The story of Amrita Devi Bishnoi : Sacrificed her life to save trees Special children's story on World Environment Day: Amrita Devi saved trees - Bal Kahani
जानिए अमृता देवी कौन के बारे में जिन्होंने पेड़ों की रक्षा के लिए दिया था बलिदान : 5 जून विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष पढ़िए पेड़ों के लिए अपना बलिदान देनेवाली अमृता देवी बिश्नोई के बारे में, ये सन् 1730 की सच्ची कहानी है। बाल साहित्यकार गोविंद शर्मा ने अपने बालकथा संग्रह पेड़ और बादल में पर्यावरण संबंधित 10 बालकथाएं लिखी है, सभी बाल कथाएं पर्यावरण संरक्षण के लिए प्रेरित बाल कहानियां है, संग्रह की अंतिम कहानी 'अमृता देवी ने बचाए पेड़' में लेखक ने विश्व के पहले चिपको आन्दोलन के इतिहास का वर्णन किया है यह राजस्थान के मारवाड़ क्षेत्र की जीवंत और प्रेरणादायक कथा है। इसमें पर्यावरण प्रेमी बिश्नोई समाज की एक साहसी महिला अमृता देवी सहित 363 स्त्री-पुरुष लगभग 300 वर्ष पहले अपने प्राणों की आहुति देकर पेड़ों की रक्षा कर पर्यावरण संरक्षण का एक नया इतिहास रचा था। बिश्नोई समाज के लोग गुरु जांभोजी (जंभेश्वर) के अनुयानी है, जो यह मानते हैं कि 'सिर सांठे रूंख रहे तो भी सस्तो जांण' यानी एक सिर के बदले यदि एक पेड़ बचता है तो भी यह सस्ता है। इस समय तो देश के कोने-कोने में पेड़ बचाने के लिए अभियान चल रहे हैं। यदि समाज इसकी समय रहते चिंता करता तो ग्लोबल वार्मिंग का संकट ना होता। ऋतुचक्र के बदलते-बिगड़ते मिजाज़ के कारण नित नई जानलेवा बीमारियों से दो चार न होना पड़ता। स्वच्छ जल की 70 फ़ीसदी आपूर्ति हमें ग्लेशियर्स से होती है और ग्लोबल वार्मिंग के कारण ग्लेशियर के पिघलने से भविष्य में दुनिया में जल संकट उत्पान होने की वैज्ञानिक चेतावनी दे चुके हैं। अगर हम प्रकृति के प्रति जरा भी संवेदनशील होते तो रियो जैसे अंतरराष्ट्रीय पर्यावरण सम्मेलनों की आवश्यकता ही नहीं होती। दुखद स्थिति तो यह है कि आज भी हम तात्कालिक लाभ के लिए हमारी अपनी अगली पीढ़ियों के जीवन को दांव पर लगाने से नहीं चूक रहे। भयावह पर्यावरण संकट के प्रति उदासीनता मनुष्य और जीव-मात्र विरोधी है। गोविंद शर्मा की ये कहानियां सिर्फ कहानियां नहीं बल्कि चेतावनी भरे स्वर हैं जो बच्चों के माध्यम से नई आशा का संचार करती है।
पर्यावरण संरक्षण पर विशेष अमृता देवी बिश्नोई की सच्ची कहानी : Vishwa Paryavaran Diwas
अमृता देवी ने बचाएं वृक्ष
यह सच्ची कहानी सन् 1730 की है।
आज का राजस्थान तब कई रियासतों में बँटा था। इनमें एक रियासत थी जोधपुर और जोधपुर के राजा थे- अभयसिंह।
जोधपुर रियासत में तब कई समुदाय रहते थे। इनमें एक था विश्नोई समाज । समाज के लोग बहादुर और शांत स्वभाव के थे। ये लोग अपनी परम्पराओं और रीति-रिवाजों का मन से पालन करते थे। मेहनती थे। खेती और पशुपालन उनका मुख्य धंधा था। घर और खेत संभालने में उनकी महिलाएँ भी पुरुषों के बराबर काम करती थीं।
आजकल सारी दुनिया में पर्यावरण को बचाने के लिए विभिन्न उपाय किये जा रहे हैं। इसके लिए ज्यादा से ज्यादा वृक्ष लगाये जा रहे हैं। वन्य जीवों और पक्षियों को बचाया जा रहा है। इसके लिए कानून बनाया गया है। प्रारंभ से विश्नोई समाज का यह प्रमुख सिद्धान्त था कि हरा वृक्ष न काटा जाए, किसी पशु-पक्षी का शिकार न किया जाए। उस क्षेत्र के प्रमुख वन्य पशु हिरण और पक्षी तीतर को वे न तो मारते थे और न किसी अन्य को मारने देते थे। इन्हें बचाने के लिए कुछ भी करने के लिए तैयार रहते थे। इसी समाज की एक महिला थी अमृता देवी। अपना घर, अपना परिवार और अपने खेत संभालना ही उसकी दुनिया थी। पर वह एक बहादुर महिला थी। उसने अपनी बहादुरी दिखाने के लिए किसी पर हमला नहीं किया। उसने अपनी ताकत के बल पर किसी का राज्य नहीं छीना। न ही उसने किसी को गुलाम बनाया। उसने जिस लड़ाई में वीरता दिखाई, वह पर्यावरण की रक्षा के लिए थी।
अमृतादेवी के गाँव का नाम था- खेजड़लीकलां । गाँव के आसपास खेजड़ी नामक पेड़ बड़ी संख्या में थे। कम पानी से रेगिस्तान में उगने वाला यह पेड़ बहुत उपयोगी है। इससे जलावन, पशुओं को चारा और मनुष्यों के लिए 'फली' तो मिलती ही है, खेत के बीच में उगा हो तो भी इस वृक्ष से खेती को नुकसान नहीं पहुँचता है।
सन् 1730 में राजा अभयसिंह का नया दुर्ग बन रहा था। चूना पकाने के लिये जलावन की भारी मात्रा में जरूरत थी। राजा के आदमियों ने तय किया कि यहाँ-वहाँ जाने की बजाय खेजड़लीकलां गाँव के आसपास के सारे वृक्ष काट लिये जाएँ। वहाँ खेजड़ी वृक्ष ही ज्यादा संख्या में थे। गाँव के निवासियों ने इसका विरोध किया। राजा के आदमियों ने उस गाँव के लोगों के विरोध की परवाह नहीं की। पेड़ काटने की तैयारी शुरू कर दी गई। जनता में दिन-ब-दिन विरोध बढ़ता गया।
कई गाँवों के लोगों ने पंचायत करके भी इसका विरोध किया। राजा के यहाँ दो गुट बन गये। कुछ लोगों ने राजा को यह सलाह भी दी कि खेजड़ी वृक्ष को काटना उचित नहीं है। पर इस काम के जिम्मेदार राजा के आदमी नहीं माने। हथियार और कुल्हाड़े लेकर राजा के आदमी पेड़ काटने के लिए पहुँच गए।
इन हथियारबंद लोगों से पेड़ों को कैसे बचाया जाए? राजा की फौज से युद्ध करना आसान नहीं था। पर पेड़ कटने देना भी लोगों को मंजूर नहीं था। आजकल देश में पेड़ों को बचाने के लिए उत्तर भारत में 'चिपको आंदोलन' तो दक्षिण भारत में 'अप्पिको आंदोलन' चलता है। जब कोई पेड़ काटने आता है तो लोग पेड़ से चिपक जाते हैं। उस दिन भी यही हुआ। लोगों ने राजा के आदमियों को खेजड़ी वृक्षों को काटने से मना किया। राजा के आदमी नहीं माने। वे लोगों के विरोध की परवाह न करके कुल्हाड़ा लेकर आगे बढ़े। सबसे पहले अमृतादेवी एक पेड़ से चिपक गई। देखते ही देखते सैकड़ों लोग एक-एक पेड़ से चिपक गये। राजा के आदमियों ने इसे राजा का अपमान समझा। वे पेड़ काटने के लिए कुछ भी करने के लिए तैयार हो गये। सबसे पहले अमृतादेवी ने पेड़ बचाने के लिए अपनी जान दे दी। उसकी वीरता, निडरता ने दूसरे लोगों को भी पेड़ से चिपके रहने की प्रेरणा दी। वृक्ष बचाने के लिए कितने ही लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी। इस तरह अब से 290 वर्ष पूर्व अमृतादेवी ने वृक्ष बचाने के लिए चिपको आंदोलन की शुरुआत कर दी।
पर अमृतादेवी और उसके लोगों का यह बलिदान बेकार नहीं गया। राजा को सद्बुद्धि आ गई। राजा ने यह आदेश निकाल दिया कि अब कभी खेजड़ी वृक्ष को नहीं काटा जायेगा। अमृतादेवी के इस त्याग के बाद यह वृक्ष बचाने के लिए लोगों को न तो राज का विरोध करना पड़ा और न जान गँवानी पड़ी। आज तो 'खेजड़ी' राजस्थान का राज्य वृक्ष है।
- गोविंद शर्मा
ये भी पढ़ें; विश्व प्रकृति संरक्षण दिवस पर विशेष पर्यावरण की देखभाल के बारे में बाल कहानी : बच गये कुआँ और पेड़