समकालीन तेलुगु नाटकों में नारी जीवन

Dr. Mulla Adam Ali
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Women's Life in Contemporary Telugu Dramas

Women's Life in Contemporary Telugu Dramas

समकालीन तेलुगु नाटकों में नारी जीवन

तेलुगु साहित्य में नारी-जीवन का व्यापक चित्रण पाया जाता है। नागरीक जीवन की भागम भाग में उलझते दाँपत्य संबंधों के बीच शिक्षित मध्यवर्गीय नारी के एकाकीपन को नाटककारों ने सटीक अभिव्यक्ति प्रदान की है। नारी-चेतना प्रधान नाटकों में साधारणतया नारी पर किए जानेवाले अत्याचारों का खंडन किया जाता है। नारी चेतना-प्रधान रचनाओं में नारी-जीवन के विविध-पक्षों का अंकन होता रहा।

बी.एस. कामेश्वर राव, अत्तिलि कृष्णाराव, मार्ग शीर्ष-आकेल्ल, मुनिसुंदरम मारेल्ला, इसुकपल्लि मोहनराव, नाग भूषण, के.एस.टी. साई, बत्तुला रामकृष्ण, जे.एस. राजेश्वर - ए. भास्कर चंद्र आदि नाटककारों ने अपनी कृतिमों में आधुनिक संस्कृति का जो सशक्त प्रभाव नारी जीवन पर पड़ा उसका विवेचन किया है। नारी जीवन को आधुनिक संस्कृति ने अनेक दृष्टियों से प्रभावित और रुपायित किया है। आम तौर पर व्यक्ति का रहन-सहन, आचार विचार स्वीकृत सामाजिक मूल्य धार्मिक और आध्यात्मिक आस्था और विश्वास आदि को संस्कृति में प्रमुख रहा है। आकेल्ल कृत अम्मा नाटक में अर्थ संस्कृति से परिचालित आधुनिक जीवन में मानवीय मूल्यों के विघटन पर चिंता प्रकट की गई है। पति की मृत्यु के बाद अपनी संतान के निरादर की शिकार बनी माँ की क्लेशपूर्ण गाथा का चित्रण किया गया है।

जीवन से जुडे प्रत्येक संस्कार और अनुष्ठान में नारी केन्द्र बिन्दू रही है। अम्मा जब विधवा हो जाती है तो उसका परिवार में कोई मूल्य नहीं है। विधवा माँ का परिवार में कोई सम्मानजनक स्थान नहीं है।

मोरल्लकृत एडवकंडडवकंडि नाटक में फुटपाथ पर खिलौने बेचनेवाली नारी की पुरुष की कामवासना की शिकार होने की घटना का वर्णन है। आर्थिक परिस्थिति ठीक न होने के कारण वह फुटपाथ पर खिलौने बेच कर अपने परिवार का निर्वाह करती है। एक पीड़ित असहाय नारी की दर्द भरी व्यथा हमारे सामने रखी है। नारी को मानसिक संवेदना, घुटन और वेदना को लेखक ने गहन अनुभूति हो कलात्मक अभिव्यंजना प्रदान की। नारी के संघर्षपूर्ण मन व विभिन्न परिस्थितियों का चित्रण नाटककार ने अपनी लेखनी के माध्यम से अभिव्यक्त किया है। तेलुगु नाटककारों ने मौन शोषण और नारी स्वतंत्रता का प्रभावशाली चित्रण किया है। अपने पति को भगवान मानकर उसकी ढेर सारी दुर्बलताओं को सहने की विचार-प्रथा से मुक्ति पाकर आज की नारी समान अधिकारों को माँग करने लगी है। अपने को सशक्त बनाने के प्रयत्न में वह निमग्न रही है।

तेलुगु नाटककारों ने नारी की मानसिकता उसकी आकांक्षाओं और अधिकारों का चित्रण कर युगीन स्थितियों के प्रति स्वतंत्र रुप से विचार करनेवाली शक्ति की प्रतीक के रुप में नारी का अंकन करने लगे। एम. नागभूषणम कृत कालज्ञानम् में इस गंभीर समस्या की ओर पाठकों का ध्यान आकृष्ट करते हुए यह बताना चाहते हैं कि इस सृष्टि में पुरुष के समान नारी को भी समाज में जीने का अधिकार है। शमीवहनी में मारेल्ला और सुंकर कोटेश्वर राव नाटककार द्वय ने मध्यवर्गीय समाज में स्त्री-पुरुष संबंधों का चित्रण करते हुए पहली बार वीर नारी को सामाजिक कुप्रथाओं के विरुद्ध विद्रोहिणी के रुप में चित्रित किया है।

