डॉ. अम्बेडकर महज दलित नेता नहीं थे

Dr. Mulla Adam Ali
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Bhimrao Ramji Ambedkar : Dr. B. R. Ambedkar - Ambedkar was not just a Dalit leader

अम्बेडकर महज दलित नेता नहीं थे

डॉ. अम्बेडकर महज दलित नेता नहीं थे

यहाँ कुछ अरसे से डॉ. भीमराव अम्बेडकर को दिनोंदिन छोटा बनाने की साजिश चल रही है। जितनी संख्या में उनकी प्रतिमाएँ लगाई जा रही हैं, उतने ही उनके विचारों, संदेशों का मर्म भूलने का चलन भी बढ़ रहा है। यही नहीं, चर्च-पोषित और दूसरे संदिग्ध किस्म के कुछ लोग डॉ. अम्बेडकर के नाम का दुरुपयोग मनगढ़ंत बातें फैलाने में करते रहे हैं। इस गंभीर प्रवृत्ति के प्रति दलितों और गैर-दलितों, दोनों को सचेत होना चाहिए अन्यथा देश की हानि हो रही है। हैदराबाद के प्रसंग ने इसे बड़े तीखेपन से प्रदर्शित किया है।

सबसे पहली बात डॉ. अम्बेडकर केवल दलित नेता नहीं थे। यह ठीक है कि उनके जीवन की प्रमुख चिन्ता और संघर्ष अछूत कहे जाने वाले लोगों को मान-सम्मान दिलाना रहा था। मगर उनके कार्य यहीं तक सीमित नहीं थे। उनके विचार-फलक में केवल अछूतों की अवस्था और उनके लिए उपाय मात्र नहीं थे। वे स्वतंत्र भारत के संविधान निर्माताओं में भी सर्वप्रमुख थे। सबसे बढ़कर डॉ. अम्बेडकर एक गंभीर राजनीतिक चिंतक भी थे, ऐतिहासिक गतिविधियों पर भी निरन्तर नज़र रखा था और उससे न केवल अनुसूचित जातियों, बल्कि सम्पूर्ण भारत के लिए सबक निकाले थे। कम्यूनिज्म, इस्लाम एवं ईसाइयत पर डॉ. अम्बेडकर के मूल्यांकन आज भी खरे हैं। ध्यान दें, ये तीनों मतवाद तब हिन्दू-धर्म-संस्कृति-समाज के सबके प्रबल विरोधी थे। इसके बावजूद इन गंभीर सभ्यतागत चुनौतियों पर तब सबसे बड़े भारतीय नेताओं ने भी न के बराबर ध्यान दिया था। केवल इसी एक तथ्य से समझा जा सकता है कि डॉ. अम्बेडकर कितने गंभीर राजनीतिक चिंतक थे। मानव इतिहास में महापुरुषों की भूमिका जैसी सारगर्भित प्रस्तुति डॉ. अम्बेडकर ने की है, वह अत्यन्त मूल्यवान है। इसी प्रकार लोकतांत्रिक राजनीति में नागरिक स्वतंत्रता और समानता की अवधारणा, उसे व्यवहारित कायम करने तथा देश व राज्य की रक्षा के लिए उनकी सीमाएँ निर्धारित करने संबंधी अम्बेडकर के विचार स्थायी महत्व के हैं। एक महत्वपूर्ण व्याख्यान में जस्टिस रानाडे के महान योगदान पर विचार करते हुए डॉ. अम्बेडकर ने राजनीतिक क्रियाकलाप के लिए दो शिक्षाओं को रेखांकित किया था (1) किन्हीं काल्पनिक विचारों को अपना आदर्श नहीं बनाना चाहिए। आदर्श ऐसे होने चाहिए जिन्हें व्यवहार में प्राप्त करना विश्वसनीय जान पड़े। (2) राजनीति में बौद्धिकता और कोरे सिद्धांत की तुलना में लोगों की भावना और उनके विशिष्ट स्वभाव का अधिक महत्व होता है।

