निर्भीक पत्रकारिता के जनक गणेशशंकर विद्यार्थी

Dr. Mulla Adam Ali
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Ganesh Shankar Vidyarthi : the father of fearless journalism

निर्भीक पत्रकारिता के जनक गणेशशंकर विद्यार्थी

निर्भीक पत्रकारिता के जनक गणेशशंकर विद्यार्थी

गणेशशंकर विद्यार्थी उन गिने-चुने देशभक्तों, क्रान्तिकारियों, पत्रकारों एवं स्वाधीनता सेनानियों में से एक हैं, जिन्होंने देशप्रेम व कौमी एकता के लिए निर्भीकता से कुर्बानी दी। यूँ तो अपने जीवन के प्रारंभ में ही गणेशशंकर ने स्वाधीनता के महत्व को पहचान लिया था। पर तत्कालीन क्रान्तिकारियों द्वारा चलाए राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन ने गणेशशंकर की भीतरी कामना को बलवती बनाया और उसके लिए उन्हें सशक्तता से संकल्पबद्ध कर दिया।

उस समय कानपुर क्रांन्तिकारियों की प्रचंड एवं विध्वंसपूर्ण गतिविधियों का गढ़ था। साफ है, कि युगीन स्थितियों और चुनौतियों से गणेशशंकर का गहरे में प्रभावित होना स्वाभाविक था। साथ ही, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी से प्राप्त पैनी शिक्षा-दीक्षा, ने गणेशशंकर को एक महान लक्ष्य के लिए बखूबी तराशा भी था। 'कलम तलवार से भी ताकतवर है' को चरितार्थ करने के लिए उन्होंने दैनिक प्रताप विरोधी का प्रकाशन शुरू किया। उनके संपादन एवं संचालन के साए में देखते ही देखते 'प्रताप' तत्वों और शक्तियों से टकराने व जूझने वाला ज़बर्दस्त औज़ार बन गया। यह इसलिए कि गणेशशंकर के लिए पत्रकारिता एक मिशन था, जिसमें न तो किस्म-किस्म के पालतुओं एवं फालतुओं के लिए जगह थी और न ही स्तरहीन राजनीति तथा सुविधाओं के लिए। पैसे-पैसे को मोहताज़ रहने पर भी उन्होंने किसी के आगे हाथ नहीं फैलाए। फिर भी, प्रताप का प्रकाशन जारी रखा। प्रलोभनों के प्रति न वे आकृष्ट हुए और न ही उन्होंने अख़बार की नीति बदली।

उनका कहना था कि पत्रकार प्रेरणा की ताक़त से ओतप्रोत होना चाहिये। पत्रकार में राष्ट्रविरोधी ताक़तों और सामाजिक विसंगतियों की ओर उँगली उठाने का मादा होना चाहिए और उसे उनसे निपटने के लिए लोगों को प्रेरणा भी देनी चाहिए। पत्रकारिता में जब प्रेरणा नहीं होती तो उसका शाश्वत उद्देश्य ही नष्ट हो जाता है। वे यह भी मानते थे कि पत्रकार की असली भूमिका युगीन यथार्थ को स्वीकार करने एवं साध्य की ओर पूरी ताकत एवं संकल्प के साथ आगे बढ़ने में है। वह जो कुछ लिखे, प्रमाण को आधार बनाकर लिखे। वे मानते थे कि पत्रकार शब्द का एक विशिष्ट अर्थ है, महत्व है। किसी व्यक्ति के नाम के साथ यह शब्द यों ही नहीं जुड़ जाता। पत्र को एक खास आकार देता है यह शब्द। यदि यह शब्द ऐसा नहीं कर पाता तो यह शब्द ही बेकार है। पत्रकार में इस्पाती ताक़त हो कि पत्र को कौन-सा आकार देना है।

गणेशशंकर के निर्भीक, अडिग, चट्टानी एवं निश्चल पत्रकार होने की कई अनुकरणीय मिसालें मिल ही जाती हैं। उनका दैनिक प्रताप ही पहला अख़बार था जिसने काकोरी कांड की पूरी अदालती कारवाई को बिना किसी डर और भय के निष्पक्ष रूप से छापा था तथा उसके चार अभियुक्तों को हुई फाँसी की सज़ा के ख़िलाफ सरकार से अपील भी की थी। इतना ही नहीं, एक बार तो गणेशशंकर ने अपने अख़बार में एक क्रांतिकारी के एक गुप्त संकेत को प्रकाशित तक कर दिया था। जब कानपुर के अंग्रेज़ कलेक्टर ने इसके बारे में उनसे जबाव-तलब किया तो गणेशशंकर ने सिंह गर्जना में कहा, महाशय सर्वप्रथम आपको मनुष्य बनना चाहिए, उसके बाद अंग्रेज़ या कुछ और। अगर आपके इंग्लैड पर जर्मन या फ्रांस का कब्ज़ा होता और आप किसी अख़बार के संपादक होते तो आप क्या करते? इस पर अंग्रेज़ कलेक्टर गणेशशंकर का मुँह ताकता रह गया।

उन्होंने एक पत्रकार के रूप में क्रान्तिकारियों की बहुत सहायता की। उन्होंने भगतसिंह को न केवल प्रताप में काम दिया, बल्कि उनके बहुत से लेखों को भी छापा। भगत सिंह द्वारा लिखे एवं बलवंत सिंह के नाम से प्रताप में छपे क्रान्तिकारी लेखों का सानी ढूँढ़ पाना कठिन है। गणेशशंकर अख़बार में छपने वाले हर लेख की ज़िम्मेदारी स्वयं अपने ऊपर रखते थे। उनके सम्पादकियों को पढ़कर लोगों का लहू ज़ोर मारने लगता था। यही वज़ह थी कि उनका अख़बार प्रकाशित होकर दूर-दूर झोपड़ियों एवं खंडहरों में पहुँचता था। इसके चलते बेशक उनके बहुत से दुश्मन बन गए थे और उन्हें बहुत-सी यातनाएँ भी भोगनी पड़ी थीं। परन्तु वे झुके नहीं। वे कहते थे, “मैं सभी सत्ताओं का विरोधी हूँ।" अंग्रेज़ सरकार ने उनके मन में दहशत पैदा करने के लिए विभिन्न आरोपों में उन्हें कई बार गिरफ्तार किया और जेल में दूँसा । पर वे अपने पथ से तनिक भी विचलित नहीं हुए। उन्होंने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ अपने अख़बार में बार-बार लिखा, डंके की चोट पर लिखी। वे मज़बूत पत्रकारिता के पक्षधर थे। "कुछ नहीं होने से कुछ तो होना बेहतर है" के सिद्धान्त से वे कोसों दूर थे। उनका मानना था कि जो कुछ होता है वह बेहतर होता ही नहीं है। उसमें बेहतर के लिए स्थान कहाँ होता है। ऐसी पत्रकारिता एक व्यवसाय होता है, जिसमें अलग-अलग हाशिए कुरेद दिए जाते हैं, राजनीति के हाशिए भी। वे कहते थे कि ऐसी पत्रकारिता से जुड़े पत्रकार के हाथ में कलम अवश्य होती हैं, पर जंज़ीरों में जकड़ी हुई। गणेशशंकर विद्यार्थी भी एक पत्रकार थे जिन्होंने जेल की चार दीवारी में बंद होते हुए भी लहू की स्याही और सलाख की क़लम से गोरों के विरूद्ध निडरता से लिखा। उस समय कोई खबर छपने का एक खास अर्थ होता था और खबर पढ़ने पर पाठक सोचने और कुछ करने के लिए लालायित हो उठता था। उनके समय में पत्रकार सिर ऊँचा उठाकर कहता था कि मैं पत्रकार हूँ और वह सही मायने में पत्रकार होता भी था। गणेशशंकर समझते थे कि यदि पत्रकार कुण्ठा का शिकार है और चंद सुविधाओं की तृष्णा के पीछे भागता है तो समाज व राष्ट्र को बदलने की बात उसके मन में आ ही नहीं सकती है।

वे प्रायः कहा करते थे कि पत्र अपनी नीति निर्धारण अवश्य करें, पर वर्तमान और भविष्य को र सोचकर । कहीं ऐसा न हो कि उनकी अपनी ही नीतियाँ उनके लिए भारी पड़ने लगें। उनकी यह भी मान्यता थी कि पत्र में सुधार की गुंजाइश तब तक ही रहती है, जब - तक वह मिशन रहता है। उसमें व्यावसायिकता आ जाने पर न तो सुधार एवं परिशोधन के बिन्दुओं से आँख से आँख मिलायी जा सकती है और न ही उनसे समझौता किया जा सकता है। वे बल देकर कहते थे कि पत्रकारिता चिलमन नहीं है कि इसके नेपथ्य में अन्य धंधे चलते रहे। गणेशशंकर ने अपने अखबार को शुरू से अंत तक एक खालिस अख़बार ही रखा और उसे वैसाखियों का कोई सहारा नहीं दिया। वे अपने अख़बार के प्रति निष्ठावान रहे। न कहीं छटपटाए और न ही अपने संस्कारों एवं उसूलों के साथ कोई समझौता किया। वे अपने अख़बार के प्रति प्रतिबंद्ध रहे क्योंकि वे सच्ची पत्रकारिता का आशय जानते थे और मिशन तथा व्यावसायिकता में फर्क भलीभाँति समझते थे।

उनकी तात्विक शक्ति को देखकर अंग्रेज सोचने लगते, "यदि गणेशशंकर विद्यार्थी ज़िन्दा रहते हैं, हम भारत में ज्यादा देर नहीं रह सकते हैं।" इसलिए उन्होंने मुसलमानों को भड़काकर हिन्दू-मुस्लिम एकता में दरार पैदा करवा दी ताकि गणेशशंकर की लोकप्रियता खत्म हो जाए। देखते ही देखते साम्प्रदायिकता की चिंगारी शोला बन गई और गली- मुहल्लों में हिन्दू-मुस्लिम दंगे भड़क उठे। इन दंगों की आग को बुझाने और कौमी एकता को बनाए रखने के लिए गणेशशंकर दोनों पक्षों को समझाने हेतु बाहर आए। इसी बीच एक मुसलमान ने गणेशशंकर को बुरी तरह से घायल कर दिया। गणेशशंकर आहत अवस्था में बोले देखो भाई, मेरा खून बहाकर भी अगर तुम एकता कायम रख सको तो मुझे मरने का कोई दुःख नहीं है और इस प्रकार उन्होंने कौमी एकता और भाईचारे की ख़ातिर अपना बलिदान दे दिया।

कहना न होगा कि गणेशशंकर क्रान्तिकारियों एवं देशभक्तों के लिए एक प्रेरक हिमालय थे। उनकी तस्वीर में कौमी एकता और मानवता की तस्वीर दिखाई देती थी। उनकी मृत्यु पर शोक प्रकट करते हुए महात्मा गाँधी ने कहा था "मुझे जब उसकी याद आती है तो उससे ईर्ष्या होती है। इस देश में दूसरा गणेशशंकर क्यों नहीं पैदा हुआ?" वे सचमुच अपने समय के अजातशत्रु थे। उन्होंने जिस क्षेत्र में पदार्पण किया, वह उनकी प्रतिभा से प्रकाशित हो उठा।

- डॉ. अमरसिंह वधान

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