इस कहानी की नायिका का चरित्र एक क्रांतिकारी विद्रोही नवयुवती की तरह लगता है। शादी के कुछ ही महीनों के बाद ससुरालवालों की दहेज की लालसाएँ देखकर वह ससुराल का घर छोड़ देती है। भारत में ऐसी छोड़ी हुई नारियों को किस नजर से देखा जाता है उसका चित्रण नाटक की नायिका के माध्यम से होता है। उसने बहुत सोच समझकर अपने ससुराल का घर छोड़ने का निश्चय किया है। भविष्य में जो भी परिणाम होंगे उसकी जिम्मेदारी को वह स्वीकारती है। इसलिए वह विद्रोहिणी बन जाती है।

आधुनिक नाटककारों के निश्चय ही नारी जीवन की समस्याओं को कथावस्तु बनाकर महत्वपूर्ण रचनाएँ की। परिवेशगत दबाव में नारी-जीवन की विडम्बनाओं की पड़ताल में साहित्यकारों की रुचि बढ़ गई।

स्वतंत्रता के बाद नारी दुविधा की स्थिति में जकड़ी हुई दिखाई देती है। परंपरा और आधुनिकता इन दोनों का समन्वय कर पाना उसके लिए मुश्किल हो रहा है। वह परिपूर्ण रुप से ने परम्परा को अपना सकती है। इन दोनों में से किसी एक को पूर्ण रुप से अपना लेने का निर्णय लेने में असमर्थ रही क्यों कि एक ओर पुराने संस्कारों से वह लम्बे समय से भयभीत रही तो दूसरी ओर वह स्वयं को स्वावलंबी बनाने तथा पुराने संस्कारों के प्रति विद्रोह का घोष करती हुई अपनी पहचान बनाने की दिशाएँ खोजने लगी। समाज ने नारी पर अनेक जिम्मेदारी सौंपी। नीति, मर्यादा, जीवनमूल्य और संस्कृति आदि को रक्षा का भार नारी पर सौंपे गए। नारी महान होते हुए भी पुरुषों की तुलना में उसे छोटा अथवा कम समझा जाता है। वह युगों युगों से दूसरों पर आश्रित रही। बरसों से पुरुष प्रधान समाज उसपर अनेक प्रकार के अत्याचार करता आ रहा है। वर्तमान युग में बदले हुए नारी के विद्रोही और स्वावलंबी रुप को देखने और सहने के लिए पुरुष समाज भला कैसे सहमति देगा ? किन्तु नारी ने अपने आत्मस्वरुप को पहचाना। उसमें आत्मविश्वास जागृत हुआ। समाज को एक नया आयाम प्रदान करने के लिये नारी ने अपने कदम बढाए। नारी में सृजनशीलता भी विद्यमान है। यही कारण है कि आज नारी विभिन्न क्षेत्रों में पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर कार्य करती हुयी दृष्टिगत होती है। आधुनिकता को अपनाकर चलनेवाली नारी सही अर्थ में आधुनिकता का अर्थ जानती है क्या ? वर्तमान युग में आधुनिकता के नाम पर नारी अपने ढंग से जीवन जीना चाहती है।

अत्तिली कृष्णाराव ने जोगिनी व्यवस्था के रुप में प्रचलित दुराचारों के मानवतावादी दृष्टि से दूध पिलाकर उसे जान देती है। ऐसी स्थिति में सीतालु के सौन्दर्य को निकट से देखकर ज़मींदार उसका हाथ पकड़ लेता है तो आदेय्या और उसका बेटा विरोध नहीं करता किन्तु सीतालु विद्रोहिणी हो जाती है वह कहती है.....रे जमींदार विषैले साँप ही नहीं मधुमखियाँ भी दुश्मनी रख सकती हैं कहकर विषैले साँप से डसाती है और हसियाँ से मारकर जमींदार की हत्या कर देती है। नाटककार ने सीतालु में नारी का विद्रोही स्वरुप दर्शाया है। ये नारियाँ परम्पराओं की श्रृंखला से हटकर जीवन जीने का हौसला रखती है। जब-जब अन्याय अत्याचार कष्ट दिया है तब तब उसके प्रति आज की नारी विद्रोही बनकर प्रतिशोध की भावना से युक्त हो जाती है। परिवेशगत दबाव में शोषण का अंत करने में नारी-चरित्र के सबल पक्ष का अंकन किया है।

जयप्रकाश कृत गारडी नाटक में नारी पर किए गये अत्याचारों का खंडन करते हुए उसके व्यक्तित्व को सुदृढ़ बनाने और उसके समग्र विकास हेतु अपेक्षित योजनाएँ बनाने पर जोर दिया गया है। लिंग भेद के आधार पर वर्ग विभाजन कर कई पीढ़ियों से नारी-वर्ग का दमन एवं शोषण किया जाने के कारण समाज का संतुलित विकास नहीं हो पाया है। पुरुषाधिक्य समाज की शोषण वृत्ति का खंडन करते हुए आधुनिक नारी समान अधिकारों की मांग को लेकर कई रुपों में अपनी विद्रोह-चेतना को व्यक्त करने लगी।