डॉ. अम्बेडकर के अनुसार लोकतांत्रिक राजनीति मूलतः लोकतांत्रिक समाज पर निर्भर है। देश की शक्ति और प्रगति उसके सामाजिक जीवन उच्च स्तरीय नैतिकता, ईमानदार आर्थिक क्रियाकलाप, जन मनोबल, साहस और दैनंदिन आदतों पर आधारित होती है। इसीलिए वे राजनीतिक सुधारों से अधिक सामाजिक सुधार और सामाजिक पुनर्निर्माण पर बल देते थे। इसीलिए उन्होंने भारत सबसे निचले पायदान के लोगों को सामाजिक, शैक्षिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से सशक्त करने पर अपना ध्यान केन्द्रित किया था। ऐसा करते हुए वे न कभी दिखावे की कार्रवाइयों में पड़े, न मनमानी मांगे और घोषणाएँ करने में। किन्तु डॉ. अम्बेडकर ने सम्पूर्ण भारत के हित, विश्व में उसके उत्थान को कभी नहीं छोड़ा। विदेशी विचारों, संगठनों और विभाजनकारी प्रेरणाओं से सदा दूरी रखी। उन्होंने कहा भी कि "मैं भारत से प्रेम करता हूँ (इसलिए झूठे नेताओं से घृणा करता हूँ।)" देश-विदेश में ऐसी शक्तियाँ थीं जो डॉ. अम्बेडकर को फूट-परस्ती की ओर बढ़ाना चाहती थी, किन्तु हिन्दू समाज की कुरीतियों, उसके प्रति कटुता के बावजूद डॉ. अम्बेडकर वैश्विक संदर्भ में सम्पूर्ण भारत की अस्मिता, एकता के प्रति निष्ठावान बने रहे। विदेशियों द्वारा भारतीय समाज की धूर्ततापूर्ण, स्वार्थपरक आलोचना करने पर डॉ. अम्बेडकर इसका बचाव करते थे। जब कैथरीन मेयो ने अपनी पुस्तक में कहा कि हिन्दू धर्म में सामाजिक विषमता है, जबकि इस्लाम में भाईचारा है, अम्बेडकर ने इसका खण्डन करते हुए कहा कि इस्लाम गुलामी और जातिवाद से मुक्त नहीं है। भारत के मुसलमानों का सामाजिक विश्लेषण करते हुए उन्होंने यह सविस्तार प्रमाणित किया। उनकी प्रसिद्ध पुस्तक 'भारत विभाजन या पाकिस्तान।' (1940) का दसवाँ अध्याय इसी पर केन्द्रित है। उसमें तथ्यों और आँकड़ों के साथ हिन्दू और मुस्लिम स्त्रियों की स्थिति का विशद, प्रामाणिक विश्लेषण है। डॉ. अम्बेडकर ने स्पष्ट कहा "हिन्दुओं में सामाजिक बुराइयाँ हैं किन्तु एक अच्छी बात है कि उनमें उसे समझने वाले और उसे दूर करने में सक्रिय लोग भी हैं जबकि मुस्लिम यह मानते ही नहीं कि उनमें बुराइयाँ हैं और इसलिए उसे दूर करने के उपाय भी नहीं करते।" वस्तुतः कई विषयों में डॉ. अम्बेडकर की मीमांसा गाँधी से अच्छी है। मात्र उक्त पुस्तक के अध्ययन से ही यह बात पुष्ट हो जाएगी, जिसे उसके तथ्यों और निष्पक्ष, बेबाक विश्लेषण के लिए अपने समय में बहुत ख्याति मिली थी।

बाबा साहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर भारतीय समाज में समानता स्थापित करने के पक्षधर थे। वे चाहते थे कि आर्थिक सत्ता का भी विकेन्द्रीयकरण हो। उनके अनुसार जब तक उत्पादन के साधनों का विकेन्द्रीकरण नहीं हो जाता तब तक समाज के कुछ ही लोगों के हाथ में आर्थिक संसाधन केन्द्रित होकर रह जाएँगे। वे भूमि, भवन, पूँजी के बंटवारे तथा अवसर की समानता के पक्षधर थे। उनका कहना था कि भारत में भूमि स्वामित्व प्रतिष्ठा की बात है। इसलिये अनुसूचित वर्ग को भूमि देने की वकालत उन्होंने की थी।

बाबा साहेब ने 18 जुलाई 1942 को कहा था "हमारी लड़ाई सत्ता और सम्पत्ति की नहीं है, अपितु सामाजिक आज़ादी के लिए है।" अनुसूचित वर्ग की सबसे बड़ी अयोग्यता उसकी गरीबी, परावलम्बन एवं सम्पत्ति के अधिकार से वंचित होना है जो मानव निर्मित सामन्तवाद की देन है।

बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर ने दया और भीख तथा दान-अनुदान पर आधारित जीवन का विरोध करते हुए श्रम और स्वाभिमान को प्राथमिकता दी है। वे देश के आर्थिक ढाँचे में महिलाओं की भागीदारी को महत्वपूर्ण मानते थे और उनके अस्तित्व और विकास के हिमायती थे।

उनका वैचारिक दर्शन अलगाववाद का नहीं, समता का समर्थक है और हर प्रकार की गुलामी व अन्याय को नापसंद करता है। उनका दर्शन मानव स्वतंत्रता और सामाजिक न्याय का पक्षधर है। वह जाति और वर्ण व्यवस्था का घोर विरोधी है और ऐसे आमूल चूल सामाजिक परिवर्तन चाहता है जहाँ सामाजिक समता हो और किसी भी प्रकार का वर्ण, वर्ग तथा जातिभेद नहीं हो।

डॉ. अम्बेडकर का सामाजिक और आर्थिक गैर बराबरी को मिटाने का सामाजिक न्याय का दर्शन सदियों पुरानी आर्थिक और सामाजिक गुलामी को नेस्तनाबूत करने का ऐसा हथियार है जिसमें दलित वंचित वर्ग अपनी मुक्ति देखता है। वे चाहते थे कि हमारा लोकतंत्र केवल राजनीतिक लोकतंत्र नहीं होकर सामाजिक लोकतंत्र हो जाए। सामाजिक लोकतंत्र जीवन का एक ऐसा रास्ता है जिसमें आज़ादी, समता और एकता का सिद्धांत जीवन का अंग बन जाए। यह आज़ादी, समता और एकता का समग्र भाव ही लोकतंत्र की कसौटी है। इन तीनों सिद्धांतों में से किसी एक को त्याग देने से लोकतंत्र का अर्थ ही नहीं हो जायेगा। आज़ादी को समता और एकता से अलग नहीं किया जा सकता। समता आज़ादी के बिना व्यक्ति की पहल को समाप्त करेगी और एकता के बिना समता और आज़ादी का भाव नष्ट हो जाएगा।

यहाँ एकता का अर्थ-सामान्य भाईचारा है। यदि पूरा भारत एक है। इससे हमें सामाजिक जीवन में एकता के दर्शन होते हैं। इसे प्राप्त करना कठिन है लेकिन असंभव नहीं। जातियाँ राष्ट्र विरोधी है क्योंकि वे सामाजिक ढाँचे में बिखराव पैदा करती है। वे जातियों में घृणा और द्वेष की भावना पैदा करती है, परन्तु यदि हम वास्तव में एक राष्ट्र बनाना चाहते हैं तो इन कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करनी ही होगी। भाईचारा तभी संभव है जब हम एक राष्ट्र को। बिना भाईचारा के समता और स्वतंत्रता की जड़ें गहरी नहीं होगी।

अब्राहम लिंकन के शब्दों में-"विभाजित समाज लम्बे समय तक टिका नहीं रह सकता। इसलिए शीघ्रातिशीघ्र उन वर्गों की भावनाओं के आगे झुककर बहुसंख्यक की बेहतरी, देश की बेहतरी, अपनी आज़ादी की रक्षा व इसके लोकतांत्रिक ढाँचे की रक्षा के लिए आगे आना होगा। यह भाईचारा, समता सभी क्षेत्रों में कायम करने से होगा।"

वर्तमान परिदृश्य में दलितों-वंचितों, पिछड़ों पर होने वाले अत्याचार बताते है कि देश के आज़ाद होने के बावजूद वे आज़ाद नहीं है। जब तक सांस्कृतिक वर्चस्व की द्विज मानसिकता और भू- स्वामी जातियों द्वारा प्रायोजित जातिवाद रहेगा तब तक देश में सामाजिक न्याय के संवैधानिक प्रावधानों की पूर्णता संदिग्ध बनी रहेगी।

बाबा साहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर के विचार आज भी प्रासंगिक है और तब तक रहेंगे जब तक सामाजिक लोकतंत्र की स्थापना नहीं हो जाती। अतः समाज को आधुनिक व लोकतांत्रिक बनाने के लिए हमें महानतम् बौद्धिसत्व डॉ. बाबा साहेब के दिखाए मार्ग का अनुसरण करना चाहिए और इसके लिए सत्ताओं को अपना उत्तरदायित्व निभाना चाहिए।

डॉ. अम्बेडकर के उन विचारों का महत्व इस बात में भी है वे अध्ययन, अवलोकन और व्यवहारिक अनुभवों पर आधारित थे। वहाँ कोई विचारधारा का बंधन नहीं था। इसलिए वह अपने समकालीन उन नेताओं को कठोर आलोचना भी करते थे, जिनके क्रियाकलाप और विचार उन्हें सुसंगत, सत्यनिष्ठ नहीं प्रतीत होते थे। उनके शब्दों में, "मैं अन्याय, अत्याचार, अहंकार और खोखली बातों से घृणा करता हूँ और मुझे उन सबसे घृणा है जो इसके अपराधी है।"

इस संदर्भ में हमारे लिए डॉ. अम्बेडकर के विचारों का स्थायी महत्व है। उन्होंने स्वीकार किया था, "संभव है, मैं भूल कर रहा होऊँ, परन्तु मैंने सदैव अनुभव किया है कि दूसरों से दिशा-निर्देश लेने या चुपचाप बैठे रहकर स्थिति को बिगड़ते रहने देने की तुलना में स्वयं कोई उपाय करते हुए भूल करना अच्छा है।" यह कह उन्होंने जिन कठिन स्थितियों में किया था, उन्हें जाने बिना अम्बेडकर के ऐतिहासिक योगदान समझना कठिन है।

दुर्भाग्य है कि हमारा बुद्धिजीवी वर्ग डॉ. अम्बेडकर को मात्र दलित नेता मानकर चर्चा करता है जबकि महत्वपूर्ण राजनीतिक चिंतक के साथ-साथ पूरे भारत के राष्ट्रवादी नेता थे। उन्हें गहरी वेदना होती थी कि देश में सच्चे राजपुरुषों का सर्वथा अभाव है जो चापलूस और अनुयायी में अन्तर कर सकते हों, और अन्य नेताओं के साथ बैठकर समानता के भाव के साथ विमर्श कर सकते हों। आज क्या स्थिति है? दलित नेताओं में अनेक डॉ. अम्बेडकर की विरासत से परिचित भी नहीं, उस पर चलना तो दूर की बात। जो बुद्धिजीवी 'दलित' की रट लगाते हैं, उन्हें कभी डॉ. अम्बेडकर की उधृत करते नहीं सुना जाता। यह अकारण नहीं। आज अधिकांश दलित बुद्धिजीवी ईसाई मिशनरी संगठनों के हाथों में खेल रहे हैं। वे यही बातें और नारे दोहराते हैं जो मिशनरी तंत्र में उन्हें थमाता है जबकि उन्हें अच्छी तरह पता है कि मिशनरी संगठन दलितों के हित में नहीं, बल्कि येन-केन- प्रकारेण उनका कन्वर्जन करा कर ईसाई बनाने की चिन्ता में लगे हुए हैं। उस काल में मिशनरी संगठनों ने डॉ. अम्बेडकर को भी अपने जाल में फांसने का प्रयास किया था किन्तु हिन्दू समाज के अपने कटुतम अनुभवों के बावजूद अम्बेडकर ने सत्यनिष्ठा तथा अपने लोगों की वास्तविक हित-चिन्ता नहीं छोड़ी। वे वैश्विक संदर्भ में सम्पूर्ण भारत की अस्मिता, एकता के प्रति निष्ठावान बने रहे।

आज भारत में 'दलित' प्रश्न पर विभिन्न प्रकार के विदेशी, ईसाई मिशनरी संगठन कब्जा करने का प्रयास कर रहे हैं। वे सम्पूर्ण दलित जनसंख्या को हिन्दू-विरोधी और राष्ट्रविरोध की ओर बढ़ाने का यत्न कर रहे हैं। इसमें तर्क, तथ्य या सद्भाव नहीं बल्कि धन कूटनीति व दुराचार का प्रयोग हो रहा है जबकि अम्बेडकर ने स्पष्ट कहा था कि भारत को बाहरी विचारधाराओं, मजहबों की आवश्यकता नहीं है। नागपुर में 15 फरवरी 1956 की अपने प्रसिद्ध भाषण में डॉ. अम्बेडकर ने विस्तार से बताया था कि वह बौद्ध क्यों बने। ईसाईयत और इस्लाम के मूल विश्वासों का उल्लेख कर उन्होंने कहा था कि वे भेड़ चाल वाले हैं, जबकि बौद्ध धर्म विवेक पर आधारित है। अन्य मजहब जड़ विश्वासों, जैसे 'एक ईश्वर पुत्र', 'एक दूत पैगम्बर' तथा 'धरती स्वर्ग, हवा चाँद' बनाकर देने वाले एकमात्र सच्चे ईश्वर का दावा करते हैं जबकि 'अंधे अनुयायियों का काम बस यह है कि उसके गीत गाते रहें। उन मजहबों में भोग, लोभ और सम्पत्ति प्रेम महत्वपूर्ण है। मनुष्य के आध्यात्मिक उत्थान के लिए वहाँ कोई स्थान नहीं। डॉ. अम्बेडकर के शब्दों में "वे सब सार रूप में खाओ, पियो और मजे करो से अधिक कुछ नहीं कहते।" उनके अनुसार बौद्ध धर्म सर्वश्रेष्ठ है जिसमें विवेक के साथ-साथ सम्पूर्ण मानवता के कल्याण की भावना है। वह व्यक्ति के गले में पट्टे जैसी मजहबी पहचान नहीं बांधता, बल्कि उसे विवेकी बनाता है। आज डॉ. अम्बेडकर की विरासत के ऐसे स्वाभिामनी, स्वदेशी पक्ष को दफन करने की कोशिश हो रही है। हैदराबाद केन्द्रीय विवि की घटनाएँ उदाहरण है कि दलितों को हिन्दू समाज से अलग करने, तोड़ने का तार्किकपरिणाम उन्हीं के मूल जीवन स्रोत से अलग करना है ताकि उन्हें साम्राज्यवादी मतवादों, मजहबों का शिकार बनाना आसान हो। डॉ. अम्बेडकर ने निस्संदेह इसके विपरीत शिक्षा दी थी। वे धर्म, संस्कृति, विचारधारा और राजनीतिक, किसी भी चीज में विदेशी प्रेरणाओं को उपयुक्त नहीं मानते थे। अतः यह हमारा, विशेषकर सभी देशभक्त और मानवतावादी भारतवासियों का कर्तव्य है कि नई पीढ़ी को डॉ. अम्बेडकर की सम्पूर्ण विरासत से अच्छी तरह और स्वयं परिचित होने की अपील करें। यह सर्वजन हिताय है।

- डॉ. प्रभु चौधरी

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