Munshi Premchand Godaan : An exploration
Godaan by Premchand : मुंशी प्रेमचंद जयंती पर विशेष ग्रामीण परिवेश और कृषक जीवन का जीता जागता उपन्यास गोदान का परिशीलन पढ़े आज के इस आर्टिकल में। गोदान प्रेमचंद का महत्वपूर्ण उपन्यास है, होरी, धनिया, गोबर और फुलेना गोदान उपन्यास के मुख्य पात्र है। मुंशी प्रेमचंद का सर्वश्रेष्ठ गोदान उपन्यास की समीक्षा, हिन्दी महाकाव्यात्मक उपन्यास गोदान उपन्यास का अध्ययन।
मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास गोदान : एक परिशीलन
आधुनिक काल में विकसित गद्य विधाओं में उपन्यास का महत्वपूर्ण स्थान है। हिन्दी उपन्यास के विकास का श्रेय अंग्रेजी एवं बंगला उपन्यासों को दिया जा सकता है, क्योंकि हिन्दी में इस विधा का श्री गणेश अंग्रेजी एवं बंगला उपन्यासों की लोकप्रियता से हुआ। बाल कृष्ण भट्ट ने इस बात को स्वीकारते हुए लिखा कि "हम लोग जैसा और बातों में अंग्रेजों की नकल करते जाते हैं, उपन्यास का लिखना भी उन्हीं के दृष्टान्त पर सीख रहे हैं।"
उपन्यास के क्षेत्र में प्रेमचन्द का योगदान अद्वितीय है। वे अपनी महान प्रतिभा के कारण युग प्रवर्तक के रूप में जाने जाते हैं। उपन्यास और जीवन का घनिष्ठ संबंध है जो लेखक से अधिक निकट रहता है। और जिसके उपन्यास उसकी अनुभूति की प्रखरता को सच्चाई के साथ रचना में अवतरित करते हैं वह उपन्यास के क्षेत्र में उतना ही अधिक सफल होता है। प्रेमचन्द भारतीय जन-जीन के कलाकार हैं। जीवन के विविध पाश्वों को उन्होंने बहुत समीप से देखा था। ग्रामीण जीवन के हर एक पहलू से वे परिचित थे, सामंती जीवन रूपी बहती हुई इमारत का भविष्य उन्हें ज्ञात था। निम्न मध्यम वर्ग के स्वयं ही प्रतिनिधि थे और इन सब को उन्होंने अपने उपन्यासों में सजीवता के साथ चित्रित किया।
प्रेमचन्द राष्ट्रीय आंदोलन के सक्रिय कार्यकर्ता भी थे। सन् 1920-30 के आंदोलनों का प्रभाव भी उनकी कृतियों पर पड़ा है। सन् 1920-22 के आंदोलन का चित्रण हमे 'रंगभूमि' में देखने को मिलता है। 'कर्मभूमि' सन् 1930 ई. के आंदोलन की पृष्ठभूमि में लिखा गया है। और गोदान में साम्राज्यवाद के दमन चक्र के नीचे पिसते हुए भारतीय किसान का एक सजीव चित्र गहरे रंगों से प्रस्तुत किया गया है।
'गोदान' का 'होरी' भारतीय किसान का प्रतिनिधि है। इसमें लेखक की संपूर्ण चेतना की अभिव्यक्ति हुई और उसने प्रौढ़तम अनुभवों को एक सूत्र में बाँधने का प्रयत्न किया है। गोदान में प्रेमचन्द ने अपने संपूर्ण पूर्वाग्रहों का मोह त्याग कर तटस्थ कलाकार के रूप में युग का चित्रण किया है। इसमें न वे किसी के अनुयायी हैं और न किसी के सिद्धांत विशेष के प्रचारक।
प्रायः सभी आलोचकों का यह मत है कि 'गोदान' प्रेमचन्द के उपन्यासों का शीर्षमणि है। पं. नन्ददुलारे वाजपेयी ग्रामीण कथा को मुख्य कथा को अपना अधिकारिक तथा नागरिक कथा को गौण अथवा प्रासंगिक मानते हैं। गोदान में दो कथायें साथ-साथ चल रही हैं। एक तरफ तो रावसाहब के यहाँ रामलीला देखने के लिए नगर से संभ्रांत व्यक्ति आते हैं और गोबर मजदूर बनकर शहर जाता है। 'गोदान' वस्तुत ग्रामीण जीवन का उपन्यास माना जाता है, फिर इसमें नागरिक कथा को जोड़ने का क्या कारण था। यह प्रश्न आलोचकों ने उठाया है और इसके भित्र-भिन्न उत्तर दिये हैं। इनमें से अधिकांश की धारणा रही है, कि नागरिक कथा उपन्यास के कथावस्तु के संगठन को चित्रित कर देती है। मूल कथा से उसका तारतम्य नहीं बैठ पाता, परंतु यह आलोचना करने का शुद्ध शास्त्रीय दृष्टिकोण है।
प्रेमचन्द 'गोदान' में भारतीय समाज के समग्र चित्र उतारना चाहते थे इसका प्रमुख भाग गाँवों में बिखरा पड़ा है। उन्होंने इसमें किसानों पर होने वाले उस शोषण का चित्रण किया है जिसे प्रत्यक्ष रूप से तो जमींदार कहते हैं और अप्रत्यक्ष रूप से नगर वाले। अतः प्रेमचन्द यदि नागरिक कथा को न लाते तो शोषण के इस चक्र का यह चित्र अधूरा ही रह जाता।
'गोदान' की कथावस्तु को लेकर दूसरा आक्षेप यह किया जाता है कि दो कथायें होने से कथावस्तु कहीं-कहीं असंबद्ध और शिथिल हो गई है। इसके उत्तर के लिए हम केवल 'बाबू गुलाबराय' के शब्दों को ही उद्धृत कर देना यथेष्ट समझते हैं। आपका कहना है कि-"उपन्यास की वस्तु गढ़ी हुई नहीं मालूम पड़ती। उसमें जीवन का-सा बहाव है। जीवन के ही छाया लोकमय सुख-दुःख भरे चित्र हैं। कहीं खन्ना जैसे नैतिक गर्त हैं तो कहीं होरी जैसे उच्च शिखर हैं। कथावस्तु में पूरी गति है। वर्णन सुंदर होते हुए भी इतने बड़े नहीं है कि कथावस्तु की गति कुंठित हो जाय।"
इस प्रकार जीवन के उपरोक्त विभिन्न चित्रों को समेटता हुआ कथा स्रोत अविरल रूप से आदि से अन्त तक चलता रहता है। किसी भी एक घटना में पढ़कर प्रेमचन्द खो से जाते हैं। फिर बहुत दूर जाकर कथा का पहला छोर स्मरण कर उठते हैं। छायावादी शैली के प्रसिद्ध आलोचफ शान्तिप्रिय द्विवेदी को कथा का अन्त कुछ शिथिल-सा लगा है- "जैसे तेजी से चलती हुई ट्रेन स्टेशन पर आते-आते धीमी हो जाती है।"
चरित्र-चित्रण की दृष्टि से तो प्रेमचन्द को 'गोदान' में असाधारण सफलता प्राप्त हुई है। 'वाजपेयी' जी का कहना है कि "इसके पात्र कठपुतली न होकर रक्त-मांस के बने हुए सजीव व्यक्ति है। पात्रों के चरित्र में सर्वत्र एक गतिशीलता मिलती है, वे स्थिर नहीं है।"
कथोपकथन की दृष्टि से भी 'गोदान' एक उत्कृष्ट कलाकृति प्रमाणित होता है। उसके कथोपकथन सर्वत्र सजीव, वातानुकूल, चरित को स्पष्ट करने वाले और कथा को गति देने वाले हैं।
भाषा के क्षेत्र में तो प्रेमचन्द सम्राट हैं। उनकी भाषा अपनी सरलता, सौन्दर्य, व्यंग्य और प्रवाह के कारण आदर्श मानी जाती है। वह जन साधारण के जीवन से अपने शब्द-चित्र बनाती है।
'गोदान' की इन्हीं विशेषताओं को देखकर 'प्रकाश चन्द्र गुप्त' ने मुक्त कण्ठ से उसकी प्रशंसा की है-"गोदान में प्रेमचन्द ने उत्कृष्ट कलाकार के सभी गुण दर्शाये हैं। उनकी शैली प्रौढ़ है। पात्र सच्चे और सजीव हैं। ग्राम्य जीवन को खूब समझते हैं। उनकी रचना में गम्भीरता और सरसता है।"
अन्ततः शैली की दृष्टि से भले ही आज कुछ उन्यासकार प्रेमचन्द जी से आगे बढ़ गए हों किन्तु विषय-वस्तु की दृष्टि से प्रेमचन्द जी का महत्व असंदिग्ध है। वे विश्व के श्रेष्ठतम उन्यासकारों- टॉलस्टॉय, गोर्की डिकेंस, शरद की कोटि में आते हैं।
- अनुपमा तिवारी
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