समकालीन तेलुगु नाटककारों ने अपने नाटकों में स्वाभिमानी-साहसी नारी के चरित्र का चित्रण किया है। इन चरित्रों के द्वारा शास्त्रीजी यह दर्शाना चाहते हैं कि पुरुष समाज ने नारी को दुर्बल भीरु और उचित निर्णय लेने में असमर्थ माना है किन्तु परिस्थितियों के बदलने पर नारीत्व की गरिमा को ऊँचा उठाने के लिए वह अपने आपको समर्थ और शक्तिशाली बनाकर परिस्थितियों को अपना दास बना लिया करती है।

तिरस्कृति नाटक में राचकोंडा विश्वनाथ शास्त्री ने इस तथ्य को सामने रखा कि विडंबनाओं और विपरीत स्थितियों का सामना करने के बावजूद नारी को अपने आत्मविश्वास का खंडन करते हुए जोगुजातर नाटक की रचना की है। इसके वस्तुगत वैशिष्टय का असर पड़ने के कारण सरकार द्वारा इस प्रथा के निर्मूलन की दिशा में आदेश देना इस नाटक की लोकप्रियता का प्रमाण है। श्री के.के.एल. स्वामी ने तेनेटीगलु पगबडताय नाटक में ग्रामीण परिवेश में निम्न वर्गीय नारी-समाज की दुस्थिति का अंकन करते हुए जमींदार-प्रथा के विरुद्ध ग्रामीण- समाज में जागृत क्रांतिचेतना का समर्थन किया है। आदेय्या जो एक सपेरा है वह अपनी पत्नी बेटा और बहू के साथ एक पहाडी इलाके में अपना जीवन बिताते हैं। आदेय्या की पत्नी वहाँ के जमींदार के अत्याचार की शिकार बनकर खुदकुशी कर लेती है। इतना होने पर भी जब भी जमींदार नाराज होता है, तो आदेय्या उसके चरणों को पकड़ कर माफी माँगना ही जानता है न कि विरोध करना। किन्तु आदेय्या की बहू सीतालु के मन में जमींदार के प्रति प्रतिशोध की आग सुलगती रहती है। जब एक दिन विषैले साँप के डंक मारने से जमींदार की जान आफत में पड़ जाती है तो आदेय्या अपनी मंत्र शक्ति से उसे बचाता है और सीतालु को न खोकर पुरुषों की दमननीति का विरोध करना चाहिए तभी उसकी मुक्ति संभव होगी।

श्री वेलूरि सिवराम शास्त्री ने सुलतान नाटक में वर्तमान समाज में अशिक्षित एवं भावग्रस्त नारी की दुःस्थिति का यथार्थ चित्रण किया है। शास्त्री जी ने नारी के शिक्षित रुप का वर्णन सशक्त रुप में किया है। स्वतंत्रता पूर्व की नारी शिक्षा के बारे में जागृत नहीं थी। स्वातन्त्रयोत्तर काल का नारी शिक्षा के नारे में जागृत और सतर्क है। नारी को देह-बोध से मुक्त एक स्वतंत्र व्यक्ति के रुप में परखने पर बल दिया जाता है।

समकालीन तेलुगु नाटककारों ने नारी की विभिन्न समस्याओं को चित्रित करने का प्रयत्न किया है। परिवेशगत दबाव में नारी जीवन की विडम्बनाओं की पड़ताल में उनकी रुचि बढ़ गई। बड़ी ईमानदारी से नारी- समाज को समस्याओं को देखने की चेष्टा हुई। वैचारिक संकीर्णता को त्यागकर नारी के पारिवारिक व सामाजिक जीवन से जुड़ी हुई आधुनिक मान्यताओं को आत्मसात कर नवीन दृष्टि संपन्न रचनाकार नारी की सबलता, आत्मनिर्भरता, चारित्रिक दृढ़ता, दबाव से मुक्त होकर स्वतंत्र रुप से जीवन बिताने की क्षमता आदि अंशों को लेकर जागृत नारी-चेतना के समर्थन में कृतियों का प्रणयन करने लगे। वे अपनी रचनाओं में स्त्री को मानव रुप में स्वीकार करने में हिचकिचाने वाली विषाक्त संस्कृति के विरुद्ध विद्रोह प्रकट कर नारी-व्यक्तित्व को विकास के अवसर प्रदान करनेवाले तत्वों की पुष्टि करने तथा मानवीय धरातल पर नारी समाज की समस्याओं के समाधान प्रस्तुत करने के भरसक प्रयत्न करने लगे। एक ऐसे परिवेश की सृष्टि वे करना चाहते हैं जहाँ नारी रुढ़िगत सामाजिक प्रतिबंधों रुग्ण मान्यताओं के कारण सीमित दायरे में ही अपना जीवन बिताने को बाध्य होने की स्थिति से मुक्त होकर नारी सशक्त बन सके।

- एम. रघुनाथ

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