Ghaswali and Thakur Ka Kuan Stories by Munshi Premchand
ठाकुर का कुआं और घासवाली कहानियां : प्रेमचंद की सबसे प्रसिद्ध कहानियों में घासवाली और ठाकुर का कुआं है, इन कहानियों में प्रेमचंद ने दलित, शोषित, अस्पृश्य नारी पत्रों के बारे में सटीक चित्रण किया है। तो आज प्रेमचंद जयंती पर महान कहानीकार उपन्यास सम्राट की ये कहानियों में वर्ग संघर्ष के बारे में पढ़िए।
घासवाली और ठाकुर का कुआं में वर्ग संघर्ष : गंगी और मुलिया का विद्रोह
मुंशी प्रेमचन्द के वर्ग संघर्ष से संबंधित सर्वोत्तम कहानियाँ हैं 'ठाकुर का कुओं' और 'घासवाली'। इन कहानियों में गंगी और मुलिया दलित, शोषित, अस्पृश्य तथा गरीच परिवार से संबंधित नारी पात्र है।
वर्ण व्यवस्था में धीरे-धीरे उच्च वर्षों की उन्नति के लिए निम्न वर्गों के दबाया गया या फलस्वरूप पंचम वर्ण का निर्माण हुआ। परंपरागत हिन्दू समाज ने इस वर्ण को दलित या इमनित वर्ग का नामकरण भी किया था। समाज में आर्थिक और सांस्कृतिक मजबूरी से अपना प्रभाव दिखाने वाले उच्चवर्ग के सामने यह दलित वर्ग दब जाता है।
'ठाकुर का कुआँ' में गंगी का पति 'जोखू' कई दिनों से चीमार है। प्यास से उसका गला सूख जाता है पर गंगी से लाया गया पानी से किसी जानवर के कुएँ में गिरकर मरने के कारण बदबू निकलने लगी। फलतः जोखू से पीया नहीं जाता तो देखकर गंगी वेदना से तड़प उठती है।
दलितों के अस्पृश्य और नीच जाति के मानने के कारण समाज में उनका जीवन दूभर हो जाता है। फलतः वे मानव होकर भी अन्य लोगों के जैसे स्वतंत्र रूप से जीवन नहीं बिता सकते है। सार्वजनिक स्थानों में विचरना भी वर्जित है। अस्पृश्यता की यह रीति दलितों के प्रति अभिशाप बन गयी है।
'गंगी' ऐसी ही एक दलित नारी है जो अस्पृश्यता के कारण ठाकुर के कुएँ पर पानी भरने के योग्य नहीं है। वह भोली और अनपढ़ होने के कारण इतना तक समझ नहीं पायी की गंदे पानी को उबालने पर पानी साफ और स्वच्छ हो जाता है। जोखू की तड़प गंगी से देखा नहीं जाता इसलिए वह ठाकुर के कुएँ से पानी लाने का निर्णय लेती है। इसी में ही उसके संकल्प की प्रधानता की झलक दिखाई देती है। "हाथ पाव तुड़वायगी और कुछ न होगा, बैठ चुपके से। ब्राह्यण देवता आशीर्वाद देंगे, ठाकुर लाठी मारेंगे, साहू जी एक के पाँच लेंगे। गरीबों का दर्द कौन समझता है? हम तो मर भी जाते हैं, तो कोई द्वार पर झाँकने नहीं आता, कंधा देना तो बड़ी बात है। ऐसे लोग कुएँ से पानी भरने देंगे ?" कहते हुए जोखु समाज की सच्चाई को दलित के प्रति समाज के व्यवहार को प्रस्तुत करने पर भी गंगी के प्रबल संकल्प में दील नहीं आती।
असमर्थनीय प्रथा अबला नारी को सबला बना देती है। लोटा भर पानी के लिए गंगी का विद्रोही मन रिवाजी पाबन्दियों और मजबूरियों पर चोट करने लगा। वह सोचती है कि 'हम लोग क्यों नीचे हैं और ये लोग क्यों ऊँचे हैं? इसलिये कि ये लोग गले में तागा डाल लेते हैं। चोरी ये करें, जाल फरेब ये करें, झूठे मुकदमें ये करें। अभी इस ठाकुर ने तो उस दिन बेचारे गड़ेरिये की एक भेड़ चुरा ली थी और बाद में मारकर खा गया। इन्हीं पण्डित जी के घर में तो बारहों मास जुआ होता है। यही साहुजी तो घी में तेल मिलाकर बेचते हैं। किस बात में वे हमसे ऊँचे ह? हाँ मुँह से, हमसे ऊँचे हैं, हम गली-गली चिल्लाते नहीं कि हम ऊँचे हैं। यहाँ गंगी के विद्रोह के माध्यम से प्रेमचन्द समाज में अपने आपको ऊँचे माननेवाले लोगों का सच्चा चित्र प्रस्तुत करते हैं।
इन्हीं रीति-रिवाजों को डरते-डरते पालन करने वाली गंगी पति के प्यास को बुझाने हेतु साहस करके ठाकुर के कुएँ से पानी भरने जाती है। चौकन्नी से गंगी पानी का घड़ा कुएँ में डालती है। साहसी, धैर्यशील और विद्रोही गंगी अन्त में पानी भरने में विफल होती है। ठाकुर के पुकार को सुन जगत से कूदकर भाग जाती है। उसका इस तरह भागना सहज ही है। मानव जितना भी धैर्यवान क्यों न हो अगर भयभीत होगा तो धैर्य निष्क्रिय हो जाता है। गंगी विफलता के बावजूद भी पाठक के मन में घृणा के बदले सहानुभूति की पात्र बनती है।
'गंगी' के पति से जितनी सहानुभूति पाठक को मिलती है उतनी ही सहानुभूति 'घासवाली' कहानी की नायिका 'मुलिया' भी प्राप्त करती है। मुलिया महावीर की पत्नी है जो इक्का चलाता है। लारियों के चलने कारण इक्के पर चढ़ने वालों की संख्या घटती गयी है। महावीर घरवालों को दो वक्त की रोटी देने में विफल होता है। पर घोड़े का पेट भरना इनका कर्त्तव्य बनता है। सारी जिम्मेदारी का बोझ मुलिया को वहन करना पड़ता है। सास की डाँट और पति की सहानुभूति ने मुलिया को खेतों की मेड़ों पर घास छीलने के लिए मजबूर किया।
मुलिया ऐसी ही दलित पात्र है जो बहिष्कृता गरीब और लाचार होने के कारण उसकी सुन्दरता ही उसकी शत्रु बन जाती है। ऐसे लोग मौजूद थे जो उसके तलवों के नीचे आँखें बिछाते थे, उसकी एक चितवन के लिए तरसते थे। निम्न जाति के स्त्री को स्वाभिमान से भी जीने नहीं देते। मुलिया नीची आँख किये अपनी यह चली जाती तो लोग हैरान होकर कहते है कि- 'अबला नारी मुलिया चैनसिंह का विरोध तो करती है पर संघर्ष की गरमी में चोट की व्यथा ही नहीं होती, पीछे से टीस होने लगती है। क्रोध और भय तथा अपनी बेकसी का अनुभव ने मुलिया के आँखों में आँसू भर दिया।
भारतीय समाज में पति-पत्नी का संबंध सात फेरों का ही नहीं दो पवित्र आत्माओं का मिलन होता है। बाह्य सौन्दर्य से भी आत्म-सौन्दर्य की प्रधानता अधिक होती है। जवानी का जोश, बल, दया, साहस, आत्म-विश्वास, गौरव मानव जीवन को पवित्र, उज्जवल और पूर्ण बना देते हैं। जवानी का जोश, घमंड, निदर्यता, स्वार्थ, शेखी, विषय-वासना, कटुता, पशुता विकार मानव जीवन को पतन की ओर ले जाते हैं। चैनसिंह ही इसका उदाहरण है। फिर भी मुलिया का विद्रोह ठाकुर चैनसिंह में मानवता को जगाता है।
प्रेमचन्द एक ओर धैर्यशील और विद्रोही गंगी से परंपरा से चली आ रही रीति रिवाजों को तोड़ने में मजबूर करते हैं तो दूसरी ओर मुलिया के विद्रोहयुक्त स्वाभीमान, आत्म सम्मान की भावनाओं के द्वारा व्यक्तिपरक स्वार्थ के कारण व्यक्ति में निहित ज़मीर को जगाकर चैनसिंह जैसे ठाकुर के मन में मानवता के बीज बोते हैं। फलतः चैनसिंह दूसरों से अपनी गाँव की दलित नारी का मज़ाक तक सह नहीं पाता और आर्थिक रूप से महावीर की सहायता कर गाँव की आबुरू बचाने में मज़बूर होता है। इन दो दलित नारी पात्रों के व्यक्तित्व के माध्यम से प्रेमचन्द वर्ण वर्ग भेद से भी बढ़ कर समाज हित भावना के बीज बोते हैं।
- डॉ. मेहरून
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