
जैसे-
"ओ मजदूर ! ओ मजदूर !!
तू सब चीजों का कर्ता,
तू ही सब चीजों से दूर,
ओ मजदूर ! ओ मजदूर !!"
प्रगतिवादी कवि ऐसे समाज का निर्माण चाहते हैं, जहाँ वर्ग भेद न हो। साम्यवादी व्यवस्था की स्थापना करना चाहते हैं। व्यापारी, जमींदार, उद्योगपति पूँजीवादी व्यवस्था को बनाये रखना चाहते हैं। प्रगतिवादी कवि पूँजीवादी व्यवस्था को कुचल देना चाहते हैं। सामाजिक जीवन के वैषम्य को देखकर आक्रोशमयी प्रलंयकारी वाणी में दिनकर जी कहते हैं-
"श्वानों को मिलता वस्त्र दूध, भूखे बालक अकुलाते हैं।
माँ की हड्डी से चिपक ठिठुर, जाडों की रात बिताते हैं।।
युवती की लज्जा बसन बेच, जब ब्याज चुकाये जाते हैं।
मालिक जब तेल फूलेलों पर पानी सा द्रव बहाते हैं।
पापी महलों का अहंकार देता मुझको तब आमंत्रण।।"
प्रगतिवादी कवि के लिए मजदूर तथा किसान के समान नारी भी शोषित है। वह युग-युग से सामंतवादी व्यवस्था में पुरुष दासता की लोहमयी श्रृखंलाओं से बद्ध बंदिनी के रुप में पड़ी है। वह अपना स्वतंत्र अस्तित्व खो चुकी है। प्रगतिवादी कवि नारी को वासनातृप्ति का साधन नहीं मानता, वह उसे सम्मान देता है। नारी के मुक्ति का समर्थन करते हुए पंत जी कहते हैं-
"योनि नहीं है रे नारी वह भी मानवी प्रतिष्ठित ।
उसे पूर्ण स्वाधीन करो वह रहे न नर पर अवसित।।"
सामाजिक चेतना के पक्षधर और यथार्थ वोध के वाहक मुक्तिबोध, शिवमंगलसिंह सुमन और नागार्जुन की संवेदना का प्रसार उन लघु मानवों तक है जो दलित, शोषित और जीवनहीन है। मुक्तिबोध तो सभी दीन-हीन दलितों की पीड़ा से परिचित है और यह मानते हैं कि प्रत्येक के हृदय में इतनी पीड़ा है कि उस पर एक महाकाव्य लिखा जाता है।
जैसे-
"मुझे भ्रम होता है कि,
प्रत्येक पत्थर में चमकता हीरा है।
हरेक छाती में आत्मा अधीरा है।।
प्रत्येक सुस्मित में विमल सदानीरा है,
मुझे भ्रम होता है कि,
प्रत्येक वाणी में महाकाव्य पीड़ा है।"
निष्कर्ष :
निष्कर्ष रुप में इस प्रकार प्रगतिवादी कविता में मार्क्सवादी विचारों का चिंतन विविध आयामों से हुआ है। प्रगतिवादी कवि मार्क्स को अभिप्रेत साम्यवादी व्यवस्था की स्थापना करना चाहते हैं। वे अपनी रचनाओं में शोषितों का करुण गान, शोषकों के प्रति घृणा, क्रांति की भावना, रुढ़ि का विरोध, नारी का चित्रण, मानवतावाद, सामाजिक जीवन का यथार्थ चित्रण, वेदना और निराशा आदि का चित्रण सूक्ष्मता के साथ करते हैं। प्रगतिवादी कवियों की सामाजिक दृष्टि यथार्थ के अंकन के साथ साथ सभी प्रकार की विषमताओं, विसंगतियों और रुढ़ियों को तिलांजलि देकर नवनिर्माण की चेतना से जुड़ी हुई दिखाई देती है।
संदर्भ एवं आधार ग्रंथ सूची :
1. हिंदी साहित्य युग और प्रवृत्तियाँ - डॉ. शिवकुमार शर्मा
2. हिंदी साहित्य का इतिहास - डॉ. माधव सोनटक्के
3. हिंदी साहित्य का इतिहास - डॉ. नगेंद्र
4. समकालीन हिंदी उपन्यास वर्ग एवं वर्ण संघर्ष - डॉ. जालिंदर इंगळे
- डॉ. नवनाथ गाड़ेकर